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Sufinama
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Anas Khan

Anas Khan

Doha 4

पैरों से कमज़ोर थी फिर भी पलटा खेल

लिपट लिपट कर पेड़ से ऊपर चढ़ गइ बेल

मस्जिद में पैदा हुआ सीखी वही ज़बान

तोता मंदिर पे चढ़ा देने लगा अज़ान

पेड़ ज़र्द होने लगे फूल हुए रसहीन

लहू शजर का खींच कर पीने लगी ज़मीन

पहले हुआ किसान का बालू बालू खेत

फिर आँधी महंगाई की भर गयी मूँ में रेत

मुल्ला पंडित सब यहाँ करते रहे फरेब

सोच रहा न्यूटन वहाँ गिरता क्यूँ है सेब

रूह बदन से खींच कर की तुझ पर क़ुरबान

आसमान धरती तुझे भरती रही लगान

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दुनिया एक सराब है पुख़्ता हुआ यक़ीन

मैं जितना चलता गया उतनी चली ज़मीन

ये दुनिया की रीत है या दुनिया का दीन

जो ऊपर चढ़ने लगे खींचे उसे ज़मीन

छुपा गया गहराई में दरया अपना हाल

मैं जब भी अंदर गया बाहर दिया उछाल

तारा जब मर मिट गया हुआ है तब दीदार

कितनी धीमी है अनस शोहरत की रफ़्तार

सतरंगी रौशनी कैसी शक्ल बनाई

जो रंग अपनाया नहीं वो ही दिया दिखाई

इन आँखों में क़ैद है इस दुनिया का सार

बाहर खाली अक्स है अंदर है संसार

भँवर लगे जब खींचने तुन्द हवा के बाल

हवा नोचने लग गई दरियाओं की खाल

खुद को छोटा कर लिया खुद में खुद को भींच

बिल आख़िर चरखाब ने लिया समुंदर खींच

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बदन अंधेरी कोठरी खोजो दियासलाई

'अनस' जगाओ चेतना रौशन करो ख़ुदाई

आँखे मूँदी दिन हुआ जो खोलीं सो रैन

अंतस से दिखने लगा व्यर्थ हुए ये नैन

डूब गए तन में नयन रात बढ़ा जो भार

दिन होते ही झील ने नैनन दिए उभार

चीरहरण होने लगा हुई धरा बेचैन

घूमी तभी वसुंधरा बदल दिए दिन रैन

कोलाहल जैसे मचा लिया समुंदर थाम

उग्र भंवर नख पर लिए खड़े रहे घनश्याम

रूह नहीं ये रुई है इंसाँ एक लिहाफ़

जब जब ये मैला हुआ बदला गया ग़िलाफ़

ये कहकर तलवार ने छोड़ी आज मयान

क़ैद हिसारे-जिस्म में अब रहेगी जान

माज़ी कब का सो गया सर पर चादर तान

'अनस' कहाँ से जिस्म पर आने लगे निशान

पंछी उड़ कर चल दिया सूख गयी जब झील

मौत है असली ज़िन्दगी मौत नहीं तकमील

अंतर्मन की रौशनी उजियारे का स्रोत

अखियन की बुझ जाए पर रहे ज्ञान की ज्योत

लौ जो बाहर जल रही है चराग़ की जान

मैं तो उसका अक्स हूँ साया है इंसान

सूफ़ी जोगी औलिया सूझ बूझ के फेर

तन कपड़ों को छोड़ दे तंग लगे जब घेर

जितना मन खुलता गया खुल गए उतने राज़

परत परत जितनी छिली उतनी निखरी प्याज़

तू मुझमें महदूद है मैं तुझ में महदूद

मेरे साये में तिरा दिखने लगा वजूद

बाहर की इक ठेस भी पैदा कर दे खोट

अण्डा जीवन पाए जब हो अंदर से चोट

सूर्य लाल ही रह गया उड़ गए बाक़ी रंग

हुई मुक्त वो आत्मा जिसकी बढ़ी तरंग

इक पल मौत इक पल जनम है वजूद का जाल

घायल तन पर पेड़ के लौट आइ है छाल

सब ज़हनों को जोड़ कर बन जाये इक जाल

'अनस' तरंगित हो उठे अगर सोच का ताल

बदन कभी मरता नहीं केवल बदले नाप

बर्फ पिघल कर नीर हो नीर बने फिर भाप

अपने अंदर मैं गया इक दिन करने सैर

इतना आगे बढ़ गया पीछे छूटे पैर

ज़हन है छत्ता शहद का भिनभिन गूँजे पोर

बाहर से खामोश है मचा है अंदर शोर

कूजागर की उँगलियाँ रूह मिरी मढ़ जाएँ

हौले से तन को छुएँ अंदर तक गढ़ जाएँ

मुस्लिम जन्नत में रहें हिंदू स्वर्ग बसाएँ

लेकिन मर कर जानवर किस दुनियाँ में जाएँ

नज़र अक़ीदा बन गई और अक़ीदा दीन

गर्दिश करते चाँद को ठहरी दिखी ज़मीन

दुनिया को दिखता नहीं उसका असली रूप

सूरज की परछाईं भी हो सकती है धूप

ज़मीं गोल है चर्च ये करता था यक़ीन

चाँद आइना बन गया दिखने लगी ज़मीन

अनस परत ओज़ोन की होने लगी महीन

चलो खला में ढूँढ लें अपने लिए ज़मीन

ऊँच नीच में हट गया पुनर जनम से ध्यान

आरक्षण करता नहीं रूहों का भगवान

ग़ुस्सा है इक ऊर्जा समझो इसका दाम

लिया नहर की धार से पंचक्की ने काम

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सुध-बुध खो गई बाँवरी जिस दिन खुला फ़रेब

नदिया में गागर मिली पनघट पर पाज़ेब

अंबर तक लपटें उठीं जला गगन का छोर

मेरी बिरहन थी जहाँ धुआँ उठा उस ओर

आखिर वो ही गयी तोड़ स्वर्ग के द्वार

गरज रही है मेघ में पायल की झनकार

धुआँ-धुआँ नैनन हुए सब कुछ दिया जलाए

खड़ी है जोगन बाम पर मन में अगन लगाए

चिता मिरी जलने लगी समय भि बीता जाए

एक बार मुस्काइ दो खड़े हो सीस झुकाए

रात उमस में तर हुए लेकिन खुले बाब

अलगानियों पर नैन की दिन भर सूखे ख़ाब

पाकर नैनन में उसे थिरक उठा था नीर

आँच लगी जब देर तक उफ़न गयी तस्वीर

मिले जो नैनन मद भरे धड़का मन का द्वार

तन के इस दरबार का मन है चौकीदार

जाने क्यूँ भीगी रहीं पलके सारी रात

अनस घमस के बाद ही होती है बरसात

छलकी गागर नैन की हल्क़ों पर कजराई

'अनस ' घड़ौंची सील गइ आने लगी है काई

मछली जोगन हो गयी छोड़ दिया है ताल

हमने अंजाने कभी फेंक दिया था जाल

ज़ब्त आँसू हो सके इतना बढ़ा दबाव

आखिर मन के भात को देना पड़ा पसाव

आँखों में पानी भरा पानी में गिर्दाब

ख्वाब हथेली पर लिए खड़ा रहा तालाब

शराबोर पलकें हुईं काजल गया है फैल

अश्क़ों के सैलाब में बिखर गई खपरैल

मन के भीतर प्रेम है बाहर कवच कठोर

उतना मीठा जल मिले जितना गहरा बोर

हमसे दिल बहला लिया देदी फिर रुसवाई

दिया जला कर फूँक दी जैसे दिया सलाई

सागर में फौरन घुली कब नदिया की धार

कई दिनों तक बीच में खड़ी रही दीवार

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