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मुल्ला नसरुद्दीन- पहली दास्तान

लियोनिद सोलोवयेव

मुल्ला नसरुद्दीन- पहली दास्तान

लियोनिद सोलोवयेव

MORE BYलियोनिद सोलोवयेव

    यह भी बयान किया गया है कि वह सीधा-सादा इंसान अपने गधे की लगाम पकड़े चल रहा था और गधा पीधे-पीछे रहा था।

    -(अलिफ़ लैला की शहरज़ाद की 382 वीं रात)

    जब ख़ोजा नसरुद्दीन की पैंतीसवीं सालगिरह थी, तो वह सड़कों पर मारा-मारा फिर रहा था। परदेशों में, एक शहर से दूसरे शहर, एक देश से दूसरे देश, समुद्र और रेगिस्तान पार करते हुए, जहां रात हुई वहीं सोते हुए उसने दस साल काट दिये थे। कभी वह चरवाहों के छोटे अलाव के किनारे सो जाता, कभी खचाखच भरी कारवांसराय में- जहां सारी रात धुंधलके में ऊंट सांसें भरा करते और घंटियों की रुनझुन के साथ अपना बदन खुजाया करते। कभी वह धुएं और कालिख से भरे चायख़ानों में पड़ा रहता- भिश्तियों, फ़क़ीरों, ख़च्चरवालों और ग़रीबों के बीच, जो भोर होते ही तंग गलियों और बाज़ारों को अपनी चींख़-पुकार से भर देते।

    बहुत सी रातें उसने किसी किसी ईरानी रईस के हरम में नर्म, रेशमी गद्दों पर बितायी थी, जब घर का मालिक सिपाहियों के साथ इस नापाक आवारे की खोज में सरायों और चायख़ानों की ख़ाक छानता फिरता था ताकि वह उसे पकड़ ले और सूली पर लटकवा दे।

    झिंझरीदार झरोखे से आसमान में रौशनी की एक किरन दिखायी देती, सितारे धुंधले हो जाते, सुब्ह होने की ख़बर देने वाली हवा हौले से नम सब्ज़े में सरसराने लगती और खिड़कियों पर जंगली चिड़ियां चहचहाने और चोंच से अपने पर संवारने लगतीं। अलसायी आंखों वाली सुन्दरी का मुंह चूमता हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन कहताः-

    वक़्त हो गया। अलविदा’अअ', मेरी दिलबर, भूल जाना मुझे।

    अभी रुको! अपनी सलोनी बाहें उसकी गर्दन में डाल कर वह कहती, क्या तुम हमेशा के लिए जा रहे हो? सुनो, आज रात को जैसे ही अंधेरा होगा, तुम्हें बुलाने के लिए मैं बुढिया को फिर भेज दूंगी।

    नहीं। एक ही मकान में दो रातें गुज़ारना क्या होता है, यह मैं एक अ’र्से से भूल चुका हूँ। मुझे अपनी राह लगने दो। देर हो रही है मुझे।

    अपनी राह? किसी और शहर में तुम्हें कोई ज़रूरी काम है क्या? तुम जा कहां रहे हो?

    मुझे नहीं मा'लूम। लेकिन उजाला हो चुका है, शहर के फाटक खुल गये हैं और पहले कारवां रवाना हो रहे हैं। ऊंटों की घंटियों की रुनझुन सुन रही हो न? इसे सुनते ही मुझे लगता है कि जिन मेरे पैरों में समा गये हैं और मैं रुक नहीं सकता।

    तो, जाओ! अपनी लम्बी पलकों में आंसू छिपाने की नाकाम कोशिश करती हुई वह नाज़नीन-ए-हरम नाराज़गी से कहती। लेकिन सुनो तो! जाने से पहले अपना नाम तो मुझे बता जाओ।

    मेरा नाम? तो सुनोः तुमने यह रात ख़ोजा नसरुद्दीन के साथ बितायी है। मैं हूं ख़ोजा नसरुद्दीन। अमन में ख़लल डालनेवाला और फूट और फ़साद फैलानेवाला। मैं वही हूं जिसका सिर काटनेवाले को भारी इनआ'म देने का एलान किया गया है, हर दिन नक़ीबची बाज़ारों और आ'म जगहों पर इसका ढिंढोरा पीटते हैं। कल तो वे लोग मुझे पकड़ने वाले को तीन हज़ार तूमान देने का लालच दे रहे थे। मेरा मन हुआ कि इतनी अच्छी क़ीमत पर मैं खु़द ही अपना सिर दे दूँ। तू हंसती है, मेरी नन्ही बुलबुल? अच्छा, तो ला, आखि़री बार अपने होंठ चूम लेने दे। मेरा दिल तो चाहता है कि तुझे कोई ज़मुर्रद दूं, लेकिन वह मेरे पास है नहीं। ले, मैं यह सफे़द पत्थर का टुकड़ा दे रहा हूं, जिस को देख कर तू मुझे याद किया करे!

    वह अपनी फटी ख़िलअ'त पहनता जो अलाव की चिनगारियों से कई जगह जल चुकी थी और चुपचाप बाहर हो जाता। दरवाज़े पर महल के सबसे क़ीमती खज़ाने का रखवाला, काहिल और बेवकू़फ़ ख़्वाजा साफ़ा बांधे और सामने की ओर ऊपर को मुड़ी मुलायम जूतियां पहने ख़र्राटे लेता रहता। आगे ग़ालीचों दरियों पर नंगी तलवारों का तकिया बनाये पहरेदार लम्बे पड़े होते। ख़ोजा नसरुद्दीन पंजों के बल चुपचाप निकल जाता- हमेशा ब-ख़ैरियत, मानो इस वक़्त वह दूसरों की नज़रों से छू मन्तर हो गया हो!

    और पथरीली सड़क फिर एक बार उस के गधे के तेज़ खुरों से गूंजने लगती और धुंआ उड़ाने लगती। नीले आसमान का सूरज दुनिया पर चमकता। ख़ोजा नसरुद्दीन बिना आंखें झपकाये उस की ओर देखता। ओस से नम खेत और ऊपर रेगिस्तान- जहां रेत की आंधियों से सफे़द हुई ऊंटों की हड्डियां पड़ी होती- हरे-भरे बाग़ और उफनती नदियां, नंगी बंजर पहाड़ियां और हंसते-मुस्कुराते चारागाह ख़ोजा नसरुद्दीन के गीतों से गूंज उठते। अपने गधे पर सवार, पीछे मुड़कर एक बार भी देखे बिना, गुज़री बातों के लिए किसी भी कसक के बिना और आगे आनेवाली मुसीबतों के लिए किसी डर के बिना, वह आगे बढ़ता जाता।

    पर जो क़स्बा वह अभी-अभी छोड़कर आया है उस की याद हमेशा ताज़ा रहेगी। मुल्ला और उमरा उसका नाम सुनते ही गु़स्से से लाल-पीले होने लगते। भिश्ती, गाड़ीवान, बुनकर, ठठेरे और ज़ीनसाज़ रात को चायख़ानों में इकट्ठे होकर उसकी वीरता की कहानियाँ कह कर अपना मनोरंजन करते और ये कहानियां ख़त्म होने तक हमेशा उस के मुआफ़िक़ बन जातीं। हरम की अलसायी हुई सुन्दरी बार-बार सफे़द पत्थर के टुकड़े को देखती और अपने शौहर के क़दमों की आवाज़ सुनते ही जल्दी से उसे सीप की पिटारी में छिपा लेती।

    ज़रबफ़्त की ख़िलअ'त को उतारता हुआ, हांफता-कांपता मोटा अमीर कहता- ओफ़! इस कम्बख़्त आवारा ख़ोजा नसरुद्दीन ने हम सभी को पस्त कर दिया। उसने तो पूरे मुल्क को उभारकर, गड़बड़ फैला रखी है। आज मुझे मेरे पुराने दोस्त, खु़रासान के आ'ला हाकिम का ख़त मिला। तुम समझती हो न! उनके शहरों में यह आवारा पहुंचा ही था कि यकायक सभी लुहारों ने टैक्स देना बन्द कर दिया और सरायवालों ने बिना दाम लिये सिपाहियों को खाना खिलाने से इंकार कर दिया। और, सबसे बड़ी बात तो यह कि यह चोट्टा, इस्लाम को नापाक करनेवाला यह हराम-ज़ादा, हाकिम के हरम में घुसने की गुस्ताख़ी कर बैठा और उनकी सबसे चहेती बीवी को फुसला लिया। सच ही, दुनिया ने ऐसा बद-मआ’श कभी नहीं देखा! अफ़्सोस यही है कि यह दो कौड़ी का भिखमंगा मेरे हरम में घुसने की कोशिश करने नहीं आया, नहीं तो उस का सिर बाज़ार के चौराहे पर सूली पर लटकता दिखायी देता।

    नाज़नी, अपने आप मुस्कुराती हुई, मौन रहती।

    और, इस बीच ख़ोजा नसरुद्दीन के गानों और उस के गधे के तेज़ खुरों से सड़क गूंजा करती और धुंआ उड़ा करता।

    इन दस सालों में वह हर जगह हो आया थाः बग़दाद और इस्ताम्बूल, तेहरान, बख़्शी सराय, तिफ़लिस, दमिश्क़, तबरेज़ और अख़मेज़। इन सभी शहरों से वह वाक़िफ़ था और इनके अ'लावा और भी बहुत से शहरों से। और हर जगह वह अपनी कभी भुलायी जा सकने वाली याद छोड़ आता। और अब वह अपने वतन, अपने शहर बुख़ारा शरीफ़ लौट रहा था- पाक बुख़ारा, जहां वह नाम बदल कर कुछ दिन अपनी भटक से छुट्टी पाकर आराम करना चाहता था।

    ।।2 ।।

    व्यापारियों के एक काफ़िले के साथ, जिसके पीछे वह लग लिया था, उसने बुख़ारा की सरहद पार की। सफ़र के आठवें दिन, दूर गर्द के धुन्ध में, इस बड़े और मशहूर शहर के ऊंचे मीनार दीखे। प्यास और गर्मी से पस्त ऊंटवालों ने फटे गलों से आवाज़ लगायी और ऊंट और तेज़ी से आगे बढ़ चले। सूरज डूब रहा था। शहर के फाटक बन्द होने से पहले बुख़ारा में दाख़िल होने के लिए जल्दी करने की ज़रूरत थी। ख़ोजा नसरुद्दीन कारवां में सबसे पीछे था- गर्द के मोटे और भारी बादल में लिपटा हुआ। यह उसके अपने वतन की पाक गर्द थी जिसकी खु़श्बू उसे दूर देशों की मिट्टी से ज़्यादा अच्छी लग रही थी। छींकता, खांसता, वह बराबर अपने गधे से कहता जाता- ले! अच्छा ले! हम लोग ही पहुंचे। आख़िर अपने वतन ही गये। इंशा अल्लाह, कामयाबी और मसर्रत यहां हमारा इंतिज़ार कर रही हैं।

    कारवां शहर की चहारदीवारी तक पहुंचा तो पहरेदार फाटक बन्द कर रहे थे।

    खु़दा के वास्ते हमारा इंतिज़ार करो! कारवां का सरदार दूर से सोने का सिक्का दिखाता हुआ चिल्लाया।

    लेकिन तब तक फाटक बन्द हो गये। झनझनाहट के साथ साकलें लग गयीं। ऊपर बुर्जियों पर लगी तोपों के पास पहरेदार तअ'ईनात हो गये। ताज़ा हवा चल निकली। धुन्ध-भरे आसमान में गुलाबी रौशनी ख़त्म हो गयी। नया, नाजु़क दूज का चांद आसमान से झांकने लगा। झुटपुटे की ख़ामोशी में अनगिनत मीनारों से, मुसलमानों को शाम की इबादत के लिए बुलाती हुई मोअज़्ज़िनों की तीखी, उदास, ऊंची आवाज़ेँ तैरती हुई आने लगीं।

    जैसे ही व्यापारी और ऊंटवाले नमाज़ के लिए दोज़ानू हुए, ख़ोजा नसरुद्दीन अपने गधे के साथ एक तरफ़ को खिसक गया।

    इन ताजिरों के पास तो कुछ है जिस के लिए वे खु़दा का शुक्र करें, वह बोला, शाम का खाना ये लोग खा चुके हैं और अभी ब्यालू करेंगे। मेरे वफ़ादार गधे! तू और मैं भी भूखे हैं। शाम का खाना मिला है, रात का मिलेगा। अगर अल्लाह हमारा शुक्रिया चाहता है तो मेरे लिए पुलाव की एक रकाबी और तेरे लिए एक गट्ठर तिपतिया घास भेज दे।

    गधे को उसने सड़क के किनारे एक पेड़ से बांधा और पास ही एक पत्थर का तकिया लगाकर नंगी ज़मीन पर पड़ा रहा। ऊपर शफ़्फ़ाफ़ आसमान में सितारों के चमकते हुए जाल को देखने लगा। तारों के हर झुंड को वह पहचानता था। इन दस सालों में उसने जाने कितनी बार इस तरह खुले आसमान था। इन दस सालों में उसने जाने कितनी बार इस तरह खुले आसमान को ताका था। हमेशा उसे यही लगता कि रातों के ख़ामोश और पाक-साफ़ दुआ' के घंटे उसे सबसे बड़े दौलतमन्दों से भी ज़्यादा दौलतमन्द बना देते थे, क्योंकि दुनिया में हर एक की अपनी-अपनी क़िस्मत होती है। रईस भले ही सोने की थाली में खाना खायें, पर वे अपनी रातें छत के नीचे गुज़ारने को ही मजबूर होते हैं और इस तरह सर्द, नीले, तारों भरे कुहासे में आधी रात के सन्नाटे में इस दुनिया की उड़ान के ख़याल को महसूस करने से महरूम रह जाते हैं।

    इस बीच शहर की उस चहारदीवारी के बाहर, जिस पर तोपें चढ़ी हुई थीं, चायख़ानों और सरायों में, जो घिचपिच बने हुए थे, बड़े-बड़े कड़ाहों के नीचे आग जल रही थी और ज़ब्ह होने के लिए ले जायी जाने वाली भेड़ों ने दर्दनाक आवाज़ में मिमियाना शुरु कर दिया था। तज्रबे से होशियार हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने रात भर के अपने आराम के लिए हवा के रुख़ के खिलाफ़ जगह तलाश की थी ताकि खाने की ललचानेवाली महक रात मैं उसे परेशान करे। बुख़ारा के रिवाजों की पूरी जानकारी होने के कारण उसने अगले दिन शहर के फाटक पर चुंगी अदा करने के लिए अपनी रक़म का आखि़री हिस्सा भी बचा रखा था।

    बहुत देर तक वह करवटें बदलता रहा, पर उसे नींद आयी। नींद आने की वजह भूख नहीं, बल्कि वे कड़वे विचार थे जो उसे सता रहे थे।

    उसे अपने वतन से मुहब्बत थी। धूप से तपे, तांबे के रंग के चेहरे पर छोटी सी काली दाढ़ी और साफ़ आँखों में एक शैतान चमकवाले इस चालाक और ख़ुश-मिज़ाज इंसान को सबसे ज़्यादा मुहब्बत थी अपने वतन से। और फटा, पैवन्द लगा कोट, तेल से भरा कुलाह और टूटे जूते पहने वह बुख़ारा से जितनी ज़्यादा दूरी पर होता, उतनी ही ज़्यादा मुहब्बत अपने वतन के लिए उसके दिल में उमड़ती और उतनी ही ज़्यादा उसकी याद सताती। अपनी जलावतनी में उसे बुख़ारा की उन तंग गलियों की याद आती जो इतनी पतली थीं कि अ'राबा (एक तरह की गाड़ी) दोनों तरफ़ की कच्ची दीवालों को रगड़ कर ही निकल पाता, उन ऊंचे मीनरों की याद आती जिनके रोग़नदार ईटोंवाले नक़्क़शीदार गुम्बदों पर सूरज निकलने और डूबने के वक़्त लाल रौशनी पैर टिकाती थी, उन पुराने और पाक दरख़्तों की याद आती जिनकी शाखों पर सारस के घोंसलों के काले बोझ झूलते रहते थे।

    नहरों के किनारे के चायख़ाने, जिन पर सरसराते हुए चिनारों का साया था, नानबाइयों की बेहद गर्म दुकानों से निकलता हुआ धूंआ और खाने की खु़शबू, बाज़ारों के तरह-तरह के शोर-गु़ल उसे याद आते।

    उसे अपने वतन के झरने और पहाड़ियाँ याद आतीं। खेत, चारगाह, गांव, रेगिस्तान याद आते। बग़दाद या दमिश्क़ में अपने हम-वतन लोगों को वह उनकी पोशाक या कुलाह की बनावट से पहचान लेता। उस वक़्त ख़ोजा नसरुद्दीन का दिल ज़ोर से धड़कने लगता और उसका गला भर आता। जाते वक़्त के मुक़ाबले अपनी वापसी पर उसे अपना मुल्क और भी दुखी लगा। पुराना अमीर बहुत पहले दफ़्न हो चुका था। पिछले आठ साल में नये अमीर ने बुख़ारा को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी।

    ख़ोजा नसरुद्दीन ने टूटे हुए पुल, नहरों के धूप से चटकते सूखे तले, गेहूं और जौ के धूप से जले ऊबड़-खाबड़ खेत देखे। घास और कंटीली झाड़ियों से खेत बर्बाद हो रहे थे। बाग़ बिना पानी मुरझा रहे थे।

    काश्तकारों के पास मवेशी थे, रोटी। सड़कों पर क़तार बांधे फ़क़ीर उन लोगों से भीख मांगा करते थे जो खु़द ही रोटी के ज़रूरतमन्द थे।

    नये अमीर ने हर गांव में सिपाहियों की टुकड़ियां भेज रखी थीं और गाँव वालों को हिदायत दी थी कि इन सिपाहियों के खाने-पीने की ज़िम्मेदारी गांव वालों की होगी। उस ने बहुत सी मस्जिदों की नींव डाली और फिर गांव वालों से उन्हें पूरा करने को कहा। नया अमीर बड़ा मज़हबी था और साल में दो बार लासानी और सबसे ज़्यादा पाक शेख़ बहाउद्दीन के मज़ार की, जो बुख़ारा के नज़दीक ही थी, ज़ियारत करने से चूकता। चार टैक्स, जो पहले से लागू थे, उनमें तीन नये टैक्सों का उसने इज़ाफ़ा कर दिया था। हर पुल पर उसने चुंगी लगा दी थी। तिजारत पर उसने टैक्स बढा दिया था। क़ानूनी टैक्स में भी उसने इज़ाफ़ा कर दिया था और इस तरह बहुत सी नापाक रक़म जमा' कर ली थी। दस्तकारियां ख़त्म हो रही थीं। तिजारत कम होती जा रही थीं।

    ख़ोजा नसरुद्दीन की वापसी के वक़्त उस के वतन में बड़ी उदासी छायी हुई थी।

    सबेरे तड़के मोअज़्ज़िन ने फिर मीनारों से अज़ान दी। फाटक खुले और कारवां धीरे-धीरे दाख़िल हुआ।घंटियां हौले-हौले बज रही थीं।

    फाटक से घुस कर कारवां ठहर गया। सड़क पहरेदारों से घिरी हुई थी। वे बहुत बड़ी ता'दाद में थे। कुछ ठीक से वर्दी पहने थे और क़रीने से थे, कुछ, जिन्हें अमीर <