मुल्ला नसरुद्दीन- पहली दास्तान
यह भी बयान किया गया है कि वह सीधा-सादा इंसान अपने गधे की लगाम पकड़े चल रहा था और गधा पीधे-पीछे आ रहा था।
-(अलिफ़ लैला की शहरज़ाद की 382 वीं रात)
जब ख़ोजा नसरुद्दीन की पैंतीसवीं सालगिरह थी, तो वह सड़कों पर मारा-मारा फिर रहा था। परदेशों में, एक शहर से दूसरे शहर, एक देश से दूसरे देश, समुद्र और रेगिस्तान पार करते हुए, जहां रात हुई वहीं सोते हुए उसने दस साल काट दिये थे। कभी वह चरवाहों के छोटे अलाव के किनारे सो जाता, कभी खचाखच भरी कारवांसराय में- जहां सारी रात धुंधलके में ऊंट सांसें भरा करते और घंटियों की रुनझुन के साथ अपना बदन खुजाया करते। कभी वह धुएं और कालिख से भरे चायख़ानों में पड़ा रहता- भिश्तियों, फ़क़ीरों, ख़च्चरवालों और ग़रीबों के बीच, जो भोर होते ही तंग गलियों और बाज़ारों को अपनी चींख़-पुकार से भर देते।
बहुत सी रातें उसने किसी न किसी ईरानी रईस के हरम में नर्म, रेशमी गद्दों पर बितायी थी, जब घर का मालिक सिपाहियों के साथ इस नापाक आवारे की खोज में सरायों और चायख़ानों की ख़ाक छानता फिरता था ताकि वह उसे पकड़ ले और सूली पर लटकवा दे।
झिंझरीदार झरोखे से आसमान में रौशनी की एक किरन दिखायी देती, सितारे धुंधले हो जाते, सुब्ह होने की ख़बर देने वाली हवा हौले से नम सब्ज़े में सरसराने लगती और खिड़कियों पर जंगली चिड़ियां चहचहाने और चोंच से अपने पर संवारने लगतीं। अलसायी आंखों वाली सुन्दरी का मुंह चूमता हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन कहताः-
वक़्त हो गया। अलविदा’अअ', ऐ मेरी दिलबर, भूल न जाना मुझे।
अभी रुको! अपनी सलोनी बाहें उसकी गर्दन में डाल कर वह कहती, क्या तुम हमेशा के लिए जा रहे हो? सुनो, आज रात को जैसे ही अंधेरा होगा, तुम्हें बुलाने के लिए मैं बुढिया को फिर भेज दूंगी।
नहीं। एक ही मकान में दो रातें गुज़ारना क्या होता है, यह मैं एक अ’र्से से भूल चुका हूँ। मुझे अपनी राह लगने दो। देर हो रही है मुझे।
अपनी राह? किसी और शहर में तुम्हें कोई ज़रूरी काम है क्या? तुम जा कहां रहे हो?
मुझे नहीं मा'लूम। लेकिन उजाला हो चुका है, शहर के फाटक खुल गये हैं और पहले कारवां रवाना हो रहे हैं। ऊंटों की घंटियों की रुनझुन सुन रही हो न? इसे सुनते ही मुझे लगता है कि जिन मेरे पैरों में समा गये हैं और मैं रुक नहीं सकता।
तो, जाओ! अपनी लम्बी पलकों में आंसू छिपाने की नाकाम कोशिश करती हुई वह नाज़नीन-ए-हरम नाराज़गी से कहती। लेकिन सुनो तो! जाने से पहले अपना नाम तो मुझे बता जाओ।
मेरा नाम? तो सुनोः तुमने यह रात ख़ोजा नसरुद्दीन के साथ बितायी है। मैं हूं ख़ोजा नसरुद्दीन। अमन में ख़लल डालनेवाला और फूट और फ़साद फैलानेवाला। मैं वही हूं जिसका सिर काटनेवाले को भारी इनआ'म देने का एलान किया गया है, हर दिन नक़ीबची बाज़ारों और आ'म जगहों पर इसका ढिंढोरा पीटते हैं। कल तो वे लोग मुझे पकड़ने वाले को तीन हज़ार तूमान देने का लालच दे रहे थे। मेरा मन हुआ कि इतनी अच्छी क़ीमत पर मैं खु़द ही अपना सिर दे दूँ। तू हंसती है, मेरी नन्ही बुलबुल? अच्छा, तो ला, आखि़री बार अपने होंठ चूम लेने दे। मेरा दिल तो चाहता है कि तुझे कोई ज़मुर्रद दूं, लेकिन वह मेरे पास है नहीं। ले, मैं यह सफे़द पत्थर का टुकड़ा दे रहा हूं, जिस को देख कर तू मुझे याद किया करे!
वह अपनी फटी ख़िलअ'त पहनता जो अलाव की चिनगारियों से कई जगह जल चुकी थी और चुपचाप बाहर हो जाता। दरवाज़े पर महल के सबसे क़ीमती खज़ाने का रखवाला, काहिल और बेवकू़फ़ ख़्वाजा साफ़ा बांधे और सामने की ओर ऊपर को मुड़ी मुलायम जूतियां पहने ख़र्राटे लेता रहता। आगे ग़ालीचों व दरियों पर नंगी तलवारों का तकिया बनाये पहरेदार लम्बे पड़े होते। ख़ोजा नसरुद्दीन पंजों के बल चुपचाप निकल जाता- हमेशा ब-ख़ैरियत, मानो इस वक़्त वह दूसरों की नज़रों से छू मन्तर हो गया हो!
और पथरीली सड़क फिर एक बार उस के गधे के तेज़ खुरों से गूंजने लगती और धुंआ उड़ाने लगती। नीले आसमान का सूरज दुनिया पर चमकता। ख़ोजा नसरुद्दीन बिना आंखें झपकाये उस की ओर देखता। ओस से नम खेत और ऊपर रेगिस्तान- जहां रेत की आंधियों से सफे़द हुई ऊंटों की हड्डियां पड़ी होती- हरे-भरे बाग़ और उफनती नदियां, नंगी बंजर पहाड़ियां और हंसते-मुस्कुराते चारागाह ख़ोजा नसरुद्दीन के गीतों से गूंज उठते। अपने गधे पर सवार, पीछे मुड़कर एक बार भी देखे बिना, गुज़री बातों के लिए किसी भी कसक के बिना और आगे आनेवाली मुसीबतों के लिए किसी डर के बिना, वह आगे बढ़ता जाता।
पर जो क़स्बा वह अभी-अभी छोड़कर आया है उस की याद हमेशा ताज़ा रहेगी। मुल्ला और उमरा उसका नाम सुनते ही गु़स्से से लाल-पीले होने लगते। भिश्ती, गाड़ीवान, बुनकर, ठठेरे और ज़ीनसाज़ रात को चायख़ानों में इकट्ठे होकर उसकी वीरता की कहानियाँ कह कर अपना मनोरंजन करते और ये कहानियां ख़त्म होने तक हमेशा उस के मुआफ़िक़ बन जातीं। हरम की अलसायी हुई सुन्दरी बार-बार सफे़द पत्थर के टुकड़े को देखती और अपने शौहर के क़दमों की आवाज़ सुनते ही जल्दी से उसे सीप की पिटारी में छिपा लेती।
ज़रबफ़्त की ख़िलअ'त को उतारता हुआ, हांफता-कांपता मोटा अमीर कहता- ओफ़! इस कम्बख़्त आवारा ख़ोजा नसरुद्दीन ने हम सभी को पस्त कर दिया। उसने तो पूरे मुल्क को उभारकर, गड़बड़ फैला रखी है। आज मुझे मेरे पुराने दोस्त, खु़रासान के आ'ला हाकिम का ख़त मिला। तुम समझती हो न! उनके शहरों में यह आवारा पहुंचा ही था कि यकायक सभी लुहारों ने टैक्स देना बन्द कर दिया और सरायवालों ने बिना दाम लिये सिपाहियों को खाना खिलाने से इंकार कर दिया। और, सबसे बड़ी बात तो यह कि यह चोट्टा, इस्लाम को नापाक करनेवाला यह हराम-ज़ादा, हाकिम के हरम में घुसने की गुस्ताख़ी कर बैठा और उनकी सबसे चहेती बीवी को फुसला लिया। सच ही, दुनिया ने ऐसा बद-मआ’श कभी नहीं देखा! अफ़्सोस यही है कि यह दो कौड़ी का भिखमंगा मेरे हरम में घुसने की कोशिश करने नहीं आया, नहीं तो उस का सिर बाज़ार के चौराहे पर सूली पर लटकता दिखायी देता।
नाज़नी, अपने आप मुस्कुराती हुई, मौन रहती।
और, इस बीच ख़ोजा नसरुद्दीन के गानों और उस के गधे के तेज़ खुरों से सड़क गूंजा करती और धुंआ उड़ा करता।
इन दस सालों में वह हर जगह हो आया थाः बग़दाद और इस्ताम्बूल, तेहरान, बख़्शी सराय, तिफ़लिस, दमिश्क़, तबरेज़ और अख़मेज़। इन सभी शहरों से वह वाक़िफ़ था और इनके अ'लावा और भी बहुत से शहरों से। और हर जगह वह अपनी कभी न भुलायी जा सकने वाली याद छोड़ आता। और अब वह अपने वतन, अपने शहर बुख़ारा शरीफ़ लौट रहा था- पाक बुख़ारा, जहां वह नाम बदल कर कुछ दिन अपनी भटक से छुट्टी पाकर आराम करना चाहता था।
।।2 ।।
व्यापारियों के एक काफ़िले के साथ, जिसके पीछे वह लग लिया था, उसने बुख़ारा की सरहद पार की। सफ़र के आठवें दिन, दूर गर्द के धुन्ध में, इस बड़े और मशहूर शहर के ऊंचे मीनार दीखे। प्यास और गर्मी से पस्त ऊंटवालों ने फटे गलों से आवाज़ लगायी और ऊंट और तेज़ी से आगे बढ़ चले। सूरज डूब रहा था। शहर के फाटक बन्द होने से पहले बुख़ारा में दाख़िल होने के लिए जल्दी करने की ज़रूरत थी। ख़ोजा नसरुद्दीन कारवां में सबसे पीछे था- गर्द के मोटे और भारी बादल में लिपटा हुआ। यह उसके अपने वतन की पाक गर्द थी जिसकी खु़श्बू उसे दूर देशों की मिट्टी से ज़्यादा अच्छी लग रही थी। छींकता, खांसता, वह बराबर अपने गधे से कहता जाता- ले! अच्छा ले! हम लोग आ ही पहुंचे। आख़िर अपने वतन आ ही गये। इंशा अल्लाह, कामयाबी और मसर्रत यहां हमारा इंतिज़ार कर रही हैं।
कारवां शहर की चहारदीवारी तक पहुंचा तो पहरेदार फाटक बन्द कर रहे थे।
खु़दा के वास्ते हमारा इंतिज़ार करो! कारवां का सरदार दूर से सोने का सिक्का दिखाता हुआ चिल्लाया।
लेकिन तब तक फाटक बन्द हो गये। झनझनाहट के साथ साकलें लग गयीं। ऊपर बुर्जियों पर लगी तोपों के पास पहरेदार तअ'ईनात हो गये। ताज़ा हवा चल निकली। धुन्ध-भरे आसमान में गुलाबी रौशनी ख़त्म हो गयी। नया, नाजु़क दूज का चांद आसमान से झांकने लगा। झुटपुटे की ख़ामोशी में अनगिनत मीनारों से, मुसलमानों को शाम की इबादत के लिए बुलाती हुई मोअज़्ज़िनों की तीखी, उदास, ऊंची आवाज़ेँ तैरती हुई आने लगीं।
जैसे ही व्यापारी और ऊंटवाले नमाज़ के लिए दोज़ानू हुए, ख़ोजा नसरुद्दीन अपने गधे के साथ एक तरफ़ को खिसक गया।
इन ताजिरों के पास तो कुछ है जिस के लिए वे खु़दा का शुक्र करें, वह बोला, शाम का खाना ये लोग खा चुके हैं और अभी ब्यालू करेंगे। ऐ मेरे वफ़ादार गधे! तू और मैं भी भूखे हैं। न शाम का खाना मिला है, न रात का मिलेगा। अगर अल्लाह हमारा शुक्रिया चाहता है तो मेरे लिए पुलाव की एक रकाबी और तेरे लिए एक गट्ठर तिपतिया घास भेज दे।
गधे को उसने सड़क के किनारे एक पेड़ से बांधा और पास ही एक पत्थर का तकिया लगाकर नंगी ज़मीन पर पड़ा रहा। ऊपर शफ़्फ़ाफ़ आसमान में सितारों के चमकते हुए जाल को देखने लगा। तारों के हर झुंड को वह पहचानता था। इन दस सालों में उसने न जाने कितनी बार इस तरह खुले आसमान था। इन दस सालों में उसने न जाने कितनी बार इस तरह खुले आसमान को ताका था। हमेशा उसे यही लगता कि रातों के ख़ामोश और पाक-साफ़ दुआ' के घंटे उसे सबसे बड़े दौलतमन्दों से भी ज़्यादा दौलतमन्द बना देते थे, क्योंकि दुनिया में हर एक की अपनी-अपनी क़िस्मत होती है। रईस भले ही सोने की थाली में खाना खायें, पर वे अपनी रातें छत के नीचे गुज़ारने को ही मजबूर होते हैं और इस तरह सर्द, नीले, तारों भरे कुहासे में आधी रात के सन्नाटे में इस दुनिया की उड़ान के ख़याल को महसूस करने से महरूम रह जाते हैं।
इस बीच शहर की उस चहारदीवारी के बाहर, जिस पर तोपें चढ़ी हुई थीं, चायख़ानों और सरायों में, जो घिचपिच बने हुए थे, बड़े-बड़े कड़ाहों के नीचे आग जल रही थी और ज़ब्ह होने के लिए ले जायी जाने वाली भेड़ों ने दर्दनाक आवाज़ में मिमियाना शुरु कर दिया था। तज्रबे से होशियार हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने रात भर के अपने आराम के लिए हवा के रुख़ के खिलाफ़ जगह तलाश की थी ताकि खाने की ललचानेवाली महक रात मैं उसे परेशान न करे। बुख़ारा के रिवाजों की पूरी जानकारी होने के कारण उसने अगले दिन शहर के फाटक पर चुंगी अदा करने के लिए अपनी रक़म का आखि़री हिस्सा भी बचा रखा था।
बहुत देर तक वह करवटें बदलता रहा, पर उसे नींद न आयी। नींद न आने की वजह भूख नहीं, बल्कि वे कड़वे विचार थे जो उसे सता रहे थे।
उसे अपने वतन से मुहब्बत थी। धूप से तपे, तांबे के रंग के चेहरे पर छोटी सी काली दाढ़ी और साफ़ आँखों में एक शैतान चमकवाले इस चालाक और ख़ुश-मिज़ाज इंसान को सबसे ज़्यादा मुहब्बत थी अपने वतन से। और फटा, पैवन्द लगा कोट, तेल से भरा कुलाह और टूटे जूते पहने वह बुख़ारा से जितनी ज़्यादा दूरी पर होता, उतनी ही ज़्यादा मुहब्बत अपने वतन के लिए उसके दिल में उमड़ती और उतनी ही ज़्यादा उसकी याद सताती। अपनी जलावतनी में उसे बुख़ारा की उन तंग गलियों की याद आती जो इतनी पतली थीं कि अ'राबा (एक तरह की गाड़ी) दोनों तरफ़ की कच्ची दीवालों को रगड़ कर ही निकल पाता, उन ऊंचे मीनरों की याद आती जिनके रोग़नदार ईटोंवाले नक़्क़शीदार गुम्बदों पर सूरज निकलने और डूबने के वक़्त लाल रौशनी पैर टिकाती थी, उन पुराने और पाक दरख़्तों की याद आती जिनकी शाखों पर सारस के घोंसलों के काले बोझ झूलते रहते थे।
नहरों के किनारे के चायख़ाने, जिन पर सरसराते हुए चिनारों का साया था, नानबाइयों की बेहद गर्म दुकानों से निकलता हुआ धूंआ और खाने की खु़शबू, बाज़ारों के तरह-तरह के शोर-गु़ल उसे याद आते।
उसे अपने वतन के झरने और पहाड़ियाँ याद आतीं। खेत, चारगाह, गांव, रेगिस्तान याद आते। बग़दाद या दमिश्क़ में अपने हम-वतन लोगों को वह उनकी पोशाक या कुलाह की बनावट से पहचान लेता। उस वक़्त ख़ोजा नसरुद्दीन का दिल ज़ोर से धड़कने लगता और उसका गला भर आता। जाते वक़्त के मुक़ाबले अपनी वापसी पर उसे अपना मुल्क और भी दुखी लगा। पुराना अमीर बहुत पहले दफ़्न हो चुका था। पिछले आठ साल में नये अमीर ने बुख़ारा को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने टूटे हुए पुल, नहरों के धूप से चटकते सूखे तले, गेहूं और जौ के धूप से जले ऊबड़-खाबड़ खेत देखे। घास और कंटीली झाड़ियों से खेत बर्बाद हो रहे थे। बाग़ बिना पानी मुरझा रहे थे।
काश्तकारों के पास न मवेशी थे, न रोटी। सड़कों पर क़तार बांधे फ़क़ीर उन लोगों से भीख मांगा करते थे जो खु़द ही रोटी के ज़रूरतमन्द थे।
नये अमीर ने हर गांव में सिपाहियों की टुकड़ियां भेज रखी थीं और गाँव वालों को हिदायत दी थी कि इन सिपाहियों के खाने-पीने की ज़िम्मेदारी गांव वालों की होगी। उस ने बहुत सी मस्जिदों की नींव डाली और फिर गांव वालों से उन्हें पूरा करने को कहा। नया अमीर बड़ा मज़हबी था और साल में दो बार लासानी और सबसे ज़्यादा पाक शेख़ बहाउद्दीन के मज़ार की, जो बुख़ारा के नज़दीक ही थी, ज़ियारत करने से न चूकता। चार टैक्स, जो पहले से लागू थे, उनमें तीन नये टैक्सों का उसने इज़ाफ़ा कर दिया था। हर पुल पर उसने चुंगी लगा दी थी। तिजारत पर उसने टैक्स बढा दिया था। क़ानूनी टैक्स में भी उसने इज़ाफ़ा कर दिया था और इस तरह बहुत सी नापाक रक़म जमा' कर ली थी। दस्तकारियां ख़त्म हो रही थीं। तिजारत कम होती जा रही थीं।
ख़ोजा नसरुद्दीन की वापसी के वक़्त उस के वतन में बड़ी उदासी छायी हुई थी।
सबेरे तड़के मोअज़्ज़िन ने फिर मीनारों से अज़ान दी। फाटक खुले और कारवां धीरे-धीरे दाख़िल हुआ।घंटियां हौले-हौले बज रही थीं।
फाटक से घुस कर कारवां ठहर गया। सड़क पहरेदारों से घिरी हुई थी। वे बहुत बड़ी ता'दाद में थे। कुछ ठीक से वर्दी पहने थे और क़रीने से थे, कुछ, जिन्हें अमीर की नौकरी में माल काटने का पूरा मौक़ा अभी नहीं मिला था, अधनंगे और नंगे पांव थे। वे चींख़-चिल्ला रहे थे और उस लूट के लिए झगड़ व एक-दूसरे को ठेल रहे थे, जो उन्हें अभी मिलनेवाली थी। आख़िर, एक चायख़ाने से एक मोटा-ताज़ा और नींद से भरा टैक्स-अफ़सर निकला।
उसकी रेशमी ख़िलअ'त की आस्तीनों में तेल लगा था। उसके नंगे पांव जूतियों में पड़े थे। उसके मोटे थलथल चेहरे पर अ'य्याशी और बदकारी के निशान साफ़ झलक रहे थे। व्यापारियों की ओर उसने ललचायी नज़रों से देखा और कहाः ताजिरो खु़शामदीद! अल्लाह करे तुम्हें अपने काम में कामयाबी हासिल हो! तुम्हें मा'लूम हो कि अमीर का हुक्म है कि जो तिजारी अपने माल का छोटे-से-छोटे हिस्सा भी छिपाने की कोशिश करेगा उसे बेंत लगाकर मार जाला जायगा।
परेशान और चौकन्ने व्यापारी चुपचाप अपनी रंगी हुई दाढ़ियां सहलाते रहे। बेताबी से चहलक़दमी करते हुए पहरेदारों की ओर टैक्स-अफ़सर मुड़ा और अपनी मोटी उंगलियाँ नचायीं। इशारा पाते ही वे सिपाही चींखते-चिल्लाते हुए ऊंटों पर टूट पड़े। उतावली में एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते, उन्होंने तलवारों से बालों के बने रस्से काट डाले और मख़मल के थान, काली मिर्च, चाय, काफू़र, गुलाब के क़ीमती इत्र की शीशियां और तिब्बती दवाओं के डिब्बे बिखर गये।
खौफ़ और परेशानी से व्यापारियों की जु़बान पर मानो ताला पड़ गया।
दो मिनट में जांच पूरी हो गयी। सिपाही अफ़सर के पीछे क़तार बांधकर खड़े हो गये। उनके कोटों की जेबें लूट के माल से फटी जा रही थीं। अब शहर में आने और सामान लाने की टैक्स वसूली शुरु हुई।ख़ोजा नसरुद्दीन के पास तिजारत के लिए कोई सामान था नहीं। उसे शहर में घुसने का ही टैक्स अदा करना था।
अफ़सर ने पूछा, तुम कहां से आए हो और तुम्हारे आने का मक़्सद क्या है?
मुहर्रिर ने सींग में भरी स्याही में नेज़े की क़लम डुबोयी और मोटे रजिस्टर पर ख़ोजा नसरुद्दीन का बयान दर्ज करने को तैयार हो गया।
हुज़ूर आ'ला! मैं ईरान से आ रहा हूँ और यहां बुख़ारा में मेरे कुछ रिश्तेदार रहते हैं।
अच्छा, अफ़सर ने कहा, तो तुम अपने रिश्तेदारों से मिलने आये हो? इस हालत में तुम्हें मिलनेवालों का टैक्स अदा करना होगा।
पर मैं उनसे मिलूंगा नहीं। मैं तो एक ज़रूरी काम से आया हूँ। ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब दिया।
काम से आये हो? अफ़सर चिल्लाया और उसकी आँखें चमकने लगीं। तो तुम रिश्तेदारों से मिल ने भी आये हो और काम के लिए भी आये हो। तुम मिलनेवालों का टैक्स अदा करो, काम पर लगनेवाला टैक्स दो और खु़दा की अज़्मत में बनी मस्जिदों की आराइश के लिए अ'तिया अदा करो, जिसने रास्ते में डाकुओं से तुम्हारी हिफ़ाज़त की।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने सोचा,- मैं तो चाहता था कि वह खु़दा मेरी इस वक़्त हिफ़ाज़त करता- डाकुओं से बचने का इंतिज़ाम तो मैं खु़द ही कर लेता। पर वह ख़ामोश ही रहा, क्योंकि उसने हिसाब लगा लिया था कि इस बातचीत के हर लफ़्ज़ की क़ीमत उसे दस तंके देकर अदा करनी पड़ी रही है। उसने अपना पटका खोला और पहरेदारों की ललचायी, घूरनेवाली आंखों के सामने शहर में दाख़िल होने का टैक्स, मेहमान टैक्स तिजारत टैक्स और मस्जिदों की अराइश के लिए अ'तिया अदा किया। अफ़सर ने सिपाहियों की ओर घूरा तो वे पीछे को हट गये। मुहर्रिर रजिस्टर में नाक गड़ाये नेज़े की क़लम घसीटता रहा।
टैक्स अदा करने के बाद ख़ोजा नसरुद्दीन रवाना होनेवाला ही था कि टैक्स-अफ़सर ने देखा कि उसके पटके में अब भी कुछ सिक्के बाक़ी हैं।
ठहरो! वह चिल्लाया। तुम्हारे उस गधे का टैक्स कौन अदा करेगा? अगर तुम अपने रिश्तेदारों से मिलने आये हो, तो तुम्हारा गधा भी अपने रिश्तेदारों से मिलेगा ही।
अपना पटका एक बार फिर खोलते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने बहुत नर्मी से जावब दियाः मेरे दानिशमन्द आक़ा! आप बजा फ़रमाते हैं। वाक़ई, मेरे गधे के रिश्तेदारों की ता'दाद बुख़ारा में बहुत बड़ी है, नहीं तो, जिस ढंग से यहां काम चल रहा है, आपके अमीर बहुत पहले ही तख़्त से धकेल दिये गये होते और मेरे बहुत क़ाबिल हुज़ूर आप, अपने लालच के लिए, न जाने कब सूली पर चढ़ा दिये गये होते।
इसके पहले कि अफ़सर अपने होश दुरुस्त कर पाये, ख़ोजा नसरुद्दीन कूद कर अपने गधे पर सवार हुआ, उसे सरपट भगाया और सबसे नज़दीक की गली में ग़ायब हो गया।
वह बराबर कहता जा रहा थाः और तेज़ ! और जल्दी, मेरे वफ़ादार गधे! जल्दी भाग नहीं तो तेरे मालिक को एक टैक्स और अपना सिर देकर अदा करना पड़ेगा।
ख़ोजा नसरुद्दीन का गधा बहुत होशियार था। हर बात समझता था। उसके लम्बे कानों में शहर के फाटक से आयी आवाज़ें और पहरेदारों की चिल्लाहट पड़ चुकी थी और वह सड़क की परवाह किये बिना सरपट भागा जा रहा था- इतनी तेज़ रफ़्तार से भाग रहा था वह कि उसके मालिक को अपने पैर ऊंचे उठाने पड़ रहे थे, उसके हाथ गधे की गर्दन से लिपटे हुए थे और वह ज़ीन से चिपका हुआ था। भारी आवाज़ में भोंकते कुत्ते उसके पीछे दौड़ रहे थे, मुर्गी़यों के चूज़े डर से हर ओर तितर-बितर होकर भाग रहे थे और सड़क पर चलनेवाले लोग दीवारों से चिपटे, अपने सिर हिलाते हुए उसे देख रहे थे।
शहर के फाटकों पर पहरेदार इस हिम्मतवार आज़ाद ख़याल इंसान की तलाश में भीड़ छान रहे थे।
व्यापारी मुस्कुरा कर एक-दूसरे से फुसफुसा रहे थेः यह जवाब तो खु़द ख़ोजा नसरुद्दीन के क़ाबिल था।
दोपहर होते-होते पूरा शहर इस ख़बर को सुन चुका था। बाज़ार में व्यापारी अपने गाहकों को चुपचाप यह क़िस्सा सुनाते और वे इसे दूसरों को सुनाते। हर एक हंसता और कहताः
ये अल्फ़ाज़ तो ख़ोजा नसरुद्दीन के ही क़ाबिल है।
।। 3 ।।
बुख़ारा में उसे न रिश्तेदार मिले, न पुराने दोस्त। उसे अपने वालिद का मकान भी नहीं मिला, जहां वह पैदा हुआ था और बड़ा हुआ था। न वह हरा-भरा सायेदार बाग़ीचा ही उसे मिला जहां सर्दी के मौसम में पीली-पीली पत्तियां हवा में सरसराती हुई झूलतीं और पके फल ज़मीन पर भद से गिरते, जहां चिड़ियां उंची आवाज़ में गातीं और खु़शबूदार घास पर सूरज की किरनें नाचा करतीं, जहां मक्खियां मुरझाते हुए फूलों से आख़िरी रस चूसती हुई भनभनाया करती और सिंचाई के तालाब में झरना भेद भरे ढंग से बच्चों को कभी न ख़त्म होने वाली अनबूझ कहानियां सुनाया करता था।... उस जगह अब ऊसर मैदान था, जिस पर बीच-बीच में मलबे और खड़ंजे की ढेर लगे थे, टूटती हुई दीवारें खड़ी थीं, चटाइयों के टुकड़े सड़ रहे थे, और कांटेदार झाड़ियां उग आयी थीं। वहां ख़ोजा नसरुद्दीन को न एक चिड़िया दिखायी दी, न मक्खी। सिर्फ़ पत्थरों के ढरे के नीचे से, जहां उसका पैर पड़ गया था, एकाएक एक लम्बी तेल की-सी धार उबल पड़ी और धूप में हलकी चमक के साथ पत्थरों के दूसरे ढेर में छिप गयी- यह एक सांप था, हमेशा से इंसान की छोड़ी हुई वीरान जगहों का अकेला और ख़ौफ़नाक बाशिन्दा!
ख़ोजा नसरुद्दीन बहुत देर तक नीची निगाह किये ख़ामोश खड़ा रहा। उसका दिल ग़म से भर उठा था। पूरे जिस्म को कंपा देनेवाली खांसी की आवाज़ सुनकर वह चौंक उठा और पीछे मुड़ कर देखा। ग़रीबी और परेशानियों से दोहरा एक बूढ़ा उस बंजर ज़मीन को लांघता हुआ आ रहा था। ख़ोजा नसरुद्दीन ने उसे रोका।
अस्सलामालेकुम बुजु़र्गवार! अल्लाह आपको सेहत और तरक़्क़ी बख़्शे। क्या आप मुझे बतायेंगे कि इस ज़मीन पर किस का मकान था?
यहां ज़ीनसाज़ शेर मुहम्मद का घर था, बूढ़े ने जवाब दिया, मैं उनसे एक ज़माने से खू़ब वाक़िफ़ था। शेर मुहम्मद मशहूर ख़ोजा नसरुद्दीन के वालिद थे और ख़ोजा के बारे में, ऐ मुसाफ़िर, तुमने ज़रूर बहुत कुछ सुना होगा।
हां, मैं ने कुछ सुना तो है। लेकिन आप बतायें कि मशहूर ख़ोजा नसरुद्दीन के वालिद ज़ीनसाज़ शेर मुहम्मद और उनके घरवाले गये कहां?
इतने ज़ोर से न बोलो, मेरे बेटे! बुख़ारा में हज़ारों जासूस हैं। अगर वे हम लोगों की बातचीत सुन लेंगे तो हमारे लिए परेशानी ही परेशानी रह जायेगी। तुम ज़रूर कहीं बहुत से दूर से आ रहे हो, तभी नहीं जानते कि हमारे शहर में ख़ोजा नसरुद्दीन का नाम लेने की सख़्त मुमानअ'त है। उनका नाम लेना ही जेल में भर दिये जाने के लिए काफ़ी है। आओ, मेरे और नज़दीक आ जाओ। मैं तुम्हें बताऊं कि शेर मुहम्मद का क्या हुआ?
घबराहट और खलबली को छिपाते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन बूढ़े के नज़दीक आ गया।
बूढ़े ने खांसते हुए कहना शुरु कियाः यह वाक़िआ' पुराने अमीर के ज़माने का है। ख़ोजा नसरुद्दीन के बुख़ारा से निकाले जाने के लिए कोई अट्ठारह महीने बाद बाज़ारों में अफ़वाह फैली कि वह खुफ़िया तौर पर, गै़र क़ानूनी ढंग से, फिर लौट आया है और अमीर का मज़ाक़ उड़ानेवाले गीत लिख रहा है। अफ़वाह अमीर के महल तक पहुंची। सिपाहियों ने ख़ोजा नसरुद्दीन की बहुत तलाश की, लेकिन नाकामयाब रहे। अब अमीन ने उसके वालिद, उसके दो भाई, चाचा व दूर के रिश्तेदारों व दोस्तों को पकड़ लेने का हुक्म जारी किया। उन लोगों को तब तक तकलीफ़ें दी जानेवाली थीं, जब तक वे ख़ोजा नसरुद्दीन का पता न बता दें।
अल्लहमदुल्लिलाह (अल्लाह का शुक्र है) कि उसने उन लोगों को ख़ामोश रहने की हिम्मत व ज़ब्त दी कि ख़ोजा नसरुद्दीन अमीर के हाथों नहीं पड़ा। पर उसका वालिद ज़ीनसाज़ शेर मुहम्मद तकलीफ़ों से बीमार पड़ गया और फ़ौरन बाद मर गया। उसके रिश्तेदार और दोस्त अमीर के गु़स्से से बचने के लिए बुख़ारा छोड़ कर भाग गये। किसी को मा'लूम नहीं कि वे अब कहां है। अमीर ने उनके मकानों-बाग़ीचों को तहस-नहस और बर्बाद करने का हुक्म जारी कर दिया ताकि ख़ोजा नसरुद्दीन की याद भी बाक़ी न रह जाए।
पर उन्हें तकलीफ़ें क्यों दी गयीं? ख़ोजा नसरुद्दीन ने ज़ोर से पूछा। आंसू उसके गालों पर बह रहे थे लेकिन बूढ़े ने उन्हें नहीं देखा। उसकी निगाह कमज़ोर थी। उन्हें सताया क्यों गया? ख़ोजा नसरुद्दीन उस वक़्त बुख़ारा में तो था नहीं। मैं यह बात बखू़बी जानता हूँ।
यह कौन कह सकता है? बुढ़े ने जवाब दिया। ख़ोजा नसरुद्दीन जहां जब उसकी मर्ज़ी होती है, आता जाता है। हमारा लासानी ख़ोजा नसरुद्दीन हर जगह है और कहीं भी नहीं है!
यह कह कर बूढ़ा खांसता कांखता हुआ आगे बढ़ गया। अपना मुंह हाथों में छिपाये, ख़ोजा नसरुद्दीन अपने गधे की तरफ़ बढ़ा।
गधे की गर्दन में बाहें डालकर और अपना भीगा हुआ गाल उसकी गर्म, गंधाती गर्दन से लगाते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः ऐ मेरे अच्छे, मेरे सच्चे दोस्त! तू देख रहा है कि मेरे प्यारे लोगों में यहां तेरे सिवा और कोई नहीं बचा। तू ही मेरी आवारागर्दी में मेरा वफ़ादार और बराबर का साथी है।
गधा मानो अपने मालिक का ग़म समझ रहा हो। वह बिल्कुल चुपचाप खड़ा रहा। झाड़ी की पत्तियां तक खाना उसने छोड़ दिया। वे उसके मुंह से लटकती रह गईं।
घंटे भर में ख़ोजा नसरुद्दीन अपने ग़म पर क़ाबू पा चुका था और उसके आंसू उसके चेहरे पर सूख चुके थे।
कोई बात नहीं! गधे की पीठ पर धौल जमाते हुए वह चिल्लाया, कोई फ़िक्र नहीं! बुख़ारा में लोग मुझे अब भी याद रखे हैं। लोग मुझे अब भी जानते और याद करते हैं। किसी न किसी तरह हम लोग कुछ दोस्त ढूंढ ही निकालेंगे! और, अमीर के बारे में हम ऐसा गीत बनायेंगे- ऐसा, कि वह गु़स्से से अपने तख़्त पर ही फट जायगा और उसकी गन्दी आंतें महल की सजी-सज़ायी दीवारों पर जा पड़ेंगी। चल, मेरे वफ़ादार गधे!आगे बढ़!
।। 4 ।।
तीसरे पहर का सन्नाटा। बड़ी उमस थी। धूल भरी सड़क। पत्थरों, कच्ची दीवारों और बाड़ों से अलसायी-सी गर्मी उठ रही थी। इसके पहले कि वह पोंछ सके, ख़ोजा नसरुद्दीन के चेहरे पर पसीना सूख जाता था।
बड़े प्यार से उसने बुख़ारा की जानी-पहचानी सड़कों, चायख़ानों और मीनारों को पहचाना। दस साल में बुख़ारा में कुछ भी नहीं बदला था। हमेशा की तरह कुछ मरगिल्ले कुत्ते अब भी तालाब के किनारे पड़े सो रहे थे। रंगे हुए नाखू़नों वाले हाथों से बुर्क़ा उठाये एक औ'रत बड़े सजीले ढंग से झुकी गहरे रंग के पानी में एक पतली-सी, बजती हुई, सुराही डुबो रही थी।
सवाल था कि खाना कहां और कैसे मिले।ख़ोजा नसरुद्दीन ने कल से तीसरी बार अपना पटका और कसके बांधा।
कोई न कोई तरकीब तो करनी ही होगी, मेरे वफ़ादार गधे! उसने कहा। यहां रुक कर हम कोई तरकीब सोंचे।
खु़शक़िस्मती से यहीं एक चायख़ाना भी है।
लगाम ढीली करते हुए उसने गधे को खूंटे के आसपास पड़े तिपतिया घास के टुकड़े चरने के लिए छोड़ दिया।
अपनी ख़िलअ'त का दामन सिकोड़ कर वह सिंचाईवाली नहर के किनारे बैठ गया। वहां गंदला पानी मोड़ पर उफन रहा था और बुलबुले छोड़ रहा था।
ख़यालों में डूबा ख़ोजा नसरुद्दीन सोचा रहा थाः क्यों, कैसे और कहां से बह रहा है यह पानी? पानी को खु़द न इसकी ख़बर है, न इस बारे में वह कुछ सोचता ही है। मैं, खु़द भी, न यह जानता हूं कि मैं कहां जा रहा हूं, न मुझे घर या आराम ही मयस्सर है। मैं बुख़ारा क्यों आया? कल मैं कहां हूंगा? मुझे खाना ख़रीदने के लिए आधे तंके का सिक्का भी कहां से मिलेगा? क्या मैं भूखा ही रह जाऊंगा? यह कम्बख़्त टैक्स वसूलने वालाअफ़सर! उसने मेरी सारी रक़म साफ़ कर दी! मुझ से डाकुओं की बात करना कितनी बड़ी गुस्ताख़ी थी।
उसी वक़्त उसे वह आदमी दिखायी दिया जो उसकी बदक़िस्मती का बाइ'स था। टैक्स-अफ़सर घोड़े पर चढ़ा चायख़ाने की ओर आ रहा था। दो सिपाही उसके अ’रबी घोड़े की लगाम पकड़े-पकड़े आगे चल रहे थे। घोड़ा कत्थई भूरे रंग का ख़ूबसूरत जानवर था। उसकी गहरे रंग की आंखों में बहुत अच्छी चमक थी। गर्दन उसकी सुराहीदार थी और जब वह अपनी ख़ूबसूरत पतली टांगें बड़े अंदाज़ से आगे बढ़ाकर रखता तो साफ़ ज़ाहिर होता कि वह अपने मालिक की थलथल मोटी लाश को ढोने से ज़ाहिर है।
सिपाहियों ने बड़े अदब से अपने सरदार को उतरने में मदद दी। वह उतरा और चायख़ाने में चला गया। चायख़ाने के घबराये हुए मालिक फ़रमाबरदारी में उसे रेशमी गद्दों की ओर ले गया जहां वह बैठ गया। फिर मालिक ने बेहतरीन चाय का एक ख़ास प्याला तैयार किया और चीनी कारीगरी के एक नाज़ुक गिलास में अपने मेहमानों को चाय दी।
देखो तो! मेरी कमाई पर यह कितनी शानदार ख़ातिर पा रहा है। ख़ोजा नसरुद्दीन सोच रहा था।
अफ़सर ने डटकर चाय पी और वहीं गद्दों पर लुढ़ककर सो गया। उसके ख़र्राटों, होंठ चटख़ारने और गलल-गलल की आवाज़ों के शोर से पूरा चायख़ाना भर गया। उसकी नींद में ख़लल न पड़े इस डर से चायख़ाने के दूसरे मेहमानों ने फुसफुसाकर बातें करना शुरु किया। पहरेदार उसके दोनों तरफ़ बैठ गये और पत्तियों की चौरियों से मक्खियां उड़ाने लगे। जब उन्हें अक़्ल-मंद हो गया कि उनका सरदार गहरी नींद में सो गया है तो उन्होंने आंखो से इशारा किया, उठकर घोड़े की लगाम खोली, उसके सामने घास का एक गट्ठर डाला और एक नारियली हुक़्क़ा लेकर चायख़ाने के अंधेरे हिस्से की तरफ़ बढ़ गये। थोड़ी देर बाद ख़ोजा नसरुद्दीन को गांजे की मीठी-मीठी महक मिली।
पहरेदार नशे में मदहोश थे।
शहर के फाटक पर सबेरे की घटनाओं को याद कर और इस डर से कि कहीं पहरेदार उसे पहचान न लें, ख़ोजा नसरुद्दीन ने तय किया कि अब रफ़ूचक्कर होने का वक़्त आ गया है। तो भी, वह आधा तंका कहा मिलेगा? ऐ कातिब-ए-तक़दीर! तू ख़ोजा नसरुद्दीन की मदद के लिए न जाने कितनी बार आया है। अब फिर उस पर करम की नज़र कर!
तभी किसी ने उसे पुकारा- अरे सुन! हां हां तू, जो वहां बैठा है!
ख़ोजा नसरुद्दीन पलटा और उसे सड़क पर एक बहुत सज़ावटदार ढकी हुई गाड़ी नज़र आयी। एक बड़ा साफ़ा बांधे और क़ीमती ख़िलअ’त पहने एक आदमी गाड़ी के पर्दों से बाहर झांक रहा था। इससे पहले कि वह अजनबी एक लफ़्ज़ भी और बोले, ख़ोजा नसरुद्दीन समझ गया कि उसकी दुआ सुन ली गयी है और हमेशा की तरह क़िस्मत ने, उसे मुसीबत में देख कर, उस पर करम की नज़र की है।
उस रईस अजनबी ने ख़ूबसूरत अ’रबी घोड़े को देखते हुए और उसकी तरीफ़ करते हुए, अकड़कर कहाः मुझे यह घोड़ा पसन्द है। बोल, क्या यह घोड़ा बिकाऊ है?
बात बनाते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहाः दुनिया में कोई ऐसा घोड़ा है ही नहीं जो बेचा न जा सके।
शायद तुम्हारी जेब बिल्कुल ख़ाली है। अजनबी बोला। मेरी बात कान देकर सुनो। मैं नहीं जानता कि यह घोड़ा किसका है, कहां से आया है और इसका पहलेवाला मालिक कहां है। मैं तुम से पूछ भी नहीं रहा। तुम्हारे कपड़ों पर पड़ी गर्द से लगता है कि तुम कहीं बहुत दूर से बुख़ारा आये हो। मेरे लिए यह बहुत काफ़ी है। तुम समझ रहे हो न?
ख़ोजा नसरुद्दीन ने सिर हिलाकर हामी भरी। वह फ़ौरन भांप गया कि रईस क्या कहना चाहता है, और वह इससे भी आगे की बात समझ गया। अब वह सिर्फ़ यह मान रहा था कि कोई बेवक़ूफ़ मक्खी टैक्स-अफ़सर की गर्दन या नाक पर कूद कर कहीं उसे जगा न दे। पहरेदारों की उसे ज़्यादा फ़िक्र न थी, क्योंकि चायख़ाने के अंधेरे हिस्से से आनेवाले गहरे धुएं से ज़ाहिर था कि वे नशे में धुत है।
अजनबी अमीर बड़े बुज़ुर्गाना और गम्भीर लहजे में बोलाः तुम्हें यह समझना चाहिए कि इस फटी ख़िलअ’त को पहनकर ऐसे घोड़े पर चढ़ना तुम्हें ज़ेब नहीं देता। तुम्हारे लिए यह ख़तरनाक भी साबित हो सकता है, क्योंकि हर कोई सोचेगाः इस भिखमंगे को इतना बढ़िया घोड़ा मिला कहाँ से? इसकी भी गुंजायश है कि तुम क़ैद में डाल दिये जाओ।
ख़ोजा नसरुद्दीन बहुत आजिज़ी से बोलाः ठीक फ़रमाते हैं आप, मेरे आक़ा। सचमुच यह घोड़ा मेरे जैसों के लिए ज़रुरत से ज़्यादा बढ़िया है। इस फटी ख़िलअ’त में मैं ज़िन्दगी भर गधे पर ही चढ़ता रहा हूँ और मैं ऐसे घोड़े पर सवारी करने की सोचने की हिम्मत भी नहीं कर सकता।
जवाब सुनकर अजनबी ख़ुश हुआ।
यह ठीक है कि तुम ग़रीब हो, लेकिन घमंड ने तुम्हें अंधा नहीं बना दिया। नाचीज़ ग़रीब को ख़ाकसारियत ही ज़ेब देती है, क्योंकि ख़ूबसूरत फूल बादाम के शानदार दरख़्त पर ही अच्छे लगते हैं, मैदान की कंटीली झाड़ी पर नहीं।
अब तुम मुझे जवाब दोः क्या तुम्हें यह थैली चाहिए? इसमें चांदी के पूरे तीन सौ तंके मौजूद है।
चाहिए? भौजक्का होकर- क्योंकि एक बेवक़ूफ़ मक्खी उसी वक़्त टैक्स-अफ़सर की नाक में घुस गयी थी, जिससे कि वह छींक रहा था और कुनमुना रहा था- ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्लाया, चाहिए? मैं समझता हूँ ज़रुर चाहिए! चांद के तीन सौ तंके लेने से कौन इनकार करेगा? अरे, यह तो ऐसे ही हुआ जैसे किसी को थैली सड़क पर पड़ी मिल जाये!
बड़े जानकार ढंग से मुस्कुराते हुए वह अजनबी बोलाः लगता है कि तुम्हें सड़क पर बिल्कुल दूसरी चीज़ मिली है।
लेकिन मैं यह रक़म उस चीज़ से बदलने को तैयार हूं जो तुम्हें सड़क पर मिली है। यह रहे तुम्हारे तीन सौ तंके।
उसने वह भारी थैली ख़ोजा नसरुद्दीन को सौंप दी और अपने नौकर को इशारा किया जो चाबुक से अपनी पीठ खुजलाता हुआ वहां खड़ा बातचीत सुन रहा था। काठ जैसे उसके चेचक रु चेहरे की मुस्कान और उसकी आंखों के काइयांपन को देखकर ख़ोजा नसरुद्दीन समझ गया कि यह नौकर जो घोड़े की तरफ़ जा रहा है उतना ही बड़ा मक्कार है जितना बड़ा उसका मालिक।
एक ही सड़क पर तीन-तीन मक्कारों का एक साथ होना ठीक नहीं। उसने तय किया। इनमें से कम से कम एक तो ज़रुर ही फ़ालतू है। वक़्त आ गया है कि मैं यहां से नौ दो ग्यारह हो जाऊं।
उस अजनबी रईस की नेकनीयती और दरियादिली की तरीफ़ करता हुआ नसरुद्दीन जल्दी से गधे पर सवार हो गया और उसे इतने ज़ोर से ऐड़ लगायी कि तबीअ’त से काहिल होने पर भी गधा एकदम दुलकी भाग चला।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने पीछे मुड़कर देखा तो नौकर अ'रबी घोड़े को गाड़ी से बांध रहा था। वह फिर मुड़ा तो देखा कि अजनबी रईस और टैक्स-अफ़सर एक-दूसरे से गुथे हुए दाढ़ियां नोच रहे हैं और सिपाही उन्हें अलग करने की बेकार कोशिश कर रहे हैं।
अक़्ल-मंद लोग दूसरों के झगड़ों में दिलचस्पी नहीं लेते। ख़ोजा नसरुद्दीन गली-कूचो में चक्कर काटता हुआ काफ़ी दूर बढ़ गया- यहाँ तक कि उसे यक़ीन हो गया कि अब वह पीछा करनेवालों से बच गया है। उसने अपने गधे की लगाम खींची।
ठहरो, ठहरो, उसने कहना शुरु किया, अब कोई जल्दी नहीं है...। यकायक बिल्कुल पास ही उसे घोड़े की तेज़ और चौंका देनेवाली टापें सुनायी दीं।ओह, आगे बढ़, मेरे वफ़ादार गधे! मुझे यहां से जल्दी निकाल ले चल! वह चिल्लाया।
लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। पीछे से एक घुड़सवार छलांग भरता हुआ सड़क पर आ गया था।
यह वही चेचक रू नौकर था। वह गाड़ी से खो लकर लाये घोड़े पर सवार था। अपने पैर झुलाता हुआ वह तेज़ी से ख़ोजा नसरुद्दीन की बग़ल से गुज़र गया और घोड़े की सड़क पर आड़ा खड़ा कर के यकायक रुक गया।
ख़ोजा नसरुद्दीन बहुत आजिज़ी से बोला- ओ भलेमानस! मुझे आगे बढ़ने दे। ऐसी तंग सड़कों पर लोगों को सीधे- सीधे सवारी करनी चाहिए, आड़े-आड़े नहीं।
बदनीयती से भरी हंसी के साथ नौकर ने जवाब दियाः आहा! क़ैदखाने से बचने का अब कोई रास्ता तुम्हारे लिए नहीं है। मा’लूम है तुम्हें? घोड़े के मालिक उस अफ़सर ने मेरे मालिक की आधी दाढ़ी नोच डाली है और मेरे मालिक ने उसकी नाक से ख़ून निकाल दिया है! कल तुम अमीर की अदालत में पेश हो गे। सच है, दोस्त! तुम्हारी तक़दीर बहुत ख़राब है!
ख़ोजा नसरुद्दीन ने तअ’ज्जुब से पूछा, तुम कह क्या रहे हो? ऐसे इज़्ज़त-दार लोगों के इस तरह झगड़ पड़ने की वजह क्या है? और तुमने मुझे रोका क्यों है? उनके झगड़े का फ़ैसला मैं तो कर नहीं सकता! उन्हें इसका फ़ैसला अपने-आप करने दो, जैसे भी वे कर पायें।
ख़ामोश! नौकर चिल्लाया। वापस लौट। तुझे उस घोड़े के लिए जवाब देना होगा।
कौन सा घोडा?
तेरी यह पूछने की मजाल! अरे, वही घोड़ा जिसके लिए तुझे मेरे मालिक से चांदी की थैली मिली थी।
ख़ुदा गवाह है! तुम ग़लती कर रहे हो। ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब दिया। इस मुआ’मले का घोड़े से कोई वास्ता नहीं।
तुम ख़ुद फ़ैसला करो। तुमने तो पूरी बातचीत सुनी थी। तुम्हारे दरियादिल मालिक ने, एक ग़रीब इंसान की मदद करने के इरादे से, मुझसे पूछा कि क्या मैं चांदी के तीन सौ तंके लेना पसन्द करूंगा और मैंने जवाब दियाः हां, वाक़ई, मैं यह रक़म लेना पसंद करूंगा। तब उसने मुझे तीन सौ तंके दे दिये! अल्लाह उसे लम्बी ज़िन्दगी दे। पर मुझे रूपया देने से पहले उसने यह देखने के लिए कि मैं इस इनआ’म का हक़दार भी हूं या नहीं, जांचना चाहा कि मुझ नाचीज़ में आजिज़ी और इंकिसारी है या नहीं। उसने कहा, 'मैं नहीं जानना चाहता कि यह घोड़ा किस का है और कहां से आया है।'
देखा तुमने ! वह यह जानना चाहता था कि कहीं मैं झूठे घमंड में अपने को घोड़े का मालिक तो नहीं बता बैठता।
मैं ख़ामोश रहा। वह फ़य्याज़, मुक़द्दस इंसान ख़ुश हुआ। उसने कहा कि मेरे जैसों के लिए यह घोड़ा ज़रुरत से ज़्यादा अच्छा है। मैं उसकी बात मान गया। इस से वह और भी ख़ुश हुआ। तब उस ने कहा कि मैं सड़क पर ऐसी चीज़ पा गया हूं जिसके बदले में चांदी के सिक्के मिल सकते हैं। उसका इशारा मुस्तक़िल मिजाज़ी व जोश के साथ इस्लाम में मेरे यक़ीन की तरफ़ था। यह यक़ीन मुझे पाक जगहों के सफ़र में हासिल हुआ। इस सबके बाद उसने मुझे इनआ’म दिया। इस नेक काम के ज़रिए वह क़ुरआन शरीफ़ में बताये गये बहिश्त जाने के रास्ते में पड़ने वाले उस पुल पर से अपना सफ़र ज़्यादा आसान बनाना चाहता था, जो बाल से भी ज़्यादा बारीक है और तलवार की धार से भी ज़्यादा तेज़ है। इबादत के वक़्त मैं अल्लाह से तुम्हारे मालिक के इस भले काम की हवाला दूंगा ताकि उसके लिए वह पुल पर बाड़ लगवा दे।
चाबुक से अपनी पीठ खुजलाता हुआ नौकर लम्बी तक़रीर सुनता रहा। तक़रीर ख़त्म होने पर ख़ोजा नसरुद्दीन को परेशान कर डालनेवाली काइयां हंसी के साथ वह बोलाः
ऐ मुसाफ़िर! तुम ठीक कहते हो। मेरे मालिक से हुई तुम्हारी बातचीत का मतलब इतना नेक है, यह पहले मेरी समझ में क्यों न आया? लेकिन, चूंकि उस दूसरी दुनिया के रास्ते का पुल पार करने में तुमने मेरे मालिक को मदद करना तय किया है, तो ज़्यादा हिफ़ाजत इसी में होगी कि पुल पर दोनों तरफ़ बाड़ें लग जायें। मैं भी, ब-ख़ुशी, अल्लाह से दुआ मांगूंगा ताकि वह मेरे मालिक के लिए दूसरी तरफ़ भी बाड़ लगा दे।
तुम मांगो दुआ! ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्लाया। तुम्हें रोकता कौन है? बल्कि ऐसा करना तो तुम्हारा फ़र्ज़ है। क्या क़ुरआन में हिदायत नहीं है कि ग़ुलामों और नौकरों को अपने मालिकों के लिए रोज़ दुआ मांगनी चाहिए और इसके लिए कोई इनआ’म अलग से नहीं मांगना चाहिए?
घोड़े को एड़ लगाकर ख़ोजा नसरुद्दीन को दीवाल की तरफ़ दबाते हुए नौकर सख़्ती से बोलाः अपना गधा वापस लौटा! चल, जल्दी कर, मेरा ज़्यादा वक़्त ख़राब न कर।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने उसे बीच में ही टोक कर जल्दी से कहाः ठहरो, मुझे बात तो ख़त्म कर लेने दो मेरे भाई। मैं तीन सौ तंको के हिसाब से उतने ही अल्फ़ाज़ की एक दुआ करनेवाला था। पर आब मैं, सोचता हूं कि ढाई सौ अल्फ़ाज़ की दुआ ही काफ़ी होगी। मेरी तरफ़ की बाड़ कुछ छोटी और पतली हो जायगी। जहां तक तुम्हारा तअ’ल्लुक़ है, तुम पचास अल्फ़ाज़ की दुआ मांगना और सब कुछ जानने वाला अल्लाह उतनी ही लकड़ी से तुम्हारी तरफ़ भी बाड़ लगा देगा।
क्यों? मेरी तरफ़ की बाड़, नौकर बोला, तुम्हारी बाड़ का पांचवा हिस्सा ही क्यों हो?
वह सबसे ज़्यादा ख़तरनाक मक़ाम पर जो बनेगी! नसरुद्दीन ने जल्दी से कहा।नौकर अकड़ कर बोलाः नहीं, मैं ऐसी छोटी बाड़ों के लाएक़ नहीं हूं। इसका मतलब तो यह हुआ कि पुल का कुछ हिस्सा बिना बाड़ का रह जायेगा। मेरे मालिक के लिए इससे जो ख़तरा पैदा होगा, मैं तो उसे सोचकर ही कांप जाता हूं। मेरी राय में तो हम दोनों ही डेढ़ डेढ़ सौ अल्फ़ाज़ की दुआ मांगे ताकि पुल के दोनों तरफ़ बाड़ एक ही लम्बाई की हो। पतली ज़रुर होगी, पर कम से कम दोनों तरफ़ हिफ़ाजत तो रहेगी। और अगर तुम राज़ी नहीं होते, तो इसका मतलब यह हुआ कि तुम मेरे मालिक का बुरा चाहते हो और यह चाहते हो कि वह पुल से गिर जाए।
तब मैं मदद मांगूंगा और तुम क़ैदखाने का सबसे नज़दीक का रास्ता इख़्तियार करोगे।
ग़ुस्से से ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः पतली बाड़? तुम जो कुछ कह रहे हो उससे लगता है कि पतली टहनियों की बाड़ लगा देना ही तुम्हारे लिए काफ़ी होगा। क्या तुम समझ नहीं रहे कि बाड़ एक तरफ़ मोटी और मज़बूत होनी चाहिए, ताकि अगर तुम्हारे मालिक के पैर डग़मगाये तो उनके पकड़ने के लिए कुछ तो रहे। उसे लग रहा था कि रुपयों की थैली पटके से खिसक रही है।
ख़ुशी से चिल्लाता हुआ नौकर बोलाः सचमुच तुमने हक की बात कही है। बाड़ को मेरी तरफ़ मज़बूत होने दो और मैं दो सौ अल्फ़ाज़ की दुआ मांगने में आना-कानी नहीं करूंगा।
तुम शायद तीन सौ अल्फ़ाज़ की दुआ मांगना चाहोगे? ज़हरीली आवाज़ में ख़ोजा नसरुद्दीन बोला।
वे दोनो अलग हुए तो ख़ोजा नसरुद्दीन की थैली का आधा वज़न कम हो चुका था। उन लोगो ने तय किया था कि मालिक के लिए बहिश्त के रास्ते वाले पुल के दोनों तरफ़ बराबर-बराबर मज़बूती और मोटाई की बाड़ लगायी जाए।
अलविदा’अ मुसाफ़िर! नौकर ने कहा। हम दोनों ने आज बड़े सवाब का काम किया है।
अलविदा’अ, ऐ मेहरबान, वफ़ादार और भले नौकर! अपने मालिक की रूह के लिए तुम्हें कितनी फ़िक्र है! मैं यह और कह दूं कि तुम बहुत जल्दी ख़ुद ख़ोजा नसरुद्दीन की टक्कर के हो जाओगे।
नौकर के कान खड़े हुए। उसने पूछाः उसका ज़िक्र तुमने क्यों किया?
कुछ नहीं, यूं ही। बस मुझे ऐसा लगा, ख़ोजा नसरुद्दीन बोला। वह सोच रहा था- आहा! यह शख़्स बिल्कुल सीधा सादा नहीं है।
नौकर ने पूछाः शायद तुम्हारा उस से कोई दूर का रिश्ता है! शायद तुम उसके ख़ानदान के किसी शख़्स से वाक़िफ़ हो!
नहीं, मैं उस से कभी नहीं मिला और मैं उसके किसी रिश्तेदार को भी नहीं जानता।
नौकर अपनी ज़ीन से झुक कर बोलाः सुनो, मैं तुम्हें एक राज़ की बात बताऊं। मैं उस का रिश्तेदार हूं। अस्ल में उसका चचेरा भाई हूं। हम दोनों का बचपन में साथ रहा था।
ख़ोजा नसरुद्दीन का शक पक्का हो गया और वह बिल्कुल ख़ामोश रहा। नौकर उस की ओर और ज़्यादा झुक आयाः उसके वालिद, दो भाई और क चचा मर चुके हैं। ऐ मुसाफ़िर, तुमने यह तो शायद सुना ही होगा?
लेकिन ख़ोजा नसरुद्दीन तब भी ख़ामोश रहा।
फ़रेबी नौकर बोलाः अमीर भी कितना बे-रहम है!
पर ख़ोजा नसरुद्दीन फिर भी चुप रहा।
बुख़ारा के सब वज़ीर बेवक़ूफ़ है! यकायक नौकर कहने लगा। लालच और बेसब्री से वह उतावला था, क्योंकि ला-मज़हब और आज़ाद-ख़याल लोगों की गिरफ़्तारी के लिए सरकारी खज़ाने से बड़े-बड़े इनआ’म मिलते थे। लेकिन ख़ोजा नसरुद्दीन मुंह बन्द रखने की ज़िद पकड़े हुए था।
नौकर फिर बोला-और हमारे ज़ीशान अमीर भी उल्लू हैं! यह भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि अल्लाह का वजूद है ही!
हालांकि एक करारा जवाब ख़ोजा नसरुद्दीन की ज़बान पर आया, पर उसने मुंह नहीं खोला। कड़वी नाउमीदी से नौकर ने एक गाली दी, घोड़े के चाबुक लगायी और दो छलांग में गली का मोड़ पार करके ग़ायब हो गया। सब तरफ़ ख़ामोशी छा गयी। घोड़े की टापों से उड़ी गर्द बन्द हवा में सुनहले कोहरे की तरह छायी रही। सूरज की तिरछी, गर्म किरनें उसे भेद कर चमकती रहीं।
अच्छा, तो मुझे एक रिश्तेदार मिल गया! ख़ोजा नसरुद्दीन ने सोचा और मुस्कुरा उठा। उस बूढ़े ने मुझ से झूठ नहीं कहा था। बुख़ारा में जासूस मक्खी-मच्छरों की तरह भरे पड़े हैं। यहाँ चालाकी बरतना ही मुनासिब होगा।
पुरानी कहावत हैः क़ुसूर-वार ज़बान सिर के साथ क़लम की जाती है।'
इसी तरह सोचता, काफ़ी देर तक वह अपने गधे पर सवार, सड़कें पार करता रहा। कभी वह अपनी थैली की ज़्यादातर रक़म निकल जाने पर अफ़्सोस करता। कभी टैक्स वसूल करनेवाले अफ़सर और अजनबी रईस के बीच की लड़ाई की याद करके हंस उठता।
।। 5 ।।
शहर के दूसरे सिरे पर पहुंच कर ख़ोजा नसरुद्दीन रुक गया। अपने गधे को एक चायख़ाने के मालिक के सुपुर्द किया और फ़ौरन एक नानबाई की दूकान में घुस गया।
वहां बड़ी भीड़ थी। धुआं था। खाना पकने की महक भरी थी। चूल्हे गर्म थे और कमर तक नंगे बावर्चियों की पसीने से तर पीठों पर चूल्हों की लपटों की चमक पड़ रही थी। वे चीख़ते-चिल्लाते, शोर-शराबा करते, एक-दूसरे को धक्के देते, अपना काम कर रहे थे। आम शोर-ग़ुल, गोलमाल और भम्भड़ को बढ़ाते हुए आंखें फाड़े वे उन छोटे लड़कों के कान उमेठ रहे थे जो मेहमानों को खाना दे रहे थे। बड़े-बड़े देगचों और पतीलों के लकड़ी के ढक्कनं के नीचे खाना उबल रहा था। छत के पास भाप जमा’ हो रही थी, जहां मक्खियां भनभना रही थीं। धुएं से फैलेअंधेरे में मक्खन के जलने और कड़कड़ाने की आवाज़ सुनायी पड़ रही थी। गर्मी से सुर्ख़ अंगीठियों के किनारे दमक रहे थे। सीख़चों पर भुनते गोश्त से अंगारों पर टपकती चर्बी नीली धुंएदार लपटों में जल रही थी। यहां पुलाव पक रहा था, सीख़ कबाब भुन रहे थे, बैलों का गोश्त उबल रहा था, प्याज़, कालीमिर्च और भेड़ की दुम की चर्बी व गोश्त भरे समोसे तले जा रहे थे। इन समोसों से चर्बी निकलकर तवों पर बुलबुले बना रही थी।
बड़ी मुश्किल से नसरुद्दीन ने अपने लिए जगह तलाश की। दब-पिसकर जिस जगह वह बैठा, वह इतनी तंग थी कि जिन लोगों की पीठ को धक्का देकर वह बैठा था वे ज़ोर से ग़ुर्रा उठे। पर किसी ने बुरा नहीं माना, किसी ने उससे कुछ कहा नहीं। न वह ख़ुद ही बुड़बुड़ाया। बाज़ारों में नानबाइयों की दूकानों की भारी भीड़-भाड़। झगड़े का शोर-ग़ुल।हंसी-मजाक़। धक्कम-धक्का और चीख़-पुकार। सैकड़ों लोगों का, जो दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद खाने छांटने की फ़ुर्सत भी नहीं पाते थे और जिनके मज़बूत जबड़े कड़ा और मुलायम हर तरह का गोश्त, हर चीज़, चबा जाते थे और जिनके मज़बूत मेदे हर चीज़ हज़्म कर लेते थे- बशर्ते कि ये चीजें सस्ती और ख़ूब हों। उनका ज़ोर से नाक साफ़ करना, खाना चबाना और ज़बान चटख़ारना- यह सब ख़ोजा नसरुद्दीन को हमेशा से पसन्द था।
ख़ोजा नसरुद्दीन एक बार में ही ढेर-सा खाना खा सकता था। एक बार में उसने तीन प्याले क़ीमा, तीन रकाबी चावल और दो दर्जन समोसे डकार लिये। समोसे ख़त्म करने में कुछ कोशिश ज़रुर करनी पड़ी, पर अपने इस उसूल के मुताबिक़ कि जिसकी क़ीमत अदा कर दी जाय, वह खाना थाली में नहीं छोड़ना चाहिए, उसने उन समोसों को भी ख़त्म कर ही डाला।
खाना ख़त्म कर वह दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा और जब कुहनियों से धक्कम-धक्का करने के बाद, आख़िर खुली हवा में पहुंचा, तो वह पसीने से नहा रहा था। हाथ-पैरों में कमज़ोरी भर रही थी, जैसे वे हल्के पड़ गये हों और उनमें ताक़त न रही हो- मानो किसी तगड़े आदमी ने हमाम में उसका बदन रगड़ा हो। खाने और गर्मी की वजह से तबीअ’त में भारीपन लिये पैर घसीटता हुआ वह उस चायख़ाने तक पहुंचा जहां अपना गधा छोड़ आया। उसने चाय मंगायी और गद्दों पर आराम से पसर गया। उसकी पलकें झुकने लगी और ख़ुशगवार ख़याल उसके दिमाग़ में धीमे-धीमे तैरने लगे।
मेरे पास इस वक़्त अच्छी-ख़ासी रक़म है। किसी करख़ाने में ज़ीन साज़ी या बर्तन बनाने के काम में इसे लगा देना अच्छा रहेगा। मैं इन दोनों कामों को जानता हूं। घुमक्कड़ी छोड़ने का वक़्त अब आ गया है। क्या मैं और लोगों से बदतर हूं? क्या मैं उनसे ज़्यादा बेवक़ूफ़ हूं? क्या मैं भी एक ख़ूबसूरत और मेहरबान बीवी नहीं हासिल कर सकता? क्या मेरे भी एक बेटा नहीं हो सकता जिसे मैं अपनी गोद में खिला सकूं? पैग़म्बर की क़सम, वह नन्हा, शोर मचाने वाला बच्चा, बड़ा होकर मशहूर शैतान निकलेगा, और मैं अपनी सारी दानिशमन्दी व तजरबे से हासिल अक़्ल-मन्दी उसमें उडेल दूंगा। हां, मेरा इरादा पक्का हो गया है। अब मैं बेचैन आवारगर्दी की ज़िन्दगी छोडूंगा। काम शुरू करने के लिए मुझे ज़ीनसाज़ या कुम्हार की दूकान ख़रीद लेना चाहिए…
उसने हिसाब लगाना शुरू कियाः अच्छी दूकान की क़ीमत कम से कम तीन सौ तंके होगी और इस वक़्त मेरे पास है कुल डेढ़ सौ तंके। चेचक रु नौकर को उसने कोसना शुरु कर दियाः अल्लाह इस डाकू को अंधा कर दे।
वह मुझ से वही रक़म छीन ले गया है जिस की किसी काम को शुरू करने के लिए मुझे ज़रुरत थी।
एक बार फिर क़िस्मत ने साथ दिया। बीस तंके! किसी ने यकायक आवाज़ लगायी। फिर तांबे की थाली में पांसा गिरने की आवाज़ सुनायी दी।
बरसाती के किनारे, जानवर बांधने के खूटों के बिल्कुल पास, कुछ लोग घेरा बनाये बैठे थे। चायख़ाने का मालिक उनके पीछे खड़ा था। गर्दन उठाये वह उनके सिरों के ऊपर से झांक रहा था।
जुआ! कोहनी के सहारे उठते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने भांप लिया। उनके जुआ खेलने की बात उतनी ही सच है जितनी यह कि मेरा नाम ख़ोजा नसरुद्दीन है। मैं भी क्यों ने देखूं, भले ही दूर से देखूं। जुआ तो नहीं खेलूंगा मैं। ऐसा बेवक़ूफ़ नहीं। पर कोई अक़्लमंद आदमी बेवक़ूफ़ोँ को देखे क्यों नहीं?
वह उठकर जुआरियों के पास चला गया।
बेवक़ूफ़ लोग, चायख़ाने के मालिक के कान में वह फुसफुसाया, मुनाफ़े के लालच में अपना आख़िरी सिक्का भी गवां देते हैं। क्या पैग़म्बर ने रुपये के लिए जुआ खेलने को मना नहीं किया है? अल्लाह का शुक्र है कि यह ख़तरनाक आदत मुझ में नहीं है! पर उस लाल बालोंवाले जुआरी की तक़दीर तो देखो! लगातार चौथी बार जीता है!
देखों, देखो! अरे, वह तो पांचवीं बार भी जीत गया! ओ बेदिमाग़ बेवक़ूफ़! उसे तो दौलत का झूठा सपना जुए की ओर खींच रहा है, हालांकि ग़रीबी ने उसके रास्ते में गढ़ा खोद रखा है। क्या? फिर छठी बार जीत गया? नहीं देखी, ऐसी क़िस्मत मैं ने कभी नहीं देखी। देखो, देखो, वह फिर दांव लगा रहा है। वाक़ई, इन्सान की बेवक़ूफ़ी की इन्तिहा नहीं।
ऐसा तो नामुमकिन है कि लगातार जीतता ही जाय! झूठी क़िस्मत में यक़ीन करनेवाले लोग ऐसे ही बर्बाद होते है! इस लाल बालों वाले आदमी को बर्बाद सिखाना चाहिए। अगर वह सातवीं बार फिर जीता तो मैं उस से दांव बदूंगा- गर्चे दिल से मैं जुए के ख़िलाफ़ ही हूं। काश मैं अमीर होता, तो जुआ न जाने कब का बन्द करना चुका होता।
लाल बालोंवाले ने फिर पांसा फेंका और सातवीं बार फिर जीता।
अब ख़ोजा नसरुद्दीन पक्के इरादे से आगे बढ़ा। कन्धों से खिलाड़ियों को अलग हटाते हुए वह घेरे में जा बैठा।
ख़ुशक़िस्मत जीतनेवाले से पांसे लेकर, उन्हें तजुर्बेकार आंखो से, उलट पलटकर देखते हुए बोलाः मैं तुम्हारे साथ खेलना चाहता हूँ।
लाल बालोंवाले ने भर्राये गले से पूछाः कितनी रक़म? उसका सारा बदन कांप गया। जल्ही ही ख़त्म होने वाली ख़ुशकिस्मती में ज़्यादा से ज़्यादा जीत लेने के लिए वह उतावला हो रहा था।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने अपना बटुआ निकाला। ज़रुरत के लिए पच्चीस तंके उसमें वापस रख दिये और बाक़ी निकाल लिये। तांबे के थाल में चाँदी के सिक्के खनखनाकर गिरे और चमकने लगे। जुआरियों ने ऊंचा दांव लगाने वाले इस इन्सान का खुसफुसाहट के साथ इस्तिक़बाल किया। ऊंचे दांवों का खेल शुरु हो गया था।
लाल बालों वाले ने पांसे उठा लिये और बड़ी देर तक उन्हें खनखनाता रहा, मानों फेंकने में झिझक रहा हो। हर कोई सांस रोके देख रहा था- यहां तक कि गधे ने भी मुंह उठा लिया था और कान खड़े कर लिये थे। अब सिर्फ़ जुआरी की मुट्ठी से पांसों के खनखनाने की आवाज़ आ रही थी। उस रूखी खनखनाहट से ख़ोजा नसरुद्दीन के पेट और बदन में चाहत भरी कमज़ोरी आ गयी। आख़िर लाल बालोंवाले ने पांसे फेंके। दूसरे खिलाड़ी गर्दन बढ़ा कर देखने लगे और एक साथ ठीक से पीछे की ओर लुढ़क कर बैठ गये। एक साथ ही उन्होंने लम्बी सांसे लीं- मानो ये सब सांसें एक ही सीने से निकली हों। जुआरी पीला प़ड़ गया। उसके भिंचे हुए दांतों से कराह निकल गयी। पांसे पर तीन दिखायी दिये। वह ज़रुर हार रहा था, क्योंकि एक उतना ही कम निकलता है जितना कि छः और कोई भी दूसरा पांसा ख़ोजा नसरुद्दीन के मुआफ़िक़ होगा।
मुट्ठी में पांसे हिलाते हुए उसने तक़दीर का शुक्रिया अदा किया कि आज वह उस पर मेहरबान थी। पर वह भूल गया था कि तक़दीर ढुलमुल और सनकी होती है और उन लोगों को बड़ी आसानी से दग़ा दे जाती है जो उस पर भरोसा करते हैं। अपने पर इतना भरोसा करने के लिए, अब उसने ख़ोजा नसरुद्दीन को बर्बाद सिखाने की सोची। इसके लिए उसने चुना उसके गधे, या कहो गधे की दुम को, जिसके आख़िर में कांटे और कटाव थे। गधा जुआरियों की ओर पलटा और जो उसने दुम घुमायी तो जाकर सीधे उसके मालिक के हाथ से टकरायी। पांसे हाथ से फिसल गये। लाल बालोंवाला जुआरी ख़ुशी से भर्रायी चीख़ के साथ फ़ौरन थाल पर लेट गया और दांव पर लगी रक़म अपने बदन से ढंक ली।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने दो काने फेंके थे।
देर तक होंठ चबाता हुआ वह चुपचाप बैठा रहा। फटी-फटी आंखों के सामने दुनिया तैरती और ढहती-सी नज़र आ रही थी। कानों में एक अ’जब सनसनाहट हो रही थी।
एकाएक वह उछला, एक डंडा उठा लिया और खूंटे के पास खदेड़ते हुए गधे को पीटने में जुट पड़ा।
कम-बख़्त! गधे! हरामज़ादे! बदबूदार जानवर! सभी ज़िंदा जानवरों के लिए ला’नत! ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्ला रहा था।
क्या यही काफ़ी नहीं था कि अपने मालिक के पैसे से जुआ खेले ? क्या यह पैसा हारना भी ज़रूरी था? तेरी बद-मआ’श खाल खींच ली जाय! तेरे रास्ते में अल्लाह गड्ढा कर दे, ताकि तू गिरे और तेरे पैर टूट जायें! तू मरेगा कब कि मुझे तेरा बदनुमा चेहरा देखने से छुट्टी मिले!
गधा रेंका। जुआरी हंसी से खिलखिला उठे ओर चिल्लाने लगे। सबसे ज़्यादा ज़ोर से चिल्लाया लाल बालों वाला वह जुआरी, जिसे अपनी ख़ुशकिस्मती पर पक्का यक़ीन हो आया था।
थके और हांफते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने जब डंडा फेंक दिया तो लाल बालोंवाला बोलाःआओ, फिर खेल लो। दो-चार दांव और लग जायें। तुम्हारे पास अभी पच्चीस तंके तो हैं ही।
यह कह कर उसने अपना बायां पैर फैला दिया और ख़ोजा नसरुद्दीन के लिए हिक़ारत दिखाते हुए उसे थोड़ा हिलाया।
हां, क्यों नहीं! ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब दिया। वह सोच रहा था- जब सवा सौ तंके चले गये तो अब बाक़ी पच्चीस का क्या होगा, यह सोचना ही फ़ुज़ूल है।
लापरवाही से उसने पांसे फेंके। वह जीत गया।
लाल बालोंवाला को यक़ीन नहीं आ रहा था कि क़िस्मत पलट गयी है।
पूरी रक़म। उसने फिर कहा।
सात बार लगातार उसने यही कहा और हर बार वह हारा।
थाल रुपयों से भर चुका था। जुआरी ख़ामोश बैठे थे। सिर्फ़ उनकी आंखो की चमक से उस आग का पता लग रहा था, जो उनके भीतर सुलग रही थी और उन्हें जलाये डाल रही थी।
लाल बालोंवाला चिल्लायाः अगर शैतान ही तुम्हारी मदद कर रहा है तो दूसरी बात है, वर्ना तुम हर बार नहीं जीत सकते। कभी तुम हारोगे ही। यहाँ थाल पर तुम्हारे सोलह सौ तंके है। लगाओगे एक बार फिर पूरी रक़म? कल मैं अपनी दूकान के लिए इस रक़म से माल ख़रीदने वाला था। लो तुम्हारी रक़म के मुक़ाबले मैं इसे भी दांव पर लगाता हूँ!
सोने के सिक्कों- तिल्ले, रुपयों और तूमानों- से भरी एक छोटी सी थैली उसने निकाली।
उतावली भरी आवाज़ में ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्लाया- अपना सोना इस थाल में उंडेल!
इस चायख़ाने में ऐसे भारी दांव कभी नहीं देखे गये थे। मालिक उबलती हुई केतलियों को भूल गया। जुआरियों की सांसे लम्बी चलने लगीं। लाल बालोंवाले ने पांसे फेंके और आंखें बन्द कर ली। पांसे देखने में उसे डर लग रहा था।
ग्यारह!- सब एक साथ चिल्ला उठे। ख़ोजा नसरुद्दीन अपने को क़रीब-क़रीब हारा हुआ समझने लगा। अब सिर्फ़ दो छक्के, यानी बारह काने, ही उसे बचा सकते थे।
अपनी ख़ुशी को छिपाये बिना लाल बालोंवाला जुआरी भी दोहराने लगाः ग्यारह! ग्यारह काने! देखो भई, मेरे ग्यारह हैं! हार गये तुम! हार गये! हार गये!
ख़ोजा नसरुद्दीन का सारा बदन जैसे ठंडा पड़ गया हो। उसने पांसे उठाये और उन्हें फेंकने की तैयारी करने लगा।
फिर यकायक उसने अपना हाथ रोक लिया।
इधर पलट! वह अपने गधे से बोला। तू तीन काने पर हार गया था। ले, अब ग्यारह काने पर जीतने की कोशिश कर, नहीं तो मैं तुझे फ़ौरन क़साई के यहां ले चलूंगा।
बायें हाथ से गधे की दुम पकड़ कर पांसे लिए हुए ही उसने दाहिने हाथ से गधे को ठोंका।
लोगों की ज़ोर की आवाज़ोँ से चायख़ाना हिल गया। मालिक कलेजा थामकर बैठ गया। यह तनाव उसकी बर्दाश्त के बाहर था।
... ये लो.... एक... दो...
पांसों पर दो छक्के थे।
लाल बालोंवाले जुआरी की आंखें मानो बाहर निकल पड़ीं। उसके सूखे सफ़ेद चेहरे पर कांच-सी जड़ी रह गयी। धीरे से वह उठा और रोता, डग-मगाता हुआ, चला गयाःहाय री क़िस्मत! हाय कम-बख़्ती!
कहते है कि उस दिन के बाद लाल बालोंवाला फिर कभी शहर में नहीं दिखायी दिया। भाग कर वह रेगिस्तान चला गया और वहां बाल बढ़ाये हुए और देखने में बदनुमा वह रेत और कंटीली झाड़ियों के बीच लगातार चिल्लाता रहता- हाय कम-बख़्ती! हाय री क़िस्मत! आख़िर सियारों ने उसका काम तमाम कर दिया। किसी ने उसके लिए अफ़्सोस नहीं किया, क्योंकि वह बहुत बेरहम था और इंसाफ़ की बात तक नहीं करता था। सीधे-सादे और आसानी से यक़ीन कर लेनेवाले लोगों को उसने बहुत नुक़सान पहुंचाया था।
रही ख़ोजा नसरुद्दीन की बात, तो उसने जीती हुई दौलत को ज़ीन से लगे थैलों में भरा, गधे को गले लगाया, उसका मुंह चूमा और उसी वक़्त पकाये बढ़िया मालपुए उसे खिलाये। उस होशियार जानवर को भी अचम्भा था। अभी चन्द मिनट पहले ही उसके साथ बिल्कुल दूसरा सुलूक हुआ था।
।। 6 ।।
दानिशमन्दी से भरे इस उसूल को याद कर कि, उन लोगों से दूर रहना चाहिए जो यह जानते हैं कि तुम्हारा रुपया कहां रखा है, ख़ोजा नसरुद्दीन उस चायख़ाने पर नहीं रुका और फ़ौरन बाज़ार की ओर बढ़ गया। बीच-बीच में मुड़कर वह देखता जाता था कि कोई उसका पीछा तो नहीं कर रहा, क्योंकि जुआरियों और चायख़ाने के मालिक के चेहरों पर उसे भलेमनसाहत नहीं दिखायी दी थी।
उसका सफ़र बहुत ख़ुशगवार था। अब वह एक नहीं तीन-तीन कारख़ाने ख़रीद सकता था। यही करना उसने तय भी किया।
मैं चार दूकानें ख़रीदूंगा। एक कुम्हार की, एक ज़ीनसाज़ की, एक दर्ज़ी की और एक मोची की। हर दुकान में मैं दो-दो कारीगर रखूंगा। मेरा काम सिर्फ़ रुपया वसूल करना होगा। दो साल में मैं रईस बन जाऊंगा। फिर तो ऐसा मकान ख़रीदूंगा, जिसके बाग़ में फ़व्वारे हों। हर जगह सोने के पिंजरे लगाऊंगा, जिनमें गानेवाली चिड़ियां रहेंगी और दो... शायद तीन भी... बीवियां रखूंगा और हर बीवी से मेरे तीन बेटे होंगे।
ऐसे ही ख़ुशनुमा ख़यालों की नदी में डूबता-उतरता वह गधे पर बैठा चला जा रहा था कि गधे ने लगाम ढीली पायी और मालिक के ख़यालों में खोये रहने का फ़ायदा उठाया। वह एक छोटे पुल के पास पहुंचा ही था कि दूसरे गधों की तरह सीधे पुल पर चलने के बजाय, वह एक तरफ़ को थोड़ मुड़ा और दौड़ कर खाई के पार छलांग लगायी।
... और जब मेरे बेटे बड़े हो जायंगे, तो मैं उन्हें एक साथ बुलाकर उनसे कहूंगा... ख़ोजा नसरुद्दीन के ख़याल ऐसे ही दौड़ रहे थे कि यकायक सोचना लगा- मैं हवा में क्यों उड़ रहा हूँ? क्या अल्लाह ने मुझे फ़रिश्ता बनाकर मेरे पर लगा दिये हैं?
अगले मिनट ही उसे इतने तारे दिखायी दिये कि वह समझ गया कि उसके एक भी पर नहीं है। ग़ुलैल के ढेले की तरह, ज़ीन से कोई दस हाथ आगे, वह सड़क पर जा गिरा।
धूल से भरा, कराहता हुआ जब वह उठा तो गधा दोस्ताना ढंग से कान खड़े किये उसके पास आ खड़ा हुआ। चेहरे पर उस के मासूमियत थी। लगता था मानो वह मालिक को फिर से ज़ीन पर बैठने की दावत दे रहा हो।
ग़ुस्से से कांपती आवाज़ में ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्लाया, अरे तू! तुझे मेरे ही नहीं, मेरे बापदादों के गुनाहों की भी सज़ा के एवज़ में भेजा गया है! इस्लामी इंसाफ़ के मुताबिक़ किसी भी इंसान को उसके सिर्फ़ अपने गुनाहों के लिए इतनी सख़्त सज़ा नहीं मिल सकती! अबे झींगुर और लकड़बग्घे की औलाद! अरे...
लेकिन एक अधटूटी दीवाल के साये में थोड़ी दूर पर बैठे कुछ लोगों की भीड़ को देख कर वह एकदम चुप हो गया।
गालियां ख़ोजा नसरुद्दीन के होठों में ही रह गयीं। उसे ख़याल आया कि जो भी ऐसी मज़ाकिया और बे-इज़्ज़ती की हालत में पड़ा हो और लोग उसे देख रहे हों तो अपनी परेशानी पर सबसे ज़्यादा ज़ोर से उसे ख़ुद हंसना चाहिए। उन बैठे हुए आदमियों के गिरोह की ओर आंख मारकर अपने सफ़ेद दांत दिखाते हुए वह हंसने लगा।
अहा ! मैंने कितनी बढ़िया उड़ान भरी! हंसी भरी आवाज़ में वह ज़ोर से बोलाः बताओ न मुझे, मैं ने कितनी क़लाबाज़ियां खायीं? भई, ख़ुद मुझे तो गिनने का वक़्त मिला नहीं। अरे शैतान! गधे को हंसी से थपथपाते हुए वह कहने लगा, हालांकि उसकी तबीअ’त कर रही थी कि जी भरकर उसकी मरम्मत करे, इसे ऐसी ही शरारतें सूझती हैं! जानवर ही ऐसा है! मेरी नज़र दूसरी तरफ़ घूमी नहीं कि इसे कोई न कोई शरारत सूझी!
ख़ोजा नसरुद्दीन फिर ख़ुशगवार हंसी हंसने लगा। लेकिन उसे बड़ा तअ’ज्जुब हुआ जब कोई भी उस की हंसी में शामिल नहीं हुआ। सिर झुकाये, ग़मगीन चेहरे लिए, वे लोग ख़ामोश बैठे रहे। उनकी औरतें, जिनकी गोदों बच्चे थे, चुपचाप रोती रही।
ज़रुर कोई गड़बड़ है। ख़ोजा नसरुद्दीन ने सोचा।
वह उन लोगों के पास गया और सफ़ेद बालों और सूखे चेहरेवाले एक बूढ़े से पूछाः
बुज़ुर्गवार! बताइये न कि हुआ क्या है? ऐसा क्यों है कि न मुझे मुस्कान दिखायी देती है, न हंसी सुनायी पड़ती है?
ये औरतें क्यों रो रही हैं? इस गरमी और धूल में आप सड़क के किनारे क्यों बैठे हैं? क्या यह बेहतर न होता कि आप लोग घरों की ठंढी छांह में आराम करते?
घरों में बैठना उनके लिए बेहतर हैं, जिनके पास घर हों। बूढ़े ने रंज भरे लहजे में कहा। ऐ मुसाफ़िर ! मुझ से सवाल न कर। हमारी तकलीफ़ बहुत ज़्यादा है और तू किसी भी तरह हमारी मदद नहीं कर सकता। रही मेरी बात सो मैं बूढ़ा हूं और ख़ुदा से दुआ मांगता हूं कि मुझे जल्द ही उठा ले।
आप ऐसी बातें क्यों करते हैं? झिड़कते हे ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहा। मर्दो को इस तरह नहीं सोचना चाहिए।
अपनी परेशानी मुझे बताइए। ग़रीबों जैसी मेरी शक्ल पर न जाइए। कौन जाने, शायद मैं आपकी कुछ मदद कर सकूं।
मेरी कहानी बहुत छोटी है। अभी सिर्फ़ एक घंटे पहले सूदख़ोर जाफ़र यहां के अमीर के दो सिपाही लेकर हमारी गली से गुज़रा। मुझ पर उसका क़र्ज़ है। अदायगी की आख़िरी तारीख़ कल है। सो उन्होंने मुझे उस घर से ही निकाल दिया, जहां मेरी सारी उम्र गुज़री है। कोई मेरा ख़ानदान नहीं है। कोई घर नहीं, जहां मैं सिर छिपा सकूं...।
और मेरी सारी जायदाद- मेरा घर, बाग़ीचा, ढोरे-डांगर, अंगूर की बेलें, सबकुछ वह कल बेच देगा।
बूढे की आंखें आसुओं से तर हो गयीं। उसकी आवाज़ कांपने लगी।
क्या आप पर बहुत ज़्यादा क़र्ज़ है? ख़ोजा नसरुद्दीन ने पूछा।
बहुत ज़्यादा! ऐ मुसाफ़िर, मुझे उस को ढाई सौ तंके देने हैं।
ढाई सौ तंके!! नसरुद्दीन के मुंह से निकला। ढाई सौ तंकों की मामूली रक़म के लिए भी कोई इंसान मरना चाहता है? बस-बस! आप ज़्यादा अफ़्सोस न करें, कह कर वह गधे की तरफ़ पलटा और ज़ीन से कसे थैले को खोलने लगा। बस मेरे बुज़ुर्ग दोस्त! लो! ये रहे ढाई सौ तंके। आप उस सूदख़ोर को ये वापस कर दीजिये, फिर लात मार कर उसे घर से निकाल दीजिए और ज़िन्दगी के बाक़ी दिन चैन से काटिए।
चांदी के सिक्कों की खनखनाहट सुनकर उस पूरे झुण्ड में जैसे जान आ गयी हो। बुढ़ा हक्का-बक्का, आंसू भरे, ख़ोजा नसरुद्दीन की तरफ़ एहसान भरी आंखों से देखता रह गया।
देखा आपने? तिस पर भी आप अपनी परेशानी मुझे नहीं बता रहे थे, आख़िरी सिक्का गिनते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहा। वह सोचता जा रहा था, कोई हर्ज नहीं! न सही आठ कारीगर, सात को ही नौकर रखूंगा। तब बहुत काफ़ी होंगे।
यकायक बूढ़े की बग़ल में बैठी एक औरत ख़ोजा नसरुद्दीन के पैरों पर गिर पड़ी। ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए उसने अपना बच्चा उसकी तरफ़ बढ़ा दिया।
देखिए, यह बीमार है। सुब्कियां भरती हुई वह बोली। इसके होंठ सूख रहे हैं, चेहरा जल रहा है। बेचारा नन्हा-सा बच्चा सड़क पर ही मर जायगा! हाय, मैं भी अपने घर से निकाल दी गयी हूं।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने बच्चे के पतले सूखे चेहरे को देखा। उसके पतले हाथ देखे जिन में होकर रौशनी गुज़र रही थी।
फिर उस ने बैठे हुए लोगों के चेहरे को देखा। दुख की लकीरों और झुर्रियों से भरे चेहरों, और लगातार रोने की वजह से धुंधली हुई आंखों को देख कर उसे लगा जैसे किसी ने उस की छाती में गर्म छुरा भोंक दिया हो। यकायक उसका गला भर आया। रहम और ग़ुस्से से उस का चेहरा तमतमा उठा। वह दूसरी तरफ़ देखने लगा।
मैं बेवा हूं। औरत कह रही थी। मेरा शौहर छः महीने पहले मर गया। सूद-ख़ोरों के दो सौ तंके उसे देने थे।
क़ानूनन वह क़र्ज़ अब मुझे चुकाना है।
वाक़ई, बच्चा बीमार है। नसरुद्दीन बोला। लो ये रहे दो सौ तंके। जल्दी घर जाओ और बच्चे के सिर पर ठंडी पट्टी रखो। और सुनो- ये पचास तंके और लेती जाओ। जाकर, किसी हकीम को बुलाओ और इसे कोई दवा दिलवाओ!'
छः कारीगरों से भी मैं बख़ूबी काम चला लूंगा। मन ही मन उसने सोचा।
तभी एक भारी-भरकम संगतराश उस के पैरों पर आ गिरा। अगले ही दिन उस का पूरा ख़ानदान ग़ुलामों की तरह बेचा जाने वाला था। जाफ़र के चार सौ तंके उसे भी देने थे।
चलो, पांच कारीगर ही सही। एक बार फिर अपना थैला खोलते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने सोचा। जैसे ही वह थैले का मुंह बांध चुका, दो और औरतें उसके सामने घुटनों के बल आ गिरीं। उनकी कहानी भी इतनी दर्दनाक थी कि ख़ोजा नसरुद्दीन सूदख़ोर का क़र्ज़ा चुकाने के लिए उन्हें भी काफ़ी रक़म देने में नहीं हिचका। और अब, यह देख कर कि जो रक़म उसके पास बची है वह मुश्किल से तीन कारीगरों लाएक़ ही होगी, उस ने तय किया कि अब कारख़ानों के बारे में परेशान होना बेकार है। पूरी फ़य्याज़ी के साथ अपनी दौलत उसने सूदख़ोर जाफ़र के क़र्ज़दारों में बांटने की ठान ली।
उसके पास थैले मैं अब बचे थे कुल पांच सौ तंके। तभी ख़ोजा नसरुद्दीन की नज़र एक आदमी पर पड़ी जो अकेला बैठा था। उसने मदद नहीं मांगी थी, लेकिन उसके चेहरे पर परेशानी और तकलीफ़ झलक रही थी।
ख़ोजा नसरुद्दीन ज़ोर से बोलाः अरे सुनो भाई! अगर आप पर सूदख़ोर का क़र्ज़ नहीं है, तो आप यहां क्यों बैठे हैं?
है! क़र्ज़ मुझ पर भी है! भर्राये गले से वह बोला! ज़जीरों में जकड़ा कल ही मैं ग़ुलामों के बाज़ार में बिकने जाऊंगा।
लेकिन आप ख़ामोश क्यों रहे?
ऐ सख़ी और मेहरबान मुसाफ़िर! मैं जानता नहीं कि तुम कौन हो। हो सकता है कि तुम फ़क़ीर बहाउद्दीन हो जो ग़रीबों की मदद करने के लिए अपनी क़ब्र से उठ आये हो, या शायद हारुनर-रशीद हो। मैं ने तुम से मदद नहीं मांगी क्योंकि तुम काफ़ी ख़र्च कर चुके हो और मेरा ख़र्च सब से भारी है- पांच सौ तंके। मुझे डर था कि अगर तुम ने मुझे रक़म दे दी तो कहीं इन बुज़ुर्ग और इन औरतों की मदद के लिए तुम्हारे पास काफ़ी रक़म न बचे।
आप बड़े भलेमानुस है। दया से भर कर ख़ोजा नसरुद्दीन बोला। पर मैं भी मामूली भलामानुस नहीं हूं। मेरे भी ज़मीर है और मैं क़सम खाता हूं कि आप कल ग़ुलामों के बाज़ार में नहीं बिकेंगे। फैलाइए अपना दामन।
और उसके दामन में अपने थैले का आख़िरी सिक्का तक उसने उंडेल दिया। ख़िलअ’त का दामन बायें हाथ से पकड़, दाहिने हाथ से उस आदमी ने ख़ोजा नसरुद्दीन को गले लगाया, फिर आंसुओं से भरा अपना चेहरा उसके सीने पर रख दिया।
यकायक ज़ोर से हंसता हुआ लम्बी दाढ़ी वाला भारी-भरकम संगतराश बोलाः सचमुच ही आप गधे से बड़े मज़े में उछले। फिर तो सभी हंसने लगे, मर्द भारी मोटी आवाज़ में, औरतें महीन तेज़ आवाज़ में। और बच्चे मुस्कुरा कर अपने हाथ ख़ोजा नसरुद्दीन की तरफ़ बढ़ाने लगे- जो ख़ुद सबसे ज़्यादा ज़ोर से हंस रहा था।
हो हो हो हो! हा हा हा हा! वह ख़ुशी से दोहरा होता हुआ हंस रहा था। आप नहीं जानते कि यह गधा है किस किस्म का! यह बड़ा पाजी गधा है।
नहीं, नहीं, अपने गधे के बारे में ऐसा न कहिए। बीमार बच्चेवाली औरत बोली। यह दुनिया का सबसे बेशक़ीमती, होशियार और भला गधा है। इस की तरह का न कोई गधा हुआ है और न होगा। मैं इस से ज़्यादा और कुछ भी पसन्द न करूंगी कि ज़िन्दगी भर इस गधे की सेवा-टहल करती रहूं, खाने के लिए इसे सबसे बढ़िया अनाज दूं, इस के खुरैरा करूं और इस की दुम पर कंघी करूं- क्योंकि ऐसा बेमिसाल गधा, गुलाब की तरह जिस में भलाइयों के सिवा और कुछ भी नहीं है, खाई पार करने में अगर उछला न होता और ज़ीन पर से तुम्हे फेंक न दिया होता तो, ए मुसाफ़िर, तुम जो हमारे लिए अंधेरे में सूरज बन कर आये हो, वह बिना हमारी तरफ़ ताके चुपचाप सामने से गुज़र जाते और तुम्हें रोकने की हिम्मत हम में से किसी को न होती।
ठीक कहती है यह! बड़ी अहमियत के लहजे में बूढ़ा बोला। हम सब अपना दुख दूर करने के लिए इस गधे के एहसान मन्द हैं। वाक़ई यह गधा दुनिया का ज़ेवर है! सब गधों में यह हीरे की तरह चमकता है।
सब ने ज़ोरों से गधे की तारीफ़ की। उसे भुना हुआ गल्ला, सूखे आडू, खूबानी और पूड़ियाँ खिलाने में सब एक दूसरे से बाज़ी लेने लगे। परेशान करने वाली मक्खियों पर गधे ने दुम फटकारी और बहुत अदब और गम्भीरता से सब की भेंट क़ुबूल करी- हालांकि उस की एक आंख कुछ परेशानी लिये हुए उस चाबुक पर भी पड़ी थी जो ख़ोजा नसरुद्दीन चुपके से उसे दिखाता हुआ हिला रहा था।
दिन डूबने वाला था। साये लम्बे हो रहे थे। लाल पैरोंवाले सारस पर फड़फड़ाते हुए और कैं-कैं करते हुए शोर मचाते अपने घोंसलों को लौट रहे थे, जहां उनके बच्चे लालच से खुली चोंचें आगे बढ़ाये उनका इंतिज़ार कर रहे थे।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने उन लोगों से जाने की इजाज़त ली। सबने झुक कर शुक्रिया अदा किया।
आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। आपने हमारी मुसीबतें समझीं।
कैसे न समझता मैं? उसने जवाब दिया! आज ही मेरे चार कारख़ाने छिन गये हैं, जिन में आठ-आठ होशियार कारीगर मेरे लिए काम करते थे, एक मकान छिन गया जिस में बाग़ में फ़व्वारे लगे थे और पेड़ों से लटकते सोने के पिंजरों में चिड़िया गाती थीं। कैसे न मैं आपकी मुसीबतें समझता?
तब अपने पोपले मुंह से बूढ़े ने बुदबुदाकर कहाः
ऐ मुसाफ़िर! शुक्रिया के तौर पर भेंट देने के लिए मेरे पास कुछ है नहीं। जब मैं ने अपना घर छोड़ा, तो मैं सिर्फ़ एक चीज़ अपने साथ लाया था। यह है क़ुरआन शरीफ़। इसे तुम ले लो और ख़ुदा करे इस दुनिया में यह तुम्हें रास्ता दिखानेवाली रौशनी बने।
ख़ोजा नसरुद्दीन के लिए मज़हबी किताबें बेकार थीं। पर बुढ़े के दिल को ठेस न पहुंचाने की ग़र्ज़ से उसने किताब ले ली, उसे ज़ीन से लगे थैले में डाला और कूद कर गधे पर सवार हो गया।
तुम्हारा नाम? तुम्हारा नाम क्या है? बाक़ी लोगों ने एक साथ पूछा। अपना नाम तो बताते जाओ, ताकि हमें मा’लूम रहे कि इबादत में किसके लिए दुआ मांगें।
आप लोगों को मेरा नाम जानने की क्या ज़रुरत? सच्ची नेकी को शोहरत की ज़रुरत नहीं। रहा दुआ मांगने का सवाल, सो अल्लाह के बहुत से फ़रिश्ते हैं जो उसे नेक कामों की ख़बर देते हैं। फ़रिश्ते अगर काहिल और लापरवाह हुए और नर्म बादलों में सोते रहे और इस दुनिया के पाक और नापाक कामों का हिसाब न रखा तो आपकी इबादत का कोई असर नहीं होगा, क्योंकि बिना ईमानवाले लोगों से बात पक्की कराये, सब की बातों पर यक़ीन करना अल्लाह के लिए बेवक़ूफ़ी ही होगी…
वह यह कह ही रहा था कि एक औरत यकायक मुंह फाड़कर कुछ कहती-कहती रुक गयी। ऐसा ही दूसरी औरत ने भी किया। बूढ़ा चौंका और ख़ोजा नसरुद्दीन की तरफ़ घूरने लगा। लेकिन ख़ोजा नसरुद्दीन को जाने की जल्दी थी और उसने इस बात पर ध्यान न दिया।
अलविदा’अ! ख़ुदा करे तुम अमन चैन से रहो।
यह दुआ मिल ही रही थी कि ख़ोजा नसरुद्दीन सड़क के मोड़ पर ग़ायब हो गया।
सब लोग ख़ामोश रहे। उनकी आंखों में एक ही ख़याल चमक रहा था। आख़िर बूढ़े ने ख़ामोशी तोड़ी। उसने असरदार और गंभीर आवाज़ में कहाः
सारी दुनिया में सिर्फ़ एक ही इंसान ऐसा है जो यह काम कर सकता था। सच, दुनिया में सिर्फ़ एक ही इसांन ऐसा है जो इस तरह की बात कह सकता था। सिर्फ़ एक ही इंसान सारी दुनिया में ऐसा है जिस की रुह की रौशनी और गर्मी से ग़रीब और सताये हुए लोगों को राहत मिलती है। और वह इंसान है हमारा…
ख़बरदार! ज़बान बन्द करो! दूसरे आदमी ने उसे फ़ौरन टोका। क्या तुम भूल गये कि दीवारों के भी कान होते हैं, पत्थरों के भी आंखें होती है और सैकड़ों कुत्ते सूंघते-सूंघते उसे तलाश कर सकते हैं?
सच कहते हो तुम, तीसरे ने कहा,, हमें अपना मुंह बन्द रखना चाहिए, क्योंकि यह वक़्त तो ऐसा है मानो वह तलवार की धार पर चल रहा हो। ज़रा-सा भी धक्का उसके लिए ख़तरनाक बन सकता है।
बीमार बच्चेवाली औरत बोली- भले ही लोग मेरी ज़बान खींच लें, लेकिन मैं उसका नाम नहीं लूंगी।
मैं भी ख़ामोश रहूंगी। दूसरी औरत बोली। मैं चाहे मर जाऊं, लेकिन ऐसी ग़लती न करूंगी जिस से उसके गले के रस्से का फन्दा पड़े।
सब इसी तरह कहते रहे, सिवा संगतराश के जो कुछ कुन्दज़हन था। उसकी समझ में न आ रहा था कि मुसाफ़िर अगर क़साई या बैल का उबला गोश्त बेचनेवाला नहीं है तो क्यों कर कुत्ते उसकी सूंघ-तलाश कर लेंगे। फिर, मुसाफ़िर अगर रस्से पर चलनेवाला नट है, तो उसका नाम ज़ोर से लेने में क्या हरज था? वह औरत उस नेक शख़्स के पेशे के लिए ज़रूरी रस्सा देने के बजाय आख़िर मरने को क्यों तैयार है? संगतराश एकदम चक्कर में था। उसने ज़ोर से नथुने फटकारे, गहरी सांस भरी और तय किया कि इस मुआ’मले में अब वह और ज़्यादा न सोचेगा, ताकि कहीं पागल न हो जाय।
ख़ोजा नसरुद्दीन इस बीच काफ़ी सफ़र तय कर चुका था, तो भी उसकी आंखों के सामने अब भी उन ग़रीबों के सूखे-मुरझाये चेहरे ही नाच रहे थे। उस बीमार बच्चे की, उसके सूखे होंठों और तमतमाये गालों की उसे बार-बार याद हो आती थी। उस की आंखों के सामने सफ़ेद बालोंवाले उस बूढ़े की तस्वीरर नाच गयी जो अपने घर से निकाल दिया गया था, और उसका दिल ग़ुस्से से भर उठा।
अब वह ज़ीन पर ज़्यादा देर न बैठ सका। कूद कर वह नीचे आ गया और गधे के साथ-साथ चलता ठोकर से रास्ते के पत्थरों को हटाने लगा।
ठहर, सूदख़ोरों के सरदार! ठहर, तुझे देखूंगा! वह बड़बड़ा रहा था और एक शैतानी चमक उसकी काली आंखों में समायी हुई थी। एक न एक दिन मेरी तेरी मुलाक़ात होगी ही और तब तेरी शामत आयेगी। और तू अमीर! तू, कांप और थर्रा, क्योंकि मैं, ख़ोजा नसरुद्दीन, बुख़ारा में आ पहुंचा हूं! मक्कार और शैतान जोंको! तुमने दुखी अवाम का ख़ून चूसा है। लालची लकड़बग्घे! घिनौने गीदड़ो! हमेशा तुम्हारी दाल नहीं गलेगी! न ही अवाम पर हमेशा मुसीबत बरपा होगी! और तू, सूदख़ोर जाफ़र! मेरे नाम पर ला’नत बरसे, अगर मैं ने तूझ से उस सारे ग़म और मुसीबत का हिसाब न चुकता किया जो तू ग़रीबों पर लादता रहा है।
।। 7 ।।
ज़िन्दगी में जिस ने बहुत कुछ देखा और किया था, उस ख़ोजा नसरुद्दीन के लिए भी, अपने वतन में वापसी का पहला दिन बहुत से वाक़िआओं और बैचेनी से भरा साबित हुआ। वह बहुत थका हुआ था और चाहता था कि कोई अलग जगह मिल जाय, जहां आराम कर सके।
नहीं, एक तालाब के किनारे बहुत से लोगों की भीड़ देख कर, लम्बी सासं भरता हुआ वह बोला, लगता है आज मुझे आराम का मौक़ा नहीं मिलेगा! ज़रुर यहां कुछ गड़बड़ है।
तालाब सड़क से कुछ दूरी पर था। ख़ोजा नसरुद्दीन सीधा अपनी राह पर जा सकता था। लेकिन वह उन लोगों में नहीं था जो किसी भी झगड़े फ़साद या लड़ाई में कूदने का मौक़ा हाथ से निकल जाने देते हैं।
इतने सालों से साथ होने की वजह से मालिक के तौर-तरीक़ो से ब-खूबी वाक़िफ़ गधा अपने-आप ही तालाब की तरफ़ मुड़ गया।
खचाखच भीड़ के बीच गधा घुसेड़ते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्लाया- क्या बात है, भाइयों? क्या यहां किसी का क़त्ल हो गया है? कोई लुट गया है क्या? जगह ख़ाली करो! अलग हटो!
भीड़ में जगह बनाते हुए उस तालाब के बिल्कुल किनारे पहुंच कर, जो काई और चिकनी मिट्टी से ढंक रहा था, ख़ोजा ने एक अ’जीब नज़ारा देखा। किनारे से कुछ दूर तालाब में एक आदमी डूब रहा था। बीच-बीच में वह पानी की सतह पर आता, मगर फिर डूब जाता। पानी में बुलबुले उठ रहे थे।
कई लोग किनारे खड़े हड़बड़ी मचा रहे थे और डूबते हुए आदमी के कपड़े पकड़ कर बाहर खींच लेने के लिए बार-बार हाथ बढ़ा रहे थे। लेकिन, वह पहुंच से ज़रा बाहर था।
हाथ बढ़ाओ! इधर! यहां! अपना हाथ दो! वे चिल्ला रहे थे। वह एक बार पानी के ऊपर आता और फिर डूब जाता। जैसे ही वह डूबता, तालाब में हलकी लहरें उठतीं और किनारें से हौले से टकरातीं।
यह नज़ारा देखता हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन सोचना लगा, अ’जीब बात है। बड़ी ही अ’जीब बात है! क्या वजह हो सकती है?
क्यों वह अपना हाथ नहीं बढ़ाता? हो सकता है वह कोई होशियार ग़ोता-ख़ोर हो और कोई शर्त लगा कर ग़ोते लगा रहा हो!
लेकिन यह बात है, तो वह अपनी ख़िलअ’त क्यों पहने हुए है?
वह इन ख़यालों में डूब गया। इस बीच वह डूबनेवाला आदमी कम से कम चार बार पानी की सतह पर आया और हर बार डूब गया। पानी के भीतर रहने का वक़्त हर बार पहले से ज़्यादा था।
बड़ी अ’जीब बात है। गधे से उतरते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने फिर दोहराया। तू यहीं ठहर, अपने गधे से वह बोला, मैं जा कर ज़रा नज़दीक से देखूं तो कि बात क्या है।
डूबता हुआ आदमी तब तक फिर पानी के भीतर पहुंच चुका था। इस बार वह इतनी देर तक पानी में रहा कि किनारे पर खड़े लोग उसे मरा हुआ समझ कर उसके लिए दुआ मांगने लगे।
यकायक वह फिर दिखाई दिया।
यहां! इधर! लोग चिल्लाये। अपना हाथ दो हमें, हाथ और उन लोगों ने उस की ओर अपने हाथ बढ़ाये। पर वह उनकी ओर सूनी आंखों से देखता रहा और फिर चुपचाप पानी के भीतर समा गया।
अरे बेवक़ूफ़ों! ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्लाया! उसके रेशमी साफ़े और क़ीमती ख़िलअ’त को देख कर तुम्हें समझ लेना चाहिए कि वह कोई मुल्ला या अफ़सर है! मुल्लों और अफ़सरों के तौर-तरीक़ो से क्या तुम लोग इतने भी वाक़िफ़ नहीं किजान सको कि उन्हें किस तरह पानी से निकालना चाहिए?
भीड़ में से आवाज़ें उठी- तुम तरकीब जानते हो तो निकालो उसे बाहर। और हां, ज़रा जल्दी करो। जाओ, उसे बचाओ।वह पानी के ऊपर आ गया है! जाओ उसे बाहर खींच लो!
ठहरो! ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब दिया , मैं ने अपनी तक़रीर अभी ख़त्म नहीं की है। मैं पूछता हूः तुमने कब किसी मुल्ला या अफ़सर को किसी को कुछ देते देखा है? अरे जाहिलो! याद रखो कि मुल्ला या अफ़सर कभी कोई चीज़ देते नहीं हैं, सिर्फ़ लेते हैं। उनको बचाने के लिए साइंस के उसूलों पर चलना चाहिए। मतलब यह कि उन लोगों की अ’जब तबीअ’त का ख़याल कर के ही उन्हें बचाने की कोशिश करनी चाहिए। अच्छा, अब मुझे देखो!
अरे अब तक तो बहुत देर हो चुकी है, भीड़ से आवाज़ें आयीं, वह अब फिर पानी के ऊपर नहीं आयेगा।
क्या तुम समझते हो कि पानी की रूहें इतनी आसानी से मुल्ला या अफ़सर को क़ुबूल कर लेंगी? तुम ग़लती पर हो। पानी की रूहें उस से बचने की पूरी कोशिश करेंगी।
ख़ोजा नसरुद्दीन बैठ गया और इत्मीनान से इंतिज़ार करने लगा। वह तालाब के तले से उठते बुलबुलों को हलकी हवा से किनारे की और तैरते देखता रहा।
आख़िरकार पानी की गहराइयों से गहरे रंग की एक शक्ल धीरे-धीरे बाहर आयी। डूबता आदमी फिर पानी की सतह पर दिखायी दिया। अगर ख़ोजा नसरुद्दीन वहां न होता तो वह आख़िरी बार ऊपर आया होता है।
यहां! यह लीजिए! यह लीजिए! ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्लाया।
डूबते आदमी ने अकड़ के साथ उस आगे बढ़े हाथ को थाम लिया। उसकी पकड़ के दर्द से ख़ोजा नसरुद्दीन कराह उठा।
उस आदमी के ज़बरदस्त चंगुल से छूटने और उसकी उंगलियों को खोलने में बहुत देर लगी।
कुछ देर वह बिना हिले-डुले चुपचाप पड़ा रहा। घास, काई, चिकनी बदबूदार मिट्टी उस पर पुती हुई थी और उसका चेहरा छिप गया था। उस के मुंह और नाक-कानों से पानी निकल रहा था।
मेरा बटुआ! हाय, मेरा बटुआ! अरे, मेरा बटुआ कहां है? वह कराहा। तब तक उसने चैन न ली, जब तक कमर में खुसा बटुआ उसने टटोल न लिया। फिर धीरे-धीरे उसने घास हटायी और ख़िलअ’त के दामन से अपना मुंह पोंछा। ख़ोजा नसरुद्दीन झटके से पीछे हट गया। टूटी चपटी नाक, चौड़े नथुने, एक फूटी आंख- इस आदमी का चेहरा बहुत बदनुमा था। आदमी कुबड़ा भी था।
अपनी एक आंख से भीड़े को देखते हुए खरखराती आवाज़ में उसने पूछाः मुझे बचानेवाला कौन है?
यह रहा तुम्हें बचाने वाला। भीड़ ने चिल्लाकर ख़ोजा नसरुद्दीन को आगे ठेलते हुए कहा।
इधर आओ। मैं तुम्हें इनआ’म दूंगा। पानी से पिचपिचाते बटुए में हाथ डालकर उसने मुट्ठी भर चांदी के गीले सिक्के निकाले। मुझे बाहर खींच लेने में कोई ग़ैर-मा’मूली या अ’जीब बात नहीं हुई। मैं तो आप ही निकल आता, फिर भी…
शिकायत के लहजे में वह बोला।
वह बोल ही रहा था कि कमज़ोरी या किसी और वजह से उसका हाथ धीरे से खुल गया और सिक्के उसकी उंगलियों के बीच से खनखनाते हुए फिर बटुए में पहुंच गये। बस, उसके हाथ में सिर्फ़ एक सिक्का बचा- आधे तंके का सिक्का।
लम्बी सांस भरते हुए उसने सिक्का ख़ोजा नसरुद्दीन की ओर बढ़ा दिया।
लो। रुपया लो और जा कर बाज़ार में एक प्याला पुलाव ख़रीद लो।
पुलाव का प्याला ख़रीदने को यह सिक्का काफ़ी नहीं है। ख़ोजा नसरुद्दीन बोला।
परवाह नहीं। बिना गोश्तवाला भात ख़रीद लेना।
पास खड़े लोगों से ख़ोजा नसरुद्दीन बोला- देखा न तुम लोगों ने कि कैसे मैं ने इसे साइंस के उसूलों से बचाया।
और वह अपने गधे की तरफ़ बढ़ चला।
रास्ते में वह एक आदमी के पास रुका। यह आदमी लम्बा, दुबला, कड़ियल और चिड़चिड़ी शक्ल का था और उस पर दोस्ती की छाप नहीं दिखायी पड़ती थी। उस के हाथ और बाहें कोयले और कालिख से काले हो रहे थे। उसके हाथ में लुहार का हथौड़ा था।
कहो, लुहार भाई! क्या बात है? ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहा।
बैर-भरी निगाहों से उसे ऊपर से नीचे तक घूरता हुआ लुहार बोला- क्या तुम जानते हो कि तुम ने किसे बचाया है? हां, और उस आख़िरी वक़्त बचाया है जिस के बाद फिर कोई उसे बचा नहीं सकता था? क्या तुम जानते हो तुम ने जो कुछ किया है, उसकी वजह से कितने लगों को कितने आंसू बहाने पड़ेंगे? क्या तुम जानते हो कितने लोगों को अपने घरों, खेतों और अंगूर के बाग़ों से हाथ धोना पड़ेगा, कितने लोगों को ग़ुलामों के बाज़ार में बिकना होगा और फिर वहां से खीवा की सड़क पकड़नी होगी?
नसरुद्दीन उसकी ओर तअ’ज्जुब से देखता रह गया।
तुम्हारी बात मैं समझ नहीं पा रहा हूं , लुहार भाई! क्या यह किसी इंसान और मुसलमान को ज़ेब देता है कि वह एक डूबते इंसान के पास से गुज़र जाय और उसकी मदद के लिए हाथ न बढ़ाये?
तो तुम समझते हो कि सभी सांपो, लकड़बग्घों और ज़हरीले जानवरों को बचा लेना चाहिए? लुहार चिल्लाया। फिर यकायक कोई बात उसके दिमाग़ में चमकी, क्योंकि उसने पूछाः क्या तुम यहीं के रहने वाले हो?
नहीं, मैं बहुत दूर से आया हूं।
तब तुम नहीं जानते कि जिस शख़्स को तुमने बचाया है, वह बदी करने वाला और ख़ून चूसनेवाला इंसान है। बुख़ारा में रहने वाला हर तीसरा शख़्स उस की वजह से कराहता और रोता है।
एक बहुत ख़ौफ़नाक ख़याल ख़ोजा नसरुद्दीन के दिमाग़ में कौंध गया।
लुहार भाई ! मुझे उस शख़्स का नाम तो बताओ। उसने हकला कर पूछा, क्योंकि उसे डर था कि कहीं उसका अन्दाज़ा सही न निकले।
लुहार ने जवाब दियाः तुम ने सूदख़ोर जाफ़र को बचाया है। ख़ुदा करे उस की यह ज़िन्दगी और आक़िबत बिगड़े, उसकी चौदह पुश्तें ज़ख़्मों से सड़ें और उसके ज़ख़्मों में कीड़े पड़ें!
क्या कहा ? नसरुद्दीन चिल्लाया। तुम कह क्या रहे हो लुहार भाई? हाय, हाय कम-बख़्ती! उफ़! ला’नत है मुझ पर! क्या मेरे ही इन दोनों हाथों ने उस सांप को पानी से बाहर निकाला है? वाक़ई, इस गुनाह की तौबा नहीं! हाय कम-बख़्ती! ला’नत है मुझ पर! उफ़, क्या क़यामत है!
उस के ग़म का असर लुहार पर पड़ा और वह कुछ नर्म होकर बोलाः सब्र करो मुसाफ़िर, अब कुछ नहीं हो सकता। तुम गधे पर सवार हो कर उस वक़्त उधर से गुज़रे ही क्यों? तुम्हारा गधा सड़क पर अड़ क्यों न गया? रुक क्यों न गया? तब तो सूदख़ोर को डूबने का पूरा-पूरा मौक़ा मिल जाता।
यह गया? ख़ोजा नसरुद्दीन बोला, अगर यह सड़क पर अड़ता भी है तो सिर्फ़ इसलिए कि ज़ीन से लगे थैलों से रूपया निकल जाय। जब वे भरे होते हैं, तो इस के लिए बहुत भारी साबित होते हैं। लेकिन अगर सूदख़ोर को बचाकर अपने ऊपर ला’नत बुलाने की बात हो, तब तुम यक़ीन मानो, यह गधा मुझे वक़्त से पहले ही वहां पहुंचा देगा।
हा, यह सही है, लुहार उस की बात मानते हुए बोला, पर जो हो चुका वह अब बदला नहीं जा सकता। कोई उस सूदख़ोर को फिर से तो पानी में धकेल नहीं सकता।ख़ोजा नसरुद्दीन को जोश आ गया।
मैं ने बुरा काम किया। पर मैं उसे ठीक कर दूंगा। सुनो, लुहार भाई ! मैं क़सम खाता हूं कि मैं सूदख़ोर जाफ़र को डूबाकर दम लूंगा। मैं अपने वालिद की क़सम खाता हूं। मैं उसे डूबा कर रहूंगा, हां! और इसी तालाब में डुबाऊंगा! लुहार भाई!
मेरा क़ौल याद रखना, क्योंकि मैं ने कभी फ़ुज़ूल बकवास नहीं की। सूदख़ोर को डूबना ही होगा! और जब तुम बाज़ार में यह ख़बर सुनो, तो समझ लेना कि बुख़ारा अज़ीम के शहरियों का मैं ने जो क़ुसूर किया था, उसका मैं ने बदला चुका दिया है!
।। 9 ।।
ख़ोजा नसरुद्दीन बाज़ार पहुंचा तो शहर पर ठंडे, ख़ुशबूदार कोहरे की तरह शफ़क़ छा रही थी। चायख़ानों में ख़ुशगवार आग जल रही थी और थोड़ी ही देर में पूरे बाज़ार में रौशनी होने लगी। अगले दिन बड़ा बाज़ार लगनेवाला था। एक-एक कर के ऊंटों के काफ़िले आ रहे थे। काफ़िले अंधेरे में ग़ायब हो जाते पर घंटियों की उदास, साफ़, लयदार आवाज़ हवा में गूंजती रहती। जब यह गूंज दूर जा कर ख़त्म हो जाती, तो बाज़ार में आनेवाले दूसरे काफ़िले की घंटियां उदास टिनटिनाहट करने लगतीं। यह सिलसिला बराबर जारी रहता, मानो ख़ुद रात आवाज़ कर रही हो, कांप रही हो और धीरे-धीरे कराह रही हो- दुनिया के कोने-कोने से आयी आवाज़ोँ से भर रही हो। हिन्दुस्तान, ईरान, अ’रब, अफ़्ग़ानिस्तान और मिस्र से आयी, ये न दिखायी पड़नेवाली घंटियां, कोई ललक भरा गीत गाती लग रही थीं। ख़ोजा नसरुद्दीन यह सब सुनता रहा। उसे लग रहा था कि वह हमेशा-हमेशा यह संगीत सुनता रह सकता है। पड़ोस के एक चायख़ाने से तंबूरे की आवाज़ आ रही थी और एक दुतारा मानो उस के जावब में बज रहा था। कहीं कोई गवैया (जो दिखायी नहीं दे रहा था) अपनी तेज़, साफ़ आवाज़ ऊंची कर के सितारों तक पहुंचा रहा था। अपनी माशूक़ा के बारे में वह गीत गा रहा था, उस की बेवफ़ाई की शिकायत कर रहा था। इस गाने को सुनता हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन रात में सोने की जगह तलाश करने के लिए चल पड़ा।
एक चायख़ाने के मालिक से वह बोलाः मेरे पास अपने और अपने गधे के लिए कुल आधा तंका है।
आधे तंके में तुम यहां रात बिता सकते हो, लेकिन तुम्हें कम्बल नहीं मिलेगा। उसने जवाब दिया।
तो मैं अपना गधा कहां बांधू?
तुम्हारे गधे के बारे में मैं क्यों सिरदर्द मोल लूं?
चायख़ाने में कहीं खूंटा नहीं था। ऊंचे फ़र्शवाली बरसाती से निकला एक कुंडा ख़ोजा नसरुद्दीन को दिखाई दिया। यह देखे बिना कि यह कुंडा किस चीज़ में लगा है, उसने गधे को बांध दिया। चायख़ाने में पहुंचते ही वह फ़ौरन लेट गया, क्योंकि वह बहुत थका हुआ था। उसे झपकी आ रही थी कि यकायक उसे अपना नाम सुनायी दिया। उसने आधी आंख खोली।
पास ही, बाज़ार में आये कुछ लोग घेरा बनाये चाय पी रहे थे। उन में एक ऊंटवान था, एक चारवाहा और दो दस्तकार। कोई धीमी आवाज़ में कह रहा थाः ख़ोजा नसरुद्दीन के बारे में यह भी कहा जाता है। एक दिन जब वह बग़दाद में था, तो बाज़ार के बीच हो कर गुज़र रहा था। एकाएक उसे एक सराय में शोर-गुल सुनायी दिया। तुम तो जानते ही हो, हमारा ख़ोजा नसरुद्दीन ऐसी बातें जानने के लिए कितना उतावला रहता है! वह सराय के भीतर जा पहुंचा। वहां मोटा लाल मुंहवाला सराय का मालिक एक भिखमंगे की गर्दन पकड़े उसे झकझोर रहा था। वह दाम मांग रहा था और फ़क़ीर देने से इनकार कर रहा था। 'यह शोर-ग़ुल क्यों हो रहा है?' ख़ोजा नसरुद्दीन बोला- 'यह आवारा, यह कमीना, यह दग़ाबाज़ भिखमंगा, ख़ुदा करे इस की आंतों में कीड़े पड़े, यह मेरी दूकान में घुस आया। अपनी ख़िलअ’त के दामन से इसने रोटी का एक टुकड़ा निकाला और देर तक उसे वहीं अंगीठी के ऊपर किये खड़ा रहा जब तक इस की रोटी में भुने गोश्त की ख़ुश्बू न भर गयी और रोटी दुगनी मुलायम और ज़ाइक़ादार न बन गयी। फिर यह रोटी को निगल गया।
अब यह उस की क़ीमत अदा करने से इनकार करता है। ख़ुदा करे इस के दांत गिर जायें, इस की खाल उधड़ कर अलग जा गिरे!' 'क्या यह सच है?' ख़ोजा नसरुद्दीन ने सख़्ती से पूछा। भिखमंगे के मुंह से डर के मारे बात न निकली। ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहा- 'तुम जानते हो कि दूसरे की चीज़ अदा किये बिना उसे इस्तेमाल कर लेना ग़लत बात है?' बहुत ख़ुश होकर सराय का मालिक बोला-'सुना तूने बद-मआ’श? तूने इस क़ाबिल और बा-इज़्ज़त शख़्स की बात सुनी?' ख़ोजा नसरुद्दीन ने भिखारी से पूछा- 'तुम्हारे पास पैसा है?' भिखमंगे ने अपनी जेब से आख़िरी पैसे निकाले और उन्हें ख़ोजा नसरुद्दीन के सिपुर्द कर दिया। सराय के मालिक ने अपना चर्बीदार पंजा पैसे लेने के लिए आगे बढ़ाया। ख़ोजा नसरुद्दीन बोला- 'ठहरिये हज़रत! पहले अपना कान मेरे पास लाइए।' काफ़ी देर तक वह सराय के मालिक के कानों के पास पैसे खनखनाता रहा। फिर उसने पैसे भिखारी को लौटाते हुए कहा- सलामुअलैकुम, मेरे ग़रीब दोस्त! अब तुम जा सकते हो।' सराय का मालिक चिल्लाया- 'क्या कहा? लेकिन मुझे तो क़ीमत मिली नहीं!' ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब दिया- 'उस ने पूरी क़ीमत चुका दी है। तुम लोगों का हिसाब साफ़ हो गया है। उसने तुम्हारा सीख़ कबाबा सूंघा, तुमने उस के पैसों की खनखनाहट सुन ली।'
सुननेवाले लोग ज़ोर से हंस पड़े। उन में से क ने औरों को होशियार किया- इतनी ज़ोर से नहीं। नहीं तो, लोग समझेंगे कि हम लोग ख़ोजा नसरुद्दीन की बात कर रहे हैं।
ख़ोजा नसरुद्दीन चुपचाप मुस्कुराता हुआ सोचना लगाः इन्हें कैसे पता? यह सच है कि यह बात बग़दाद नहीं इस्ताम्बूल में हुई थी। तो भी, इन्हें ख़बर कैसे लगी?
तभी चरवाहे की पोशाक पहने और रंगीन साफ़ा बांधे दूसरे आदमी ने, जो बदख़्शाँ का लग रहा था, धीमी आवाज़ में यह क़िस्सा सुनाना शुरु कियाः
लोग कहते हैं कि एक दिन ख़ोजा नसरुद्दीन एक मुल्ला के बाग़ीचे के पास से गुज़र रहा था। मुल्ला एक बोरे में कददू भर रहा था। लालच ही लालच में उसने बोरा इतना भर लिया कि ढोने की कौन कहे, वह उसे उठा भी नहीं पा रहा था। सो, वह वहीं खड़ा सोचता रहा कि बोरे को घर तक कैसे पहुंचाऊं। तभी उसे एक राहगीर दिखायी दिया। मुल्ला ख़ुश हो गया। 'सुनो बेटे! क्या यह बोरा तुम मेरे घर तक पहुंचा सकते हो?' ख़ोजा नसरुद्दीन के पास उस वक़्त पैसे नहीं थे। मुल्ला से पूछाः 'मुझे क्या दोगे?' अरे बेटे, तुम पैसे क्यों मांगते हो? तुम बोरा लेकर चल रहे हो गे, तभी मैं तुम्हें दानिशमन्दी की तीन बातें बताऊंगा जिन्हें सुन कर तुम्हारी ज़िन्दगी में ख़ुशी छा जायेगी।' ख़ोजा नसरुद्दीन ने सोचा- 'क्यों न जान लिया जाय कि दानिशमन्दी की ये तीन बातें क्या है?'
उस की जानने की ख़्वाहिश बढ़ी। उस ने बोरा उठाकर कंधों पर रखा और चल पड़ा। रास्ता ऊंचाई पर था और उस के एक तरफ़ ग़ार था। दम लेने के लिए ख़ोजा नसरुद्दीन रुका। मुल्ला ने बड़ी अहमियत और राज़ भरे अंदाज़ में कहाः 'दानिशमन्दी की पहली बात सुन! क्योंकि इससे बड़ी अक़्लमन्दी की बात आदम के वक़्त से आज तक दुनिया में नहीं हुई। अगर तू इस के मा'नी पूरी गहरायी में जा कर समझे तो यह उन अलिफ़, लाम, मीम हर्फ़ों का हक़ीक़ी मतलब समझने के बराबर होगा, जिन से हमारे पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद ने क़ुरआन का दूसरा सूरा शुरु किया है।'
'ग़ौर से सुन! अगर कोई तुझ से कहे कि सवारी करने से पैदल चना ज़्यादा अच्छा है, तो उसका यक़ीन न करना।मेरी बात याद रखना बेटे। इस पर दिन-रात ग़ौर करना। तब तू इन अल्फ़ाज़ में छिपी दानाई समझ सकेगा। पर यह बात अक़्ल की उस दूसरी बात के मुक़ाबले कुछ भी नहीं है जो मैं तुझे उस पेड़ के नीचे सुनाऊंगा। वह देख, वह आगेवाला पेड़।' ख़ोजा नसरुद्दीन ने सोचाः 'अच्छी बात है, मुल्ला साहब! आप ज़रा ठहरें तो!' 'पसीने से तर वह बोरा लिए पेड़ तक पहुंचा।
मुल्ला ने उंगली उठाकर कहाः 'कान खोल कर सुन, क्योंकि दानाई की इस दूसरी बात में पूरा क़ुरआन, आधी शरीअ’त और चौथाई तरीक़त भी भरी है। जो इस बात को समझ लेगा वह कभी नेकी के रास्ते से नहीं डिगेगा, हमेशा सच्चाई के रास्ते पर चलेगा। इसलिए, ऐ मेरे बेटे! अक़्ल की इस बात को समझने की कोशिश कर और ख़ुशी मना कि यह बात तुझे मुफ़्त ही बतायी जा रही है। दानिशमन्दी की दूसरी बात यह है कि अगर तुझ से कोई कहे कि ग़रीब इंसान की ज़िन्दगी अमीर के मुक़ाबले में ज़्यादा आसान और आरामदेह है, तो उसका यक़ीन न करना। लेकिन यह दूसरी बात भी उस तीसरी बात के मुक़ाबले कुछ नहीं है, जिस की तेज़ चमक सूरज को अंधा बना देनेवाली रौशनी की तरह है और जिस की गहराई सिर्फ़ समुंदर की गहराई से मिलाई जा सकती है। यह तीसरी बात में तुझे अपने घर के फाटक पर पहुंच कर बताऊंगा। अब जल्दी चल- क्योंकि मैं सुस्ता चुका हूं।'
ख़ोजा नसरुद्दीन बोला- 'ठहरिए, मुल्ला साहब! मुझे आपकी दानिशमन्दी की तीसरी बात पहले से ही मा’लूम है।
अपने घर के दरवाज़े पर पहुंच कर मुझे बतायेंगे कि चालाक आदमी बेवक़ूफ़ इंसान से कद्दुओं का बोरा हमेशा मुफ़्त ढुलवा सकता है।' मुल्ला अचम्भे में आ गया और थम गया। ख़ोजा नसरुद्दीन का क़यास ठीक था।
'अब जनाब मुल्ला साहब! आप दानिशमन्दी की मेरी भी एक बात सुनिये। यह अकेली बात आपकी सभी बातों के बराबर है।' ख़ोजा नसरुद्दीन कहता गया। 'मैं पाक पैग़म्बर की क़सम खाकर कहता हूं कि मेरी दानाई की बात इतनी गहरी और ऐसी चकाचौंध कर देने वाली है कि इसमें क़ुरआन, शरीअ’त, तरीक़त व मय दूसरी किताबों के पूरा इस्लाम, बौद्ध फ़ल्सफ़ा, ईसाई और यहूदी मज़हबों की तमाम बातें शामिल है। ऐ मुल्ला साहब! मुझे सच्चा ईमान बतानेवाले मेरे उस्ताद! इस बात से, जो मैं आपको बताने जा रहा हूं, ज़्यादा दानिशमन्दी की बात कोई कभी हुई ही नहीं। लेकिन, इसे सुनने के लिए आप पहले अपने को तैयार कर लीजिए। क्योंकि यह इतनी वसीअ’, अज़ीमुश्शान और अचम्भे में डाल देनेवाली है कि इस से आसानी से किसी इंसान का दिमाग़ फिर सकता है। मुल्ला साहब!
अपने दिमाग़ को फ़ौलाद की तरह कड़ा कर लीजिए और सुनिएः अगर आपसे कोई कहे कि ये कद्दू फूटे नहीं हैं, तो उस के मुंह पर थूक दीजिएगा, उसे झूठा क़रार दे दीजिएगा और उसे अपने घर से निकाल बाहर कीजिएगा!'
यह कहक र ख़ोजा नसरुद्दीन ने बोरा उठाया और उसे पासवाले गहरे खड़ में फेंक दिया। कद्दू बोरे से निकल पड़े और पत्थरों पर टकराते, आवाज़ करते हुए नीचे गिरकर चकनाचूर हो गये। मुल्ला, 'हाय, हाय!' कहता, अफ़्सोस करता हुआ रोने-धोने लगा। 'हाय कितना नुक़सान हो गया! कैसी बर्बादी हो गयी!' कहा हुआ वह चीख़ता-चिल्लाता, रोता-धोता, अपना मुंह नोचता, पागलों जैसा घर की तरफ़ चल पड़ा।
उस के चलते-चलते नसरुद्दीन ने कहाः 'देखा न आपने! मैं ने आपको ख़बरदार कर दिया था! मैं ने आपको पहले ही बताया था कि दानाई की मेरी बात से आप पागल हो सकते है!'सुनने वाले हंसी से दोहरे हो गये।
धूल और खटमल भरे नमदे पर एक कोने में पड़ा ख़ोजा नसरुद्दीन सोचने लगा-तो उन्होंने इस वाक़िए की भी ख़बर पा ली? लेकिन कैसे? उस सड़क पर उस वक़्त सिर्फ़ दो ही शख़्स थे- मुल्ला और मैं! और मैं ने किसी से इस बारे मं कभी कुछ कहा नहीं। शायद मुल्ला को जब पता लगा हो कि उस के कद्दू कौन ढो रहा था, तो उसने यह क़िस्सा ख़ुद सुनाया हो।
तीसरे शख़्स ने अपना क़िस्सा शुरु कर दियाः एक दिन तुर्की के एक शहर से ख़ोजा नसरुद्दीन उस गांव को लौट रहा था, जहां उन दिनों वह रहता था। थककर वह एक नदी के किनारे लेट गया और बिना जाने ही पानी की ख़ुशगवार आवाज़ और बहार की ख़ुश्बूदार हवा के झोकों में सो गया। सोते-सोते उसने सपना देखा कि वह मर गया है। उस ने सोचाः 'अगर मैं मर गया हूं, तो मुझे न तो हिलना चाहिए और न आंखें खोलनी चाहिएं।' सो, वह चुपचाप मुलायम घास पर बिना हिले डुले पड़ा रहा।
उसे लगा, आख़िर मरना इतनी बुरी चीज़ तो है नहीं। जब तक यह ज़िन्दगी है, तब तक झंझट और परेशानियां बुरी तरह पीछे लगी रहती हैं। मौत आने पर उनके बिना बस आराम से पड़े रहना होता है।
उधर से गुज़र रहे थे कुछ मुसाफ़िर। उनकी नज़र ख़ोजा नसरुद्दीन पर पड़ी। मुसाफ़िरों में से एक बोलाः 'देखो! वह कोई मुसलमान है।' दूसरा बोला, 'मरा हुआ है! चलो उठाकर पास के गांव ले चलें।'
पास का गांव वही था, जहां ख़ोजा नसरुद्दीन को जाना था। लोगों ने पेड़ों से कई शाखें काटीं। उनकी चारपाई बनाकर उस पर ख़ोजा नसरुद्दीन को लिटाया और लेकर चल पड़े। काफ़ी देर तक वे उसे लेकर चलते रहे। वह आंखें बन्द किये, बिना हिले-डुले, चुपचाप लेटा रहा- ठीक वैसे ही जैसा कि उस शख़्स को ज़ेब देता है जो मर चुका है या’नी जिसकी रूह बहिश्त के फाटक खटखटाती होती है।
यकायक चारपाई रुकी। मुसाफ़िर लोग नदी को पार करने के बारे में बातचीत कर रहे थे। एक कह रहा था कि दाहिनी तरफ़ मुड़ना है, दूसरा कह रहा था, बाई तरफ़। तीसरा कहता सीधे यहीं से नदी पार कर लेनी चाहिए। ख़ोजा नसरुद्दीन ने एक आंख खोली तो देखा कि वे लोग उस जगह खड़े हैं जहां नदीं सबसे ज़्यादा गहरी है, धार सबसे तेज़ और ख़तरनाक है, जहां बहुत से लापरवाह लोग डूब चुके हैं। ख़ोजा नसरुद्दीन ने सोचा- 'मेरी तो कोई बात नहीं!
अपनी परवाह मुझे है नहीं, क्योंकि मैं मर चुका हूं! चाहे क़ब्र में लेटूं, चाहे नदी की गोद में, मेरे लिए कोई फ़र्क़ पड़ता नहीं। लेकिन इन मुसाफ़िरों को आगाह कर देना चाहिए, नहीं तो मेरे ऊपर मेहरबानी करते-करते कहीं ये लोग अपनी जान से ही हाथ न धो बैठें। उन्हें आगाह न करना, मेरा नाशुक्रापन होगा।'
चारपाई पर वह थोड़ा सा उठा और नदीं की तरफ़ इशारा करता हुआ कमज़ोर आवाज़ में बोलाः मुसाफ़िरों! मैं जब ज़िंदा था, तो हमेशा इस नदी को चनार के उन दरख़्तों के पास से पार किया करता था।' इतना कह कर उसने फिर आंखें बन्द कर लीं। मुसाफ़िरों ने ख़ोजा नसरुद्दीन का शुक्रिया अदा किया और ज़ोर-ज़ोर से उस की रुह के लिए दुआ मांगते हुए, चारपाई लेकर आगे बढ़ चले।
कहानी कहनेवाला और कहानी सुननेवाले एक-दूसरे को कोहनी मार कर हंस रहे थे। ख़ोजा नसरुद्दीन कराहाः पूरा वाक़िआ’ ही उन्होंने ग़लत सुना। पहली बात तो यह कि मै ने ख़्वाब देखा ही नहीं कि मैं मर चुका हूं। मैं इतना बेवक़ूफ़ नहीं कि अपनी मौत और ज़िन्दगी में फ़र्क़ न कर सकूं। अरे, मुझे तो यह भी याद है कि उसी वक़्त मुझे पिस्सू काट रहे थे और मुझे बड़ी ख़्वाहिश हो रही थी कि अपना बदन खुजा लूं। ज़िन्दा होने का यह सबसे साफ़ सबूत था। मैं ज़िंदा न होता तो पिस्सू काटने की खुजली हरगिज़ महसूस न करता। हां, थका हुआ मैं बहुत था और चलना नहीं चाहता था! मुसाफ़िर तगड़े थे और उन्हें ज़रा-सा रास्ता बदलकर गांव तक मुझे पहुंचा देने में कोई तकलीफ़ न होती। लेकिन नदी को जब वे उस जगह पार करने की बात सोचने लगे जहां पानी की गहराई तीन आदमियों के बराबर थी, तो मैं ने उन्हें रोका- हालांकि तब भी मैं सोच रहा था सिर्फ़ उन लोगों के ही ख़ानदान की बात, अपनी नहीं क्योंकि मेरा तो कोई ख़ानदान है ही नहीं। फ़ौरन ही उनके नाशुक्रेपन का बड़ा कड़वा फल मिला। वक़्त पर होशियार कर देने की एवज़ में मेरा शुक्रिया अदा करना तो दूर, उन्होंने मुझे चारपाई से गिरा दिया और मुक्के मारने लगे। वे मेरी और भी ठुकाई करते, अगर मेरे पैर दौड़ने में तेज़ न होते। लोग सच्चाई को कैसे तोड़-मरोड़ लेते हैं, यह देख कर तअ’ज्जुब होता है!
इस बीच चैथे शख़्स ने अपना क़िस्सा शुरु कर दिया।
ख़ोजा नसरुद्दीन के बारे में यह क़िस्सा भी मशहूर है। एक बार वह एक गांव में क़रीब छः महीने तक रहा और अपनी हाज़िर-जवाबी और मसख़रेपन के लिए मशहूर हो गया…
ख़ोजा नसरुद्दीन के कान खड़े हो गये। यह आवाज़ कहां सुनी थी उसने? ज़्यादा ज़ोर की नहीं, पर तब भी बिल्कुल साफ़ और कुछ-कुछ भर्रायी हुई-सी थी। सुनी भी यह उसने बिल्कुल हाल में ही थी...शायद आज ही। पर, याद करने की कोशिश के बावजूद उसे याद न आया।
वह आदमी कह रहा थाः एक दिन उस सूबे के हाकिम ने उस गांव में अपना हाथी भेज दिया, जहां ख़ोजा नसरुद्दीन रहता था। हाथी को खिलाने-पिलाने और उस की देखभाल करने की ज़िम्मेदारी गांव वालों की थी। हाथी बड़ा खाऊ था। एक दिन में पचास गट्ठर जौ, पचास गट्ठे चरी, पचास गट्ठर मक्का और सौ बोझ चारा खा जाता था। बस एक पखवारे में ही गांववालों के खलिहान ख़ाली हो गये। बेचारे बिल्कुल बर्बाद हो गये, नाउम्मीद हो गये। आख़िर उन्होंने तय किया कि ख़ोजा नसरुद्दीन को हाकिम के पास भेजा जाय और दरख़्वास्त की जाय कि वह हाथी वापस बुला लें।
उन्होंने ख़ोजा नसरुद्दीन की तलाश की। वह उनका काम करने के लिए राज़ी भी हो गया। अपने अधे पर उसने ज़ीन कसी और-जैसा कि सारी दुनिया जानती है- ज़िद, बदमिजाज़ी और काहिली में उसका गधा सांप, सियार और मेंढ़क मिली-जुली औलाद से भी बदतर है। ज़ीन कसकर वह हाकिम की तलाश में निकल पड़ा। लेकिन, जाने से पहले गांववालों से वह अपनी उजरत तय करना न भूला! अस्ल में उसने इस काम के लिए इतनी ज़्यादा रक़म वसूल की कि बहुत से लोगों को अपने घर बेचने पड़े और वे फ़क़ीर हो गये। यह सब हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन की बदौलत।
जिस कोने में ख़ोजा नसरुद्दीन नमदे पर पड़ा अपने दमघोंट ग़ुस्से पर क़ाबू पाने के लिए करवटें बदल रहा था, उधर से आवाज़ आयीः हूं।
आदमी कहता गयाः इस तरह ख़ोजा नसरुद्दीन हाकिम के महल तक पहुंचा। बहुत देर तक वह हाकिम के नौकरों और हाकिम की मेहरबानी पर पलनेवाले लोगों की भीड़ में खड़ा इंतिज़ार करता रहा कि वे अपनी रौशन निगाह उस पर भी डालें- वह निगाह जो कुछ लोगों को मसर्रत बख़्शती है और कुछ पर बर्बादी। हाकिम ने ख़ोजा नसरुद्दीन की ओर मुड़कर देखा तो उस शानदार चेहरे को देख कर ख़ोजा को इतना डर लगा और इतना अचम्भा हुआ कि सियार की पूंछ की तरह उसकी टांगे कांपने लगीं और बदन में ख़ून की रफ़्तार कम हो गयी। बेचारा पसीने से नहा गया और खड़िया से भी ज़्यादा सफ़ेद हो गया।
कोने से फिर हूं! हूं! की आवाज़ आयी। पर, क़िस्सा कहनेवाला इस रुकावट की परवाह किये बिना कहता रहाः 'तू क्या चाहता है?' हाकिम ने शेर की हुंकार से मिलती-जुलती गरजती शानदार आवाज़ में पूछा। डर के मारे ख़ोजा नसरुद्दीन के मुंह से आवाज़ नहीं निकली। बदबूदार लकड़बग्घे जैसी पिंपियाती आवाज़ में ख़ोजा नसरुद्दीन बोला- 'ऐ मेरे ज़ीशान आक़ा! ऐ सूबे की रौशनी! ऐ इस सूबे के चांद-सूरज! ऐ हमारे सूबे के हर बाशिन्दे को ख़ुशी और मसर्रत बख़्शनेवाले! अपने इस नाचीज़ ग़ुलाम की बात सुनिए जो आपके महल के दरवाज़े को अपनी दाढ़ी से साफ़ करने के क़ाबिल भी नहीं। ऐ मेहरबानों के मेहरबान! अपना एक हाथी हमारे गांव में भेजकर आपने बड़ी मेहरबानी की है और उस को खिलाने-पिलाने और उसकी देख-भाल करने का गांववालों को मौक़ा दिया है। हम लोगों को इस से कुछ फ़िक्र हो गयी है...
हाकिम की त्यौरियां चढ़ गयीं। ख़ोजा नसरुद्दीन उन के सामने बिल्कुल वैसे ही झुक गया जैसे आंधी में पतवार झुक जाती है। हाकिम ने पूछा- 'किस बात की फ़िक्र? बोलता क्यों नहीं? क्या तेरी नाक़िस, गन्दी ज़बान सूख कर तालू से चिपक गयी है?' ख़ोजा नसरुद्दीन डर का दिखावा करता हुआ मिमियाया 'मैं... ऐ ... हम ... ऐ... आक़ा हमें फ़िक्र है कि हाथी को अकेलापन महसूस होता है। बेचारा जानवर बहुत ग़मगीन है। उसकी तकलीफ़ देख कर, गांवाले ग़मगीन हो गये है और अफ़्सोस मना रहे हैं। ऐ क़ाबिल-ए- ताज़ीम! अपनी शख़्सियत से इस दुनिया को रौशन करने वाले ऐ हुज़ूर! गांववालों ने मुझे आपके पास भेजा है। उन्होंने मुझसे यह इल्तिजा करने को कहा है कि हाथी के साथ रहने के लिए आप एक हथिनी भेज दीजिए।' इस दरख़्वास्त पर हाकिम बहुत ख़ुश हुआ और उसे फ़ौरन पूरा करने का हुक्म जारी कर दिया। ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए उसने ख़ोजा नसरुद्दीन को अपना जूता चूमने की इजाज़त दी। ख़ोजा नसरुद्दीन ने यह काम ऐसी लगन और मेहनत से किया कि हाकिम के जूते का रंग उड़ गया और ख़ोजा नसरुद्दीन के होंठ काले पड़ गये…
ख़ोजा नसरुद्दीन की बुलन्द आवाज़ ने क़िस्सा कहनेवाले की बात बीच ही में काट दी।तू झूठ बोलता है बे! ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्लायाः गन्दे! मरियल कुत्ते! यह तेरे होंठ, तेरी ज़बान और तेरा पेट है जो बड़े लोगों के जूते चाटने से काले पड़ गये है। ख़ोजा नसरुद्दीन कभी किसी बड़े आदमी के सामने नहीं झुका।
तू ख़ोजा नसरुद्दीन को बदनाम करता है? ऐ मुसलमानो! तुम इस की बात न सुनो और इसे यहां से मार भगाओ।
बदनाम करनेवाले उस शख़्स से निपटने के लिए वह आगे झपटा ही था कि चपटे, चेचक रू चेहरेवाले आदमी की पीली काइयां आंखों को पहचान कर वह एकदम रुक गया। यह वही नौकर था जिस ने उस से बहिश्त के पुल पर बाड़ लगाने के सिलसिले में गली में झगड़ा किया था।
ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्लायाः आहा! मैं तुझे जानता हूं, बे जासूस! बता, ख़ुफ़ियागिरी से ख़बर देने का तुझे क्या मिलता है? जिन के साथ तू दग़ा करता है, फांसी दिलवाता है, उन पर फी कस कितनी रक़म मिलती है? अबे अमीर के जासूस और खुफ़िया! मैं तुझे अच्छी तरह पहचानता हूं।
जासूस ने, जो अब तक बिल्कुल ख़ामोश खड़ा था, एकाएक ताली बजायी और ऊंची आवाज़ में चिल्लायाः
सिपाही! सिपाही! यहां!
ख़ोजा नसरुद्दीन ने सिपाही के दौड़ते क़दमों की आहट, भालों की खनखनाहट और ढालों की खटाखट सुनी। एक भी लम्हा खोये बिना वह एक तरफ़ को उछला और रास्ता रोकनेवाले चेचक रू जासूस को गिरा दिया।
अब उसे चौराहे की दूसरी तरफ़ से पहरेदारों के क़दमों की आवाज़ सुनायी पड़ी। जिस तरफ़ भी वह जाता, सामने सिपाही ही पड़ते। एक लम्हे तक को उसे लगा कि अब बच निकलना नामुमकिन है।
वह ज़ोर से बोलाः ला’नत है मुझ पर! मैं फंस गया! ऐ मेरे वफ़ादार गधे! कहां है तू? अलविदा’अ!
उसी वक़्त अचम्भे भरा एक ऐसा वाक़िआ’ हुआ जिसकी कोई उम्मीद न थी और जिसे आज भी लोग बुख़ारा में याद करते हैं। ऐसा वाक़िआ’ जो कभी न भुलाया जा सकेगा। बड़ा नुक़सान और हो-हुल्लाड़ हुआ था उस बात से।
अपने मालिक की उदास आवाज़ सुनकर गधा उसकी तरफ़ बढ़ा। उस के साथ ही बरसाती से टकराता हुए एक बहुत बड़ा ढोल भी साथ-साथ आने लगा। अंधेरे में बिना जाने हुए ही ख़ोजा नसरुद्दीन ने अपने गधे को उस बड़े ढोल के कुंडे से बांध दिया था जिसे बजवाकर चायख़ाने का मालिक बड़े त्योहारों पर गाहकों को अपनी दुकान की तरफ़ बुलाता था। ढोल एक पत्थर से जा टकराया। बड़े ज़ोर की गमक हुई। गधे ने पीछे मुड़कर देखा। ढोल फिर बजा। यह समझकर कि उसके मालिक से निपटकर शैतान अब उसके पीछे आ पड़ा है, यह समझकर कि अब उसकी भूरी खाल की ख़ैरियतत नहीं, डर के मारे गधा अपनी दुम उठाकर ज़ोरों से रेंकता हुआ बाज़ार की तरफ़ भागा।
तभी एक काफ़िले के पचास ऊंट चीनी के बर्तन और तांबे की चादरें लादे बाज़ार की तरफ़ आ रहे थे। इस तरह ज़ोरों से रेंकने और गमकने-बमकने वाले जानवर को अपनी तरफ़ बढ़ता देख ऊंट, घबराकर इधर-उधर भागे। उन पर लदे चीनी मिट्टी के बर्तन व तांबे की चादरें खनखनाती हुई ज़मीन पर गिरने लगीं।
ज़रा सी देर में पूरे बाज़ार और आसपास की गलियों में ख़ौफ़ और घबड़ाहट फैल गयी। टिनटिनाहट, रेंक, भौंक, खनखनाहट, बर्तनों के गिरने की खनन-खनन आवाज़, ग़र्ज़, चीख़-पुकार- बिल्कुल दोज़ख़ जैसा शोर-ग़ुल! हर आदमी भौचक्का और हड़बड़ाया हुआ! सैकड़ों ऊंट, घोड़े, गधे रस्सियां तुड़ा-तुड़ा कर अंधेरे में भागने लगे। तांबे की चादरों से लड़-लड़कर ज़ोर की गरज पैदा करने लगे। जानवरों के मालिक मशअ'लें हाथ में लिये इधर-उधर दौड़ते-भागते चिल्लाने लगे।
इस दोज़खी शोर-ग़ुल को सुनकर सोनेवाले जाग गये और अधनंगे ही इधर-उधर भागने लगे। कभी वे एक-दूसरे से जा भिड़ते। कभी अफ़्सोस व तकलीफ़ के साथ चीख़-पुकार मचाते। वे तो समझे थे कि हश्र का दिन आ गया है। पर फड़फड़ा-फड़फड़ाकर मुर्ग़े बांग देने लगे। हुल्लड़ और भी बढ़ा और शहर के बाहर की आबादी तक फैल गया। फिर तो शहर की चहारदीवारी पर लगी तोपें दगने लगीं। शहर के पहरेदारों ने समझा कि दुश्मन बुख़ारा में घुस आया है। और तो और, शाही महल की तोपें भी गरज उठीं- वहां के पहरेदारों ने समझा कि इंक़लाब हो गया है।
शहर की अनगिनत मीनारों से सहमी और ग़मगीन आवाज़ोँ में मोअज़्ज़िन दुआ मांगने लगे। अंधेरे में भारी गड़बड़ मची हुई थी। कोई नहीं समझ पाता था कि क्या करें और कहां भागकर जायें। इसी हो-हुल्लड़ के बीच ख़ोजा नसरुद्दीन पगलाये हुए ऊंटों और घोड़ों से फुर्ती से बचा हुआ, ढोल की आवाज़ का सहारा लिए, अपने गधे का पीछा करता, दौड़ रहा था। गधे को वह तब तक न पकड़ पाया जब तक गधे और ढोल को एक दूसरे से जोड़नेवाली दरमियानी रस्सी टूट न गयी और ढोल लुढ़क कर ऊंटों के पांवों तले न आ गया, जो उस से बचने की हड़बड़ी में शामियाने, चंदोवे, छप्पर, चायख़ाने और खोखों को तड़ातड़ गिराने लगे।
सचमुच, गधे को ढूंढने में ख़ोजा नसरुद्दीन को न जाने कितना वक़्त लग जाता, अगर एकाएका दोनों एक-दूसरे के सामने न आ पड़ते। फेन से लथपथ गधा ऊपर से नीचे तक कांप रहा था। चल, इधर आ! यहां ज़रुरत से ज़्यादा शोर-गुल हो रहा है! गधे को अपने पीछे खींचता हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन बोला।
यह देख कर तअ’ज्जुब होता है कि गधे के पीछे ढोल बांध दिया जाय तो यह छोटा-सा जानवर किस क़दर बर्बादी बरपा कर सकता है। अबे, देखा तूने क्या कर डाला है? सच है कि तूने मुझे पहरेदारों से बचाया। फिर भी बुख़ारा के ग़रीब बाशिन्दों के लिए मुझे अफ़्सोस है। सारा घपला साफ़ करने में उन्हें सवेरा हो जायगा। अब हमें कोई ऐसी जगह कहां मिल सकती हैं, जहां कोई ख़लल न डाले?
ख़ोजा नसरुद्दीन ने तय किया कि वह किसी क़ब्रिस्तान में रात गुज़ारेगा। वह सोच भी ठीक ही रहा था क्योंकि चाहे जितनी गड़बड़ क्यों न हो, मुर्दे तो उठकर हाथों में मश्अ’लें लेकर चीख़ते-चिल्लाते दौड़ नहीं सकते थे। इस तरह, अमन में ख़लल डालनेवाले और फूट के बीज बोनेवाले ख़ोजा नसरुद्दीन ने अपने वतन में वापसी का पहला दिन अपनी शोहरत के मुताबिक़ ही गुज़ारा। एक क़ब्र के पत्थर से उसने गधा बांधा और दूसरी क़ब्र पर आराम से लेटकर सो गया। इस बीच शहर में काफ़ी देर तक शोर-ग़ुल, चीख़-पुकार, घंटियों की टनटनाहट और तोपों की गरज व आम गड़बड़ जारी रही।
।। 9 ।।
तड़का होते ही- जब तारे मद्धिम पड़ने लगे, अंधेरे में चीज़ों के ख़ाके उभरने लगे- सैकड़ों मेहतर, बढ़ई, कुम्हार और सफ़ाई करने वाली बाज़ार में आये और मन लगाकर काम करने लगे। गिरे हुए शामियानों को उन्होंने सीधा किया, पुलों की मरम्मत की, बाड़ों के सुराख़ोँ को भरा और टूटे बरतनों और लकड़ी के टुकड़ों को साफ़ किया।
और, सूरज की पहली किरन जब धरती पर उतरी तो बुख़ारे में रात की गड़बड़ी का कोई निशान बाक़ी नहीं था। बाज़ार खुला। रात भर आराम से क़ब्र पर सोने के बाद ख़ोजा नसरुद्दीन अपने गधे पर सवार हुआ और बाज़ार की तरफ़ चलब पड़ा। अभी ही वहां चहल-पहल और लोगों की आने-जाने और तरह-तरह की बोलियों की भनभनाहट होने लगी थी। अलग-अलग नस्लों के लोगों की रंग-बिरंगी लिबासवाली भीड़ हो गयी थी। ताजिरों, भिश्तियों, नाइयों, दरवेशों,फ़कीरों की आवाज़ और बाज़ार में बैठे जंग लगे डरावने औज़ारों की हिलाते हुए दांत निकालनेवालों के शोर-ग़ुल के बीच अपनी ही आवाज़ मुश्किल से सुनायी देती थी। ख़ोजा नसरुद्दीन ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता जा रहा थाः हटो, बचो! रास्ता करो! हटो! रंग-बिरंगी ख़िलअ’तें, साफ़े, घोड़ों के कम्बल, क़ालीन, चीनी, अरबी, मंगोलियायी व बहुत सी दूसरी जुबानें उस धक्कमधक्का करती, भनभनाती भीड़ में शामिल थी। गर्द उड़कर आसमान पर छा रही थी। आदमियों का कभी ख़त्म न होनेवाला तांता लगा हुआ था। अपना-अपना सामान फैलाकर ये लोग भी आ’म शोर-ग़ुल में आवाज़ें मिला रहे थे। पतली छड़ियों से कुम्हार अपने बर्तन बजा रहे थे और उधर से गुज़रनेवालों की ख़िलअ’तें पकड़-पकड़कर उनसे साफ़ खनखनाहट सुनने को कह रहे थे, ता कि वे उन्हें ख़रीदने को राज़ी हो जायें। तांबेवालों की क़तार में तांबे के बर्तनों की चमक चकाचौंध पैदा कर रही थी। हवा छोटे-छोटे हथौड़ों की आवाज़ से गूंज रही थी। कारीगर सुराहियों और किश्तियों पर डिज़ाइन बना रहे थे। ज़ोर-ज़ोर से वे अपनी दस्तकारी की तरीफ़ कर रहे थे, आसपास वालों के काम की बुरायी भी कर रहे थे।
सुनार और सर्राफ़ छोटी-छोटी प्यालियों में चांदी पिघला रहे थे, सोने के तार खींच रहे थे और क़ीमती हिन्दुस्तानी जवाहरात को चमड़ों के चकत्तों पर लगाकर पालिश कर रहे थे। कभी-कभी इत्र के ताजिरों की क़तार से आते हवा के हल्के झोंके ख़ुशबू की लहर बिखेर देते। गुलाब, मुश्क व बहुत से दूसरे मसालों के इत्र वहां बिक रहे थे। एक तरफ़ ईरान, दमिश्क व तक्के के कम्बल और क़ालीन थे जिन पर फूलों व तस्वीरों का सिलसिला बना हुआ था। दूसरी तरफ़ काशग़र के बिने हुए ग़ालीचे, घोड़ों के रंगीन कम्बलों- मा’मूली घोड़ों और क़ीमती शरीफ़ जानवरों दोनों के लिए सस्ते व क़ीमती कम्बलों- के ढेर लगे थे।
ख़ोजा नसरुद्दीन अपने गधे पर सवार रेशम, ज़ीन, ज़िरह-बक्तर और रंगसाज़ोँ की क़तारों से होता हुआ ग़ुलामों के बाज़ार और ऊन कातनेवालों के अड्डे से गुज़रा।
यह बाज़ार की शुरूआत भर थी, क्योंकि आगे तरह-तरह की सैकड़ों क़तारें लगी हुयीं थीं। ख़ोजा नसरुद्दीन जितना ही भीड़ में घुसता, उतना ही शोर-ग़ुल, झगड़ा, चीख़-पुकार, लेन-देन की तू-तू मैं-मैं बढ़ती जाती। हां, यह बाज़ार था, बुख़ारे का लामिसाल और मशहूर बाज़ार, जैसा न दमिश्क में था, न बग़दाद में। आख़िर वह इन क़तारों के ख़त्म होने की जगह पहुंचा और सामने अमीर का महल देखा। उसके चारों तरफ़ तिरछे कटाव की ऊंची चहारदीवारी थी जिस में तोपों के लिए सूराख़ बने हुए थे और ऊपर मुंडेरे थे। चारों कोनों पर बड़ी होशियारी से चिकने पत्थर की पच्चीकारी की गयी थी। इस काम में अ’रबी और ईरानी कारीगरों नेबरसों लगाये थे।
महल के फाटक के बाहर एक रंग-बिरंगा ख़ेमा था। एक फटे हुए शामियाने के नीचे गर्मी से पस्त लोग बैठे या चटाइयों पर लेटे थे- कुछ अकेले, कुछ अपने ख़ानदानों के साथ। औरतें बच्चों को दूध पिला रही थीं, या बर्तनों में खाना पका रही थीं, या फटे हुए गद्दों व ख़िलअ’तों की मरम्मत कर रही थीं। अधनंगे बच्चें चिल्लाते, लड़ते-झगड़ते, गिरते-पड़ते दौड़ रहे थे। बेईज़्ज़ती के साथ वे अपने जिस्मों का वह हिस्सा जो पोशीदा रहता है महल की तरफ़ कर रहे थे। आदमी सो रहे थे या इधर-उधर खटपट कर रहे थे या चाय के बर्तनों के पास गिरोहों में बैठे बातचीत कर रहे थे।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने सोचाः अच्छा! ये लोग यहां कई दिन से रह रहे हैं।
ख़ोजा नसरुद्दीन की नज़र दो आदमियों पर पड़ी। इन में से एक गंजा था। दूसरे के दाढ़ी थी। अपने-अपने शामियानों के नीचे वे नंगी ज़मीन पर लेटे थे। एक सफ़ेद बकरा, जो इतना दुबला था कि उसकी पस्लियाँ खाल फाड़कर बाहर निकली पड़ती थी, दोनों के बीच चनार के एक खूंटे से बंधा था। दर्द भरी आवाज़ में में-में करता हुआ वह खूंटे पर मुंह मार रहा था। खूंटे को वह आधा खा भी चुका था। ख़ोजा नसरुद्दीन आ'दत से ही हर बात जानने के लिए उतावला रहता था। पूछने से बाज़ न आयाः अस्सलामोअलेकुम, बुख़ारा शरीफ़ के बाशिन्दों! मुझे बताएं कि आप इस ख़ानाबदोश जमाअत में कब से शरीक हुए?
ऐ मुसाफ़िर! दाढ़ीवाले ने जवाब दिया, हमारा मजाक़ मत उड़ा। हम ख़ानाबदोश नहीं बल्कि वैसे ही मुसलमान हैं, जैसा कि तू है।'
अगर आप अच्छे मुसलमान हैं, तो अपने घरों पर क्यों नहीं रहते? महल के फाटक पर किस के इंतिज़ार में पड़े है?
हम अपने आक़ाए नामदार बादशाह, जिस की रौशनी सूरज को भी ढंक लेती है, ऐसे अमीर के सही और नेक इंसाफ़ की इंतिज़ार कर रहे हैं।
ता'ने भरी आवाज़ में ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः अच्छा? आप अपने आक़ा-ए-वालाजाह, जिसकी रौशनी सूरज को भी ढंक लेती है, उस अमीर के सही और नेक इंसाफ़ का इंतिज़ार काफ़ी वक़्त से कर रहे हैं?
गंजे आदमी ने जवाब दिया, ऐ मुसाफ़िर! हम पांच हफ़्ते से ज़्यादा से इंतिज़ार कर रहे हैं। यह दढ़ियल झगड़ालू शख़्स- अल्लाह इसे सज़ा दे, शैतान अपनी दुम इस के बिस्तर पर फैलाये- यह दढ़ियल मेरा बड़ा भाई है। हमारे वालिद का इंतिक़ाल हुआ और वह हम लोगों के लिए कुछ जायदाद छोड़ गये। इस बकरे को छोड़ कर बाक़ी सब-कुछ हम ने बांट-चूंट लिया है। अब अमीर फ़ैसला करें कि यह बकरा किसे मिलना चाहिए।
लेकिन वह बाक़ी जायदाद कहां है जो आप लोगों को विरासत में मिली थी?हर चीज़ बेच कर हमने उसकी नक़्द क़ीमत इकट्ठी कर ली है। अर्ज़ी लिखनेवाले मुहर्रिरों, अर्ज़ीयां लेनेवाले अहलकारों, पहरेदारों व दूसरे बहुत से लोगों को भी तो पैसा देना होता है न।
गंजा आदमी यकायक उछल पड़ा और दौड़कर नंगेपांव व गंदगी भरे एक दरवेश को पकड़ लिया, जो एक नुकीली टोपी पहने था और बग़ल में काली तूबी लटकाये थे।
ऐ नेकरूह इन्सान! मेरे लिए दुआ करो! दुआ करो कि फ़ैसला मेरे मुआफ़िक़ हो!दरवेश ने रक़म ले ली और दुआ करनी शुरु की। जैसे ही इबादत के आख़िरी अल्फ़ाज़ उसने कहे, गंजे ने उसकी तूंबी में एक सिक्का और डाल दिया ताकि वह फिर से दुआ मांगे।
दाढ़ीवाला शख़्स परेशान होकर उठा और भीड़ पर नज़र दौड़ाने लगा। काफ़ी ढूंढने के बाद उसे एक दरवेश दिखायी दिया जो पहले वाले से भी ज़्यादा गंदा और फटेहाल था और इसीलिए ज़्यादा पाक था। इस दरवेश ने बहुत बड़ी रक़म मांगी। दाढ़ीवाला उस से मोल-भाव करना चाहता था। लेकिन, दरवेश ने अपनी टोपी के नीचे से टटोलकर मुट्ठीभर बड़े-बड़े जुएं निकाल दिये। अब दाढ़ीवाला उकी पाकीज़गी का क़ायल हो गया और मांगी हुई रक़म मंजूर कर ली। जीत की नज़र से अपने छोटे भाई की तरफ़ देखते हुए उसने रक़म गिन दी।
दरवेश दोज़ानू बैठकर ज़ोर-ज़ोर से दुआ मांगने लगा और उसकी ऊंची आवाज़ में पहले दरवेश की आवाज़ डूब गयी। गंजा परेशान होने लगा और उसने अपने दरवेश को कुछ सिक्के और दिये। दढ़ियल ने भी यही किया। दोनों दरवेश एक-दूसरे से बाज़ी मारने के लिए इतना हल्ला मचाने लगे कि ज़रुर अल्लाह ने फ़रिश्तों से बहिश्त की खिड़कियां बन्द कर लेने को कहा होगा ता कि इस शोर-ग़ुल से बहरे न हो जायें।
लकड़ी के खूंटे को कुतरता हुआ बकरा लगातार दर्द भरी आवाज़ में अब भी मिमिया रहा था। गंजे ने उसके सामने तिपतिया घास का आधा गट्ठर डाल दिया। दाढ़ीवाला चीखाःमेरे बकरे के सामने से हटा अपनी बदबूदार घास!लात से उसने घास हटा ही और भूसी का एक बर्तन उसके सामने रख दिया।
गंजा ग़ुस्से में चिल्लायाः नहीं नहीं! मेरा बकरा तुम्हारी भूसी नहीं खायेगा!
भूसी का बर्तन भी घास के पास जा पड़ा। बर्तन गिर कर फूट गया। भूसी सड़क की धूल में मिल गयी। दोनों भाई ग़ुस्से में एक-दूसरे से गुंथे हुए थे। एक-दूसरे पर वे गालियों व घूंसो की बौछार कर रहे थे और ज़मीन पर लौट रहे थे।ख़ोजा नसरुद्दीन ने सिर हिलाते हुए कहाः दो बेवक़ूफ़ लड़ रहे हैं! दो ठग दुआ मांग रहे हैं! इस बीच बकरा भूख से मर चुका है! ऐ नेक और आपसी मुहब्बतवाले भाइयो! ज़रा इधर तो देखो! अल्लाह ने तुम से बकरा छीनकर अपने तरीक़े से तुम्हारा झगड़ा निपटा दिया है!
भाइयों को अक़्ल आयी। एक-दूसरे से अलग हुए। ख़ून से लथपथ चेहरों से देर तक वे मरे बकरे को ताकते रहे।
आख़िर गंजा भाई बोलाःइसका चमड़ा निकाल लेना चाहिए।
दाढ़ीवाला फ़ौरन बोलाः खाल मैं निकालूंगा!
दूसरे ने कहाः तुम क्यों निकालोगे? ग़ुस्से से उसकी गंजी खोपड़ी लाल पड़ गयी थी।बकरा मेरा है और खाल भी मेरी है।तेरी नहीं, मेरी है!
इस से पहले कि ख़ोजा नसरुद्दीन कुछ कह पाये, दोनों भाई फिर फुफकारते हुए एक-दूसरे से गुंथकर ज़मीन पर लोटने लगे। एक लम्हे तक एक भाई की मुट्ठी में काले बालों का गुच्छा दिखायी दिया। ख़ोजा नसरुद्दीन ने अन्दाज़ लगाया कि बड़े भाई की दाढ़ी का अच्छा ख़ासा हिस्सा नुच गया है। नाउमीदी से सिर हिलाकर वह आगे बढ़ गया है।
अपनी पेटी में एक चिमटा खोंसे उसे एक लुहार आता दिखायी दिया। यह वही लुहार था जिसने एक दिन पहले तालाब के किनारे ख़ोजा नसरुद्दीन से बातचीत की थी।
ख़ुशी से ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्लायाः लुहार भाई! लुहार भाई! सलाम! हम फिर मिल गये, हालांकि मैं अब तक अपना क़ौल पूरा नहीं कर पाया हूं। तुम यहां क्या कर रहे हो? क्या तुम भी अमीर से इंसाफ़ मांगने आये हो?
ग़मगीन आवाज़ में कुम्हार बोलाः ऐसे इंसाफ़ से क्या फ़ायदा? मैं लुहारों की क़तार में एक शिकायत लेकर आया हूं। हमें पन्द्रह सिपाही मिले हैं, जिन्हें तीन महीने तक खिलाने की ज़िम्मेदारी हम पर थी। एक साल गुज़र चुका है। वे अब भी हमारे सिर पर सवार है। इस से हमें बड़ा नुक़सान हो रहा है।
और मैं रंगरेज़ोँ की गली से आया हूं, एक दूसरा आदमी बोल उठा। उसके हाथों पर रंगों के दाग़ थे। हर रोज़ सवेरे से शाम तक ज़हरीला धुंआ सूंघते-सूंघते उसका चेहरा हरे रंग का हो गया था। मैं भी ऐसी ही शिकायत लेकर आया हूं। हमें पच्चीस सिपाही खिलाने को मिले हैं। हमारा कारोबार चौपट हो गया और मुनाफ़ा घट गया है। शायद अमीर हमारे ऊपर रहम करें। शायद हमें इस बोझ से छुटकारा दिला दें।
ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः तुम लोगों को बेचारे सिपाही इतने नापसन्द क्यों हैं? वे बुख़ारा के सबसे ज़्यादा ख़ून और लालची बाशिन्दे तो हैं नही। तुम अमीर, वज़ीर और अफ़सरों को पालते हो। दो हज़ार मुल्लाओं और छः हज़ार दरवेशों को खिलाते-पिलाते हो। फिर बेचारे सिपाही ही क्यों भूखे रहें? क्या तुमने यह कहावत नहीं सुनीः जहां एक सियार को खाना मिलता है, वहीं फ़ौरन दस सियार आ जमा’ होते हैं। ऐ लुहार और रंगरेज़ भाई! तुम्हारी नाराज़ी मेरी समझ में नहीं आयी।
इतने ज़ोर से न बोलो। चारों तरफ़ देखते हुए लुहार बोला।
रंगरेज़ ख़ोजा नसरुद्दीन की तरफ़ तम्बीह की नज़र से देखते हुए बोलाः
ऐ मुसाफ़िर! तुम ख़तरनाक आदमी हो और तुम्हारी बात में नेकी नहीं है। हमारे अमीर तो बड़े दानिशमन्द और फ़य्याज़…
उसने बात अधूरी ही छोड़ दी, क्योंकि तभी ढोल और तुरही बजने की आवाज़ें आने लगीं। महल के पीतल जड़े फाटक धीरे-धीरे खुलने लगे और पूरे खे़मे में एकदम चहल-पहल मच गयी।
हर तरफ़ से अमीर! अमीर! की आवाज़ें आने लगीं। महल की तरफ़ बढ़कर लोग भीड़ लगाने लगे ताकि अपने शाह की शक्ल देख सकें। ख़ोजा नसरुद्दीन ने आगे की क़तार में एक सहूलियत की जगह तलाश कर ली।
फाटक से सबसे पहले नक़ीब दौड़ते हुए निकले। वे चिल्ला रहे थेः अमीर के लिए रास्ता ख़ाली करो। आ’ला हज़रत अमीर के लिए रास्ता ख़ाली करो! अमीरुल मोमनीन मुसलमानों के रहबर के लिए जगह ख़ाली करो!
इनके पीछे सिपाही निकले जो अपनी लाठियों से दाहिने-बायें उन लोगों के सिरों व पीठों पर चोट कर रहे थे जो बदक़िस्मती से फाटक के बिल्कुल पास आकर जमा’ हो गये थे। भीड़ में एक चौड़ा रास्ता बन गया। ढोल, बांसुरी तंबूरे और कराने लिये मीरासी निकले। उनके पीछे क़ीमती जवाहरात जड़ी मख़मली म्यानों में तलवारें लटकाये, सुनहरे काम के रेशमी कपड़े पहने, नौकर-चाकर आये। फिर ऊंची कलंगियों से सजे दो हाथी निकले। सबसे आख़िर में बहुत सज़ावटदार एक गाड़ी आयी। इसमें ज़री के चंदोवे के भीतर ख़ुद अज़ीम अमीर आराम से लेटे हुए थे।
यह नज़ारा देखते ही भीड़ में एक दबी-दबी सी फुसफुसाहट उठी, मानो बाज़ार में हवा का एक झोंका आ गया हो, और अमीर के हुक्म के मुताबिक़ सब लोग ज़मीन पर लेट गये। अमीर का हुक्म थाः सब वफ़ादार रेआ'या आजिज़ी से पेश आये और कभी ऊंची नज़र कर के न देखे। दौड़-दौड़कर नौकर सवारी के सामने क़ालीन बिछा रहे थे। गाड़ी के एक तरफ़ महल का पंखा झलनेवाला अपने कंधे पर घोड़े की दुम के बालों का चंवर रखे चल रहा था। दूसरी तरफ़ अमीर का हुक़्क़ेवाला था जो बहुत संजीदगी और अहमियत से सोने का तुर्की हुक़्क़ा लिए साथ-साथ चल रहा था।
जुलूस में सबसे पीछे पीतल की टोपियां पहने, ढाल, भाले, कमानें और नंगी तलवारें लिए सिपाही चल रहे थे। सबसे पीछे थीं दो छोटी तोपें। सोने और चांदी के ज़ेवर चमचमा रहे थे। पीतल के टोप और ढालें चमचम कर रही थीं। नंगी तलवारों के सफ़ेद हिस्से चकाचौंध फैला रहे थे... लेकिन ज़मीन पर लेटी भीड़ में न जवाहरात दमक रहे थे, न चाँदी, न सोना- तांबा तक नहीं। सूरज की रौशनी में चमककर दिल ख़ुश करने के लिए वहां कुछ भी नहीं था। वहां थी बस भूख, ग़रीबी और फटे चीथड़े। और अमीर का शानदार जुलूस जब गन्दे, जाहिल, दबे- पिसे और फटेहाल लोगों के समुंदर के बीच से गुज़रा, तो ऐसा लग रहा था मानो किसी गन्दे चीथड़े में सोने का पतला डोरा डाल दिया गया हो।
ऊंचे क़ालीनदार तख़्त के चारों तरफ़- जहां बैठकर अमीर अपने वफ़ादार लोगों पर मेहरबानियां करनेवाले थे- पहले से ही पहरेदार तअ'ईनात थे। सज़ा देने वाले जल्लाद सामने की जगह अमीर का हुक्म ता'मील करने की तय्यारियां कर रहे थे। बेतों की लचक और डंडों की मज़बूती आज़मायी जा रही थी। कई आदमी नांदों में कच्ची खाल के दुमवाले चाबुक भिगो रहे थे, फ़ाँन्सियां खड़ी कर रहे थे, कुल्हाड़ियां तेज़ कर रहे थे और ज़मीन में सूलियां गाड़ रहे थे। जल्लादों का अफ़सर महल के पहरेदारों का अफ़सर था। इसका नाम था अर्सलां बेग। अपनी बेरहमी के लिए वह बुख़ारा से बाहर दूर तक बदनाम था। वह काले बालों और मोटे जिस्मवाला ख़ूबसूरत शख़्स था। उसकी दाढ़ी उसका सीना ढके हुए थी और उसके पेट तक पहुंच रही थी। उसकी आवाज़ ऊंट की बलबलाहट जैसी थी।दिल खोल कर लोगों पर लात घूंसों की बौछार करने के बाद वह एकाएक झुक गया और आजिज़ी से उसका बदन कांपने लगा।
धीरे-धीरे हिलती-डुलती सवारी तख़्त पर चढ़ी और अमीर ने चंदोवे के पर्दे हटाकर अपनी सूरत लोगों को दिखायी।
।। 10 ।।
आख़िर अमीर उतने ख़ूबसूरत साबित न हुए, जितनी कि शोहरत थी। उनका चेहरा, दरबार के शायर जिसकी मिसाल हमेशा पूरे चांद की चमक से देते थे, ज़रुरत से ज़्यादा पके, फदफदे, खरबूज़े से मिलता था। वज़ीरों के सहारे वह सवारी से उतरे और सोने से मढ़े सिंहासन पर जा बैठे।ख़ोजा नसरुद्दीन ने देखा कि दरबारी शायरों के कहने के मुआफ़िक़ उनका जिस्म नाज़ुक दरख़्त की पतली शाख की तरह हरगिज़ नहीं था। उनका बदन मोटा और भारी था। बाहें छोटी थीं। पैर इतने टेढ़े थे कि ख़िलअ’त भी उनके बदनुमापन को नहीं छिपा पाती थी।
वज़ीर उनकी दाहिनी तरफ़ खड़े हुए और मुल्ला व अफ़सर बायीं तरफ़। मुहर्रिर अपनी बहियां और दा’वातें लिए नीचे की ओर बैठे। तख़्त के पीछे आधा दायरा बनाकर दरबारी शायर खड़े हो गये और अमीर की गर्दन पर बड़ी पाकीज़गी से ताकने लगे। चंवर डुलानेवाला चंवर डुलाने लगा। हुक़्क़े-वाले ने सोने की निगाली अपने मालिक के होठों के बीच रख दी। तख़्त के चारों तरफ़ की भीड़ सांस रोके खड़ी थी। ख़ोजा नसरुद्दीन रकाबों पर ऊंचा उठ गया, गर्दन आगे बढ़ायी और कान लगाकर सुनने लगा।नींद में भरे अमीर ने सिर हिलाया। पहरेदारों ने बीच में जगह की और गंजे व दढ़ियल भाई, जो आख़िरकार मौ'क़ा पा ही गये थे, आगे बढ़े। वे घुटनों के बल घिसटकर तख़्त तक पहुंचे और ज़मीन तक लटकते हुए क़ालीन को उन्होंने चूमा।
वज़ीर-ए-आ’ज़म बख़्तियार ने हुक्म दियाः उठो!
दोनों भाई उठ खड़े हुए। अपनी ख़िलअ’तों से धूल झाड़ने की उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी। डर के मारे उनकी ज़बान बन्द थी और उनकी आवाज़ मिमिया रही थी। उनकी बोली समझ में नहीं आ रही थी। तजरबेकार वज़ीर बख़्तियार ने एक नज़र में ही सारी बात समझ ली।
बेचैनी से उन दोनों भाइयों को टोक कर उनसे पूछाः तुम्हारा बकरा कहां है?
गंजे भाई ने जवाब दियाः ऐ खानदानी वज़ीर! वह मर गया। अल्लाह ने उसे अपने पास बुला लिया। लेकिन उसका चमड़ा हम में से किसे मिलेगा?बख़्तियार अमीर की तरफ़ मुड़ा।
ऐ शाहों में सबसे अक़्लमंद अमीर! क्या फ़ैसला होगा?
अमीर ने जम्हाई ली और बिल्कुल लापरवाही से आंखें बन्द कर लीं। बख़्तियार ने बड़ी आजिज़ी से सफ़ेद साफ़े के साथ अपना सिर झुकाया।
मेरे मालिक ! फ़ैसला आपके चेहरे से ज़ाहिर है! भाइयों की तरफ़ मुड़कर वह बोलाः सुनो!
दोनो भाई घुटनों के बल बैठ गये। वे अमीर के रहम, इंसाफ़ और दानिशमन्दी के लिए उनका शुक्रिया अदा करने के तैयार थे। बख़्तियार ने फ़ैसला सुनाया और मुहर्रिर बड़े-बड़े रजिस्टरों में उसे लिखते हुए क़लमें घसीटने लगे।
अमीरुल मोमनीन और आफ़ताब-ए-आलम हमारे अमीर-ए-आज़म ने- अल्लाह का करम उन पर रहे- फ़ैसला करने की मेहरबानी की है कि अगर बकरा अल्लाह के पास चला गया है तो इंसाफ़ कहता है कि उस का चमड़ा इस दुनिया में अल्लाह के जानशीन ख़लीफ़ा यानी ख़ुद अमीर-ए-आज़म के पास जाय। इसलिए बकरे की खाल निकाली जायगी, उसे सुखाया और कमाया जायगा और महल में लाकर शाही ख़ज़ाने में जमा’ कर दिया जायगा!
भाइयों ने घबड़ाकर एक-दूसरे की तरफ़ देखा। वहां मौजूद भीड़ में हलकी भनभनाहट छा गयी। बख़्तियार साफ़ और ऊंची आवाज़ में कहता गयाः
इसके अलावा फ़रियादियों को दो सौ तंके क़ानूनी क़ीमत, डेढ़ सौ तंके महल टैक्स और पचास तंके मुहर्रिरों के ख़र्च की मदों में देने होंगे और मस्जिदों की अराइश के लिए अ’तिया अदा करना होगा। यह सब नक़्द, कपड़ों या दूसरी जायदाद की शक्ल में फ़ौरन वसूल किया जाय।
उसने बोलना ख़त्म ही किया था कि अर्सलां बेग के इशारे पर सिपाही उन दोनों भाइयों पर टूट पड़े, उनके पटके खोल डाले, उनकी जेबें ख़ाली कर लीं, ख़िलअ’तें फाड़ डालीं, जूते उतार लिए और उन्हें अधनंगा करके नंगे पांव खदेड़ दिया।
पूरे मुआ’मले में मुश्किल से एक मिनट लगा होगा। फ़ैसला सुनाये जाते ही दरबारी आलिमों और शायरों ने तरीफ़ में क़सीदे पढ़ने शुरु कर दियेः
ए दानिशमन्द अमीर ! ऐ दानाओं के दाना! दानाओं की दानाई से दाना अमीर! ए दानाओं में सबसे बड़े दाना अमीर! बड़ी देर तक वे इसी तरह गाते रहे- अपनी गर्दनें तख़्त की ओर बढ़ाये हुए। हर एक इस कोशिश में था कि उसकी आवाज़ अमीर सुन ले और दूसरें की आवाज़ न सुने। इस बीच तख़्त के चारों तरफ़ जमाट भीड़ चुपचाप दोनों भाइयों पर रहम की निगाह डाले देखती खड़ी रही।
उन दोनों भाइयों से, जो एक-दूसरे के गले में बाहें डाले ज़ोर-ज़ोर से रो रहे थे, ख़ोजा नसरुद्दीन बड़ी नेक आवाज़ में बोलाः कोई फ़िक्र नहीं दोस्तो। आख़िर बाज़ार में छः हफ़्ते बैठकर तुम लोगों ने वक़्त ख़राब नहीं किया। तुम लोगों को ठीक और बारहम फ़ैसला मिला है- क्योंकि हर एक जानता है कि सारी दुनिया में हमारे अमीर से ज़्यादा मेहरबान और दानिशमन्द दूसरा कोई शख़्स नहीं है। अगर कोई इस बात में शक करता है… इतना कह कर उसने अपने पड़ोस में खड़े लोगों की ओर देखा, तो सिपाही बुलाने में देर न लगेगी। और वे ? अरे, वे उस नापाक दहरिये को जल्लादों के सुपुर्द कर देंगे और जल्लाद बहुत आसानी से उसकी ग़लती उसे समझा देंगे। ऐ दोनो भाइयो! अमन के साथ घर जाओ। अगर आगे कभी किसी मुर्ग़े के बारे में तुम्हारा झगड़ा हो तो फिर अमीर की अदालत में आना। लेकिन आने से पहले इस बार अपने खेत, मकान, और अंगूर के बाग़ीचे बेचना न भूलना, वर्ना तुम लोग टैक्स न अदा कर पायोगे। और, इसका मतलब होगा अमीर के खज़ाने को टोटा, जिसका ख़याल भी वफ़ादार रेआ’या की बर्दाश्त के बाहर होना चाहिए।
आठ-आठ आंसू रोते हुए दोनों भाई बोलेः इस से तो बेहतर होता कि बकरे के साथ हम लोग भी मर जाते। ख़ोजा नसरुद्दीन ने पूछा, क्या तुम समझते हो कि बहिश्त में काफ़ी बेवक़ूफ़ लोग नहीं हैं? मो’तबर आदमियों ने मुझे बताया है कि आजकल जन्नत और दोज़ख़, दोनों जगह, बेवक़ूफ़ भरे पड़े हैं और वहाँ और ज़्यादा बेवक़ूफ़ों के लिए गुंजाइश नहीं है। भाइयों, मुझे साफ़ नज़र आता है कि तुम लोगों के लिए
मौत लिखी ही नहीं है... और अब यहां से रफ़ू चक्कर होने में देर न करो, क्योंकि सिपाही इधर ही देखने लगे हैं और तुम्हारी तरह अमर होने का दा’वा मैं अपने लिए नहीं कर सकता।
ज़ोर-ज़ोर से रोते, अपना मुंह नोचते, अपने सिरों पर सड़क की पीली धूल मलते, दोनों भाई वहां से चल दिये।
अब लुहार अमीर के सामने पाया। उसने चिड़चिड़ा और भर्रायी आवाज़ में अपनी शिकायत सुनायी। वज़ीरर-ए-आज़म बख़्तियार अमीर की तरफ़ मुड़ाः
मालिक ! आपका क्या फ़ैसला है?
अमीर सो रहे थे और अपने खुले मुंह से हल्के ख़र्राटे ले रहे थे। बख़्तियार शरमाया नहीं।
मालिक! फ़ैसला मैं आपके पुरजलाल चेहरे से पढ़ रहा हूं।
संजीदगी से उसने ऐलान कियाः
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम! रहम दिल और मेहरबान अल्लाह के नाम पर, मुसलमानों के रहनुमा और हमारे मालिक ने अपनी रेआ’या की लगातार फ़िक्र करने में, अपनी ख़िदमत में लगे वफ़ादार सिपाहियों को रखने और खिलाने-पिलाने की इज़्ज़त बख़्शकर रेआ’या पर बड़ी मेहरबानी की है। बुख़ारा शरीफ़ के बाशिन्दों को यह रिआ’यत देकर उन्होंने हर दिन और हर घंटे उन्हें अपने अमीर का एहसान मानने का शानदार मौक़ा दिया है। ऐसी इज़्ज़त हमारे पड़ोस के और मुल्कों के बाशिन्दों को नहीं बख़्शी गयी है। इस सब के बावजूद लुहारों ने भलमनसाहत व पाकीज़गी में कोई नाम नहीं कमाया। इसके बदले यूसुफ़ लुहार ने गुनाह करने वालों के लिए वालों का बना पुल व दूसरी दुनिया की तकलीफ़ भूलकर एहसान फ़रामोशी में ज़बान खोलने की गुस्ताख़ी की है। इसके अ’लावा उसने हमारे मालिक और रहनुमा आक़ा अमीर वालाजाह, जिनकी रौशनी सूरज को भी ढंक लेती है, उनके क़दमों में यह शिकायत पेश करने की गुस्ताख़ी की है।
इसलिए हमारे अमीर वालाजाह ने बहुत मेहरबानी करके इस फ़ैसले का ऐलान किया हैः यूसुफ़ लुहार को दो-सौ कोड़े लगाये जायें। बेशक इससे उसे पछतावा होगा जिसके बिना जन्नत के फाटक खुलने के लिए वह बेकार इंतिज़ार करता था। जहां तक लुहार टोले का तअ’ल्लुक़ है... अमीर वालाजाह उन पर फिर से सिपाही रखने और खिलाने-पिलाने की ज़िम्मेदारी डालने की मेहरबानी करते हैं और हुक्म देते हैं कि बीस सिपाही वहां और भेज दिये जायें। अब वे हर घंटे और हर दिन अपने अमीर के करम और दानिशमन्दी की तरीफ़ करने के बढ़िया मौक़े से महरूम न रहेंगे। यही उनका फ़ैसला है। अल्लाह उन्हें लम्बी ज़िन्दगी
दे, ताकि उनकी वफ़ादार रेआ’या की भलाई हो सके।
दरबारी चापलूसों का गीत एकदम फिर शुरु हो गया और अमीर की तरीफ़ेँ गायी जाने लगीं। इस बीच सिपाहियों ने यूसुफ़ लुहार को पकड़ लिया और जल्लादों के पास ले गये। डरावने ढंग से हंसते हुए जल्लाद वहां पहले से ही अपने भारी कोड़ों का वज़न आज़मा रहे थे। लुहार पेट के बल चटाई पर लेट गया। हवा में कोड़ा सनसनाया और नीचे को गिरा। लुहार की पीठ से ख़ून से रंग गयी।
जल्लाद उसे बेरहमी से पीटते रहे। उसकी खाल के उन्होंने चीथड़े उड़ा दिये। गोश्त और हड्डी तक को काट डाला। लेकिन लुहार न तो कराहा, न चीख़ा। वह जब उठा तो उस के होठों पर काला फेन बह रहा था। सज़ा पाते वक़्त अपने दांत उसने ज़मीन में गड़ा दिये थे, ताकि चीख़े-चिल्लाये नहीं।
ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः नहीं! लुहार यह आसानी से नहीं भूलेगा। मरते वक़्त तक वह अमीर की मेहरबानियां याद रखेगा। रंगसाज! तुम किस बात का इंतिज़ार कर रहे हो? जाओ, जाओ, अब तुम्हारी बारी है।
रंगरज़ ने एक बार थूका। फिर, बिना पीछे देखे, भीड़ चीरकर निकल भागा।
वज़ीर-ए-आज़म ने दूसरे मुआ’मले भी निपटाये और हर मुआ’मले में अमीर के खज़ाने के लिए मुनाफ़ा कमाना न भूला। इसी सिफ़त की वजह से वह दूसरे अफ़सरों से ज़्यादा कामयाब था। जल्लाद बिना दम लिये बराबर काम कर रहे थे। उनकी तरफ़ से चीख़ेँ और चिल्लाहट आ रही थीं। वज़ीर-ए-आज़म ने जल्लादों के पास कई नये गुनगाहरों को भेजा। एक लम्बी क़तार वहां इंतिज़ार कर रही थी। इसमें बूढ़े आदमी थे, औरतें थीं और दस साल का एक बच्चा था जिसे अमीर के महल के सामने की ज़मीन को बग़ावतन गीली कर देने के जुर्म में सज़ा मिली थी। वह रो रहा था और कांप रहा और चेहरे पर आंसू मल रहा था। उसे देख कर ख़ोजा नसरुद्दीन का दिल ग़ुस्से और रहम से भर उठा।
वह जोस रे बोलाः वाक़ई यह लड़का बड़ा ख़तरनाक मुजरिम है। ऐसे दुश्मनों से अपने तख़्त की हिफ़ाजत करने में अमीर की दूरंदेशी की जितनी तारीफ़ की जाय थोड़ी है। ऐसे लोग ज़्यादा ख़रतनाक हैं क्योंकि वे ख़तरनाक साबित होने वाले ख़यालों को कमसिनी में छिपाये रहते हैं। आज ही मैं ने एक और मुजरिम देखा जो इससे भी ज़्यादा बुरा और ख़तरनाक था। यह दूसरा मुजरिम- आप यक़ीन नहीं मानेंगे- पहले से भी ज़्यादा ग़लत काम कर रहा था और वह भी महल की दीवाल के ठीक नीचे। ऐसी गुस्ताख़ी के लिए जो भी सज़ा दी जाती, कम थी। उसे तो सूली पर चढ़ा देना चाहिए था, हालांकि मुझे डर है कि सूली उसके आरपार वैसे ही गुज़र जाती जैसे सीख़चा चूज़े में होकर गुज़र जाता है, क्योंकि यह लड़का सिर्फ़ चार साल का था। ख़ैर, जैसा कि मैं ने कहा, उस की उम्र कोई बहाना नहीं है। हमारे बुख़ारे में ख़तरनाक बुराइयों ने किस क़दर अपने घोंसले बना लिये हैं, यह देख कर ही मेरा दिल उदासी से भर उठता है। तब भी हमें यक़ीन है कि अमीर के सिपाहियों और जल्लादों की मदद से सब बुराइयां जल्दी ही दूर की जा सकेंगी और उनकी जगह नेकी ले लेगी। ख़ोजा नसरुद्दीन वैसे ही बोल रहा था जैसे मुल्ला नसीहत देता है। उस की आवाज़ और अल्फ़ाज़ दोनों ही ऊपर सेठीक मा’लूम होते थे। पर, जिनके कान थे वे सुन और समझ रहे थे और अपनी दाढ़ियों में कड़ावहट भरी मुस्कान छिपा रहे थे।
।। 11 ।।
यकायक ख़ोजा नसरुद्दीन ने देखा कि भीड़ छंट गयी है। बहुत से लोग जल्दी से खिसक गये है और कुछ तो भाग भी रहे हैं।
बेचैनी से उसने सोचाः कहीं सिपाही मेरे लिए तो नहीं बढ़े आ रहे?
जब उसने पास आते सूदख़ोर को देखा तो वह फ़ौरन समझ गया। उसके पीछे सिपाहियों से घिरा, मट्टी से सनी ख़िलअ’त पहने, एक दुबला-पतला सफ़ेद दाढ़ीवाला बूढ़ा आ रहा था और उसके साथ बुर्क़ा ओढ़े एक औरत- या जैसा कि ख़ोजा नसरुद्दीन की तजरबेकार आंखों ने उसकी चाल से भांप लिया, एक जवान लड़की।
अपनी एक आंख से लोगों को ताकते हुए सूदख़ोर टर्रायाः ज़ाकिर, जूरा, सईद और सादिक़ कहां है? उसकी दूसरी आंख बन्द थी। वह हिल-डुल भी नहीं रही थी। उस पर सफ़ेद जाला छाया हुआ था। अभी तो वे यहीं थे। मैं ने दूर से उन्हें देखा भी था। उनके क़र्ज़ अधा करने का वक़्त आ रहा है। उनका भागकर छिपना बेकार है।
अपने कूबड़ के बोझ से लंगड़ाता हुआ आगे बढ़ा। लोग आपस में बातें करने लगे।
देखो तो यह बूढ़ा मकड़ा नयाज़ कुम्हार और उसकी बेटी को अमीर के सामने खींच लाया है।
बेचारे कुम्हार को उसने एक दिन की भी मोहलत न दी।
ख़ुदा उसे ग़ारत करे! मुझे भी एक पखवारे बाद अपना क़र्ज़ अदा करना है।
मेरा तो एक हफ़्ते बाद ही अदा होना है।
देखा न तुमने ? जब वह आता है तो लोग कैसे भागकर छिप जाते हैं- मानो वह हैज़ा या कोढ़ लेकर आ रहा हो।
सूदख़ोर तो कोढ़ी से भी बदतर है।
ख़ोजा नसरुद्दीन का दिल अफ़्सोस से मसोस उठा। उसने अपनी क़सम दोहरायीः
मैं इस को उसी तालाब में डुबोकर दम लूंगा।
अर्सलां बेग ने सूदख़ोर को अपनी बारी से पहले ही आ जाने दिया। उसके पीछे कुम्हार और उसकी बेटी आयी। वे घुटनों के बल गिर पड़े और क़ालीन के कोने को चूमने लगे।
वज़ीर-ए-आज़म ने ख़ुशमिजाज़ी से कहाः ऐ दानिशमन्द जाफ़र! अस्सलामोअलैकुम! कहो, किस काम से आये हो? अमीर-ए-आज़म से अब अपनी बात कहो।
जाफ़र ने अमीर की तरफ़ मुख़ातिब होकर कहना शुरु किया। लेकिन अमीर एक बार सिर हिलाकर फिर ख़र्राटे भरने लगा। ऐ शाहंशाह-ए-आज़म! ऐ मेरे आक़ा! मैं आप से इंसाफ़ मांगने आया हूं। यह शख़्स जिसका नाम नियाज़ है और जिस का पेशा कुम्हागीरी है, मेरे सौ तंके चाहता है और उन पर तीन सौ रुपये का सूद है। क़र्ज़ आज सबेरे अदा होना था। लेकिन कुम्हार ने अभी तक मुझे कुछ नहीं दिया। ऐ दुनिया के सूरज !ऐ दानिशमन्द अमीर! मुझे इंसाफ़ चाहिए!
मुहर्रिर ने सूदख़ोर की शिकायत खाते में दर्ज की। वज़ीर कुम्हार की तरफ़ मुड़ाः कुम्हार! अमीर-ए-आज़म को जवाब दो! तुम यह क़र्ज़ क़ुबूल करते हो? शायद दिन और घंटों पर तुम्हें ऐतराज़ हो?
कुम्हार ने दबी आवाज़ में जवाब दियाः नहीं, नहीं! ऐ सबसे ज़्यादा इंसाफ़पसन्द और अक़्ल-मंद वज़ीर! मैं किसी बात पर एतराज़ नहीं करता- न क़र्ज़ पर, न दिन पर, न घंटों पर। मैं सिर्फ़ क महीने की मोहलत चाहता हूं। अपने अमीर के रहम और फ़य्याज़ी की मैं भीख मांगता हूं।
बख़्तियार बोलाः मालिक! मुझे वह फ़ैसला सुनाने की इजाज़त दें, जो मैं ने आपके चेहरे पर पढ़ा है। मेहरबान और रहमदिल अल्लाह के नाम पर फैसलाः कानून के मुताबिक़ जो वक़्त पर अपना क़र्ज़ अदा नहीं करता वह अपने ख़ानदान के समेत क़र्ज़ देनेवाले का ग़ुलाम हो जाता है और तब तक ग़ुलामी में रहता है, जब तक वह पूरे वक़्त के, ग़ुलाम के वक़्त के भी, सूद के साथ क़र्ज़ नहीं चुका देता।
कुम्हार का सिर नीचे झुक गया और वह कांपने लगा। भीड़ में बहुत लोगों ने गहरी सांसें भरीं। छिपाने के लिए उन्होंने अपने मुंह मोड़ लिए। लड़की के कंधे कांपने लगे। वह बुरक़े के भीतर सिसकियां भर रही थी। ख़ोजा नसरुद्दीन ने मन ही मन सौ-वीं बार दोहरायाः
ग़रीबों को सतानेवाला यह बेरहम शख़्स डूब कर ही मरेगा।
बख़्तियार अपनी आवाज़ ऊंची करता हुआ बोलाः लेकिन हमारे मालिक की फ़य्याज़ी और रहमदिली की कोई हद नहीं है।
भीड़ में सन्नाटा छा गया। बूढ़े कुम्हार ने सिर उठाया और उमीद से उसका चेहरा चमक उठा।
हालांकि क़र्ज़ अभी अदा होना है, लेकिन नियाज़ कुम्हार को मोहलत दी जाती है- एक घंटे को मोहलत। अगर इस एक घंटे के ख़त्म होने तक नियाज़ कुम्हार सूद के साथ क़र्ज़ अदा कर दे और इस तरह इस्लाम के उसूलों की तौहीन करे तो, जैसा कि कहा जा चुका है, कानून लागू होगा। कुम्हारा अब जा सकता है। अमीर की रहमत उस पर बरक़रार रहे।
बख़्तियार चुप हुआ और चापूलस तख़्त के पीछे इकट्ठे होकर मक्खियों की तरह भनभनाने लगेः ऐ इंसाफ़पसन्द अमीर! ऐ दानिशमन्द और मेहरबान अमीर! ऐ फ़य्याज़ अमीर! ऐ इस दुनिया की ज़ीनत और आसमान की अज़मत हाकिम आदिल अमीर!
इस बार चापलूसों ने इतने ज़ोर से और एक-दूसरे से बढ़ चढ़ कर अमीर की तरीफ़ गायी कि अमीर की नींद खुल गयी और उन्होंने ज़ाहिर हो कर इन लोगों से मुंह बन्द करने को कहा। वे ख़ामोश हो गये। मैदान में इकट्ठे लोग भी ख़ामोश थे। यकायक कान के पर्दे फाड़नेवाली रेंक ने सन्नाटा तोड़ दिया।
यह गधा ख़ोजा नसरुद्दीन का ही था। या तो वह एक जगह खड़ा-खड़ा थक गया था या उसे लम्बे कानों वाला अपना कोई भाई-बन्द दिखायी पड़ गया था जिस का वह इस्तिक़बाल कर रहा था। असलियत यह है कि वह दुम उठाकर, थूथनी आगे बढ़ाकर, अपने पीले दांत दिखाता हुआ बड़े ज़ोर से रेंका। बहरा बना देनेवाली ऐसी आवाज़ में रेंका, जिस पर कोई क़ाबू न था। अगर वह एक लमहे के लिए चुप भी होता तो सिर्फ़ सांस लेने के लिए। फ़ौरन बाद ही वह फिर अपने जबड़े और ज़्यादा खोलता और भी ज़्यादा ज़ोर से रेंकने लगा। अमीर ने अपने कान बन्द कर लिये। सिपाही भीड़ पर टूट पड़े। लेकिन तब तक ख़ोजा नसरुद्दीन दूर निकल चुका था। वह अपने अड़ियल गधे को घसीटता जाता और ज़ोर-ज़ोर से उसे बुरा-भला कहता जाताः
अबे गधे! ला’नत है तुझ पर! तू इतना ख़ुश किस बात पर है? क्या तू अमीर की रहमत और फ़य्याज़ी की तरीफ़ इतना शोर-ग़ुल मचाये बिना नहीं कर सकता? शायद तू इन कोशिशों से दरबार का ख़ास चापलूस बनने की उमीद कर रहा है!
उसकी बातों पर भीड़ ठहाका मारकर हंस पड़ती और उसके लिए जगह कर देती। उसके जाते ही जगह फिर भर जाती और सिपाही उस के पास न पहुंच पाते। अगर वे ख़ोजा नसरुद्दीन को पकड़ लेते तो इस गुस्ताख़ी से अमन में ख़लल डालने के लिए उसके कोड़े लगाते और उसका गधा ज़ब्त कर लेते।
।। 12 ।।
जहां इंसाफ़ हो रहा था वह जगह छोड़ कर सूदख़ोर जाफ़र, नियाज़ कुम्हार और उसकी बेटी गुलजान जब आगे बढे तो जाफ़र कहने लगाः ऐ मेरी हसीना! फ़ैसला हो चुका है और अब तुम पूरी तरह मेरे क़ब्जे में हो! जब से धोके से एक बार तुम्हें देख लिया है, मेरे दिल और दिमाग़ को चैन नहीं है। मैं सो नहीं सकता। मुझे जल्दी अपना मुखड़ा दिखा दो। आज ठीक एक घंटे के बाद तुम मेरे घर में दाख़िल होगी। अगर तुम मुझ से नर्मी से बरताव करोगी तो मैं तुम्हारे वालिद को हल्का काम और बढ़िया खाना दूंगा, पर अगर तुम ने ज़िद की तो मैं अपनी आंखों की रौशनी की क़सम खाकर कहता हूं कि मैं उसे कच्ची फलियां खाने को दूंगा, उससे पत्थर ढुलवाऊंगा और उसे ख़ीवा में बेच दूंगा और तुम तो जानती ही हो कि ख़ीवा के लोग अपने ग़ुलामों के साथ बहुत बेरहमी का बरताव करते हैं। तुम ज़िद न करो, प्यारी गुलजान! मुझे अपना चेहरा दिखा दो!
उसकी टेढ़ी-मेढ़ी पुर-हवस उंगलों ने गुलजान का नक़ाब थोड़ा सा उठाया। ग़ुस्से से लड़की ने जाफ़र का हाथ झटक दिया। गुलजान का चेहरा सिर्फ़ एक लमहे के लिए ही खुला था। लेकिन ख़ोजा नसरुद्दीन के लिए, जो उधर से अपने गधे पर गुज़र रहा था, इतना ही काफ़ी था। लड़की इतनी ख़ूबसूरत थी कि ख़ोजा नसरुद्दीन सुध-बुध खो बैठा।
उसकी आंखों के सामने दुनिया धुंधली पड़ गयी। उसका दिल थम गया। वह पीला पड़ गया। वह ज़ीन में लड़खड़ा गया और घबड़ाहट में हाथों से आंखें बन्द कर लीं। मुहब्बत ने उस पर बिजली की मार की थी। उसे सँभलने में कुछ वक़्त लगा।
वह अपने आप ग़ुस्से से सोचने लगाः उफ़ यह लंगड़ा, कुबड़ा, काना बन्दर! यह इस हसीना को चाहने की गुस्ताख़ी करता है? ऐसी गुस्ताख़ी आज तक दुनिया में कभी देखी नहीं गयी! हाय हाय! मैं ने कल उसे पानी से निकाला ही क्यों? अब मेरी यह हरकत मेरे ही ख़िलाफ़ पड़ गयी। लेकिन देखा जायगा। अब गन्दे सूदख़ोर! तू अभी कुम्हार और उस की बेटी का मालिक नहीं बना है। उन्हें अभी एक घंटे की मोहलत मिली है और ख़ोजा नसरुद्दीन एक घंटे में वह कर दिखायगा जो औरों से साल भर में भी न हो सके।
तभी सूदख़ोर ने जेब से लकड़ी की एक धूप-घड़ी निकाल कर वक़्त देखाः ऐ कुम्हार! मेरे लिए इसी पेड़ तले इंतिज़ार करना! मैं एक घंटे में वापस लौट आऊंगा। और हां, छिपने की कोशिश न करना क्योंकि मैं तुम्हें समुंदर की तह से भी खोज निकालूंगा और तुम्हारे साथ भगोड़े ग़ुलाम जैसा बरताव करूंगा। और तुम हसीन गुलजान!
मेरी बात पर ग़ौर करना! तुम्हारे बाप की तक़दीर इस बात पर मुनहसिर है कि तुम मुझ से कैसा बरताव करती हो। अपने बदनुमा चेहरे पर तस्कीन की मुस्कान बिखेरते हुए वह अपनी नयी रखैल के लिए ज़ेवर ख़रीदने के लिए सर्राफों के टोले की ओर चल पड़ा। ग़म का मारा कुम्हार अपनी बेटी के साथ सड़क के किनारे पेड़ के साये में रुक गया। ख़ोजा नसरुद्दीन उनके पास पहुंचा।
कुम्हार भाई! मैं ने फ़ैसला सुन लिया है। तुम बहुत मुसीबत में हो। लेकिन, शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं।
कुम्हार ने नाउमीदी से कहाः नहीं, मेहरबान! मैं तुम्हारे पैवन्द लगे कपड़ों से देख रहा हूं कि तुम रईस नहीं हो। मुझे तो चार सौ तंके चाहिए! कोई रईस मेरा दोस्त नहीं। मेरे सभी दोस्त ग़रीब है और टैक्सों व वसूलियों से बर्बाद हो चुके है।
ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः बुख़ारा में मेरा भी कोई रईस दोस्त नहीं है। तो भी मैं यह रक़म इकट्ठी करने की कोशिश करूंगा।
सिर हिलाकर मायूसी से मुस्कुराते हुए बूढ़ा बोलाः एक घंटे में चार सौ तंके इकट्ठे करोगे? ऐ अजनबी! तुम वाक़ई मेरा मजाक़ उड़ा रहे हो। इस में तो सिर्फ़ ख़ोजा नसरुद्दीन ही कामयाब हो सकता था।
अपनी बाहें अपने बाप के गले में डालकर रोती हुई गुलजान बोलीः ऐ अजनबी! हमें बचा लो, हमें बचा लो।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने उस की ओर देखा। उसने देखा कि उसके हाथ बड़े सुडौल है। लड़की ने भी ख़ोजा नसरुद्दीन की ओर देखा और उसके नक़ाब के भीतर से उसकी आंखों की पानीदार चमक उसे दिखायी दी। इस एक नज़र में दुआ और उमीद भरी हुई थी। ख़ोजा नसरुद्दीन का ख़ून तेज़ी से दौड़ने लगा। उसकी नसों में आग सी लग गयी।
उसकी मुहब्बत हज़ार-गुनी बढ़ गयी। उसने कुम्हार से कहाः
बुज़ुर्गवार ! आप यहीं ठहरें और मेरा इंतिज़ार करें। मैं इंसानों में सब से नाचीज़ और हक़ीर हूंगा अगर सूदख़ोर की वापसी तक चार सौ तंके न इकट्ठे कर सका।
वह कूद कर अपने गधे पर सवार हुआ और बाज़ार की भीड़ में ग़ायब हो गया।
।। 13 ।।
सबेरे के मुक़ाबले बाज़ार में इस वक़्त भीड़ भी कम थी और शोर-ग़ुल भी कम था। ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त जिस वक़्त तेज़ी पर थी उस वक़्त हर कोई दौड़ रहा था, चिल्ला रहा था और मौक़ा हाथ से निकल जाने के अंदेशे में हड़बड़ी मचा रहा था। अब दोपहर होनेवाली थी। गर्मी से बचने के लिए, और नफ़े-नुक़सान का चुपचाप हिसाब लगाने के लिए लोग चायख़ानों में जा रहे थे। सूरज की गर्म रौशनी बाज़ार पर फैली थी। साये छोटे और साफ़ हो रहे थे- मानो सख़्त ज़मीन पर खोद गिये गये हों। ख़ामोशी भरे कोनों में फ़क़ीर इकट्ठे थे। गौरेया चिड़ियां ख़ुशी से चहचहाती हुई आसपास बिखरे रोटी के टुकड़े ढूंढ रही थीं।
अपने फोड़ों और बदन के बेढंगेपन को ख़ोजा नसरुद्दीन को दिखाते हुए भिखमंगे ने सदा लगायीः ऐ नेक इंसान! अल्लाह के नाम पर हमें भी कुछ मिल जाय।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने चिढ़कर जवाब दियाः
अलग हटाओ अपने हाथ। मैं भी उतना ही ग़रीब हूं, जितने तुम। मैं ख़ुद किसी ऐसे शख़्स की तलाश में हूं जो मुझे चार सौ तंके दे सके।
यह समझकर कि वह उन्हें ता’ने दे रहा है, भिखारियों ने ख़ोजा नसरुद्दीन पर गालियों की बौछार कर दी। लेकिन ख़ोजा नसरुद्दीन अपने ख़यालों में डूबा हुआ था। उसने जवाब नहीं दिया। चायख़ानों की क़तार में उसने वह चायख़ाना चुना जो सबसे बड़ा और भरा हुआ था, लेकिन जहां रेशमी गद्दे व क़ालीन नहीं थे। वह वहां पहुंचा। गधे को खूंटे से बांधने के बजाय वह अनपे पीछे-पीछे सीढ़ियों पर चढ़ा ले गया।
अचम्भे और ख़ामोशी से उस का स्वागत हुआ। उसे कोई परेशानी नहीं हुई। ज़ीन में लगे झोले से उसने क़ुरआन निकाली, जो पिछले दिन उसे बूढ़े ने दी थी। क़ुरआन खोल कर उसने गधे के सामने रख दी। यह काम उसने बिना किसी हड़बड़ी या हंसी-मुस्कुराहट के किया मानो यह दुनिया का सबसे ज़्यादा क़ुदरती काम था। चायख़ाने में इकट्ठे लोग एक-दूसरे को ताकने लगे। लकड़ी के फर्श पर गधे ने ज़ोर से खुर पटका।
अच्छा? इतनी जल्दी? पन्ना पलटते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहा, तू तो क़ाबिल-ए-तारीफ़ तरक़्क़ी कर रहा है।
अब चायख़ाने का तुंदियल और मसख़रा मालिक उठा और ख़ोजा नसरुद्दीन के पास आया।
सुन भलेमानस! क्या यह गधे लाने की जगह है? यह मुक़द्दस किताब तूने इसके सामने क्यों खोल रखी है?
मैं इस गधे को दीनियात सिखा रहा हूं, ख़ोजा नसरुद्दीन ने बड़े इतमीनान से कहा, हम क़ुरआन ख़त्म कर रहे हैं और बहुत जल्द शरीअ’त शुरू होगी।
चायख़ाने भर में फुसफुसाहट और भनभनाहट होने लगी। बहुत से लोग तमाशा ठीक से देखने के लिए खड़े हो गये।
मालिक की आंखे फटी की फटी, और मुंह खुला का खुला रह गया। अपनी ज़िन्दगी में ऐसा अ’जूबा उसने कभी नहीं देखा था। तभी गधे ने फिर खुर पटका।
पन्ना पलटते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहा, अच्छा! ठीक है! बहुत ठीक। बस ज़रा सी कसर है बेटा! तू मीर-ए-अ’रब मदरसे में उस्तादों की जगह लेने के क़ाबिल हो जायगा। बस, यह किताब के पन्ने अपने आप नहीं उलट सकता है।
किसी को इसकी मदद करनी पड़ती है। अल्लाह ने इसे बहुत ज़हीन बनाया है। बड़ी अच्छी याददाश्त दी है इसे। बस, वह इसे उंगलियां देना भूल गया, यह बात उसने चायख़ाने के मालिक के लिए कही। लोग-बाग़ चाय के प्याले छोड़ क़रीब आ गये। कुछ ही देर में ख़ोजा नसरुद्दीन के आसपास एक भीड़ सी इकट्ठी हो गयी।
उसने समझाना शुरु कियाः यह कोई मामूली गधा नहीं है, भाइयो। यह अमीर का गधा है। एक दिन अमीर ने मुझे बुलाया और कहाः 'क्या तुम मेरे प्यारे गधे को दीनियात सिखा सकते हो, ताकि वह भी उतना ही सीख़ जाय जितना कि मैं जानता हूं? उन्होंने मुझे गधा दिखाया और मैं ने उसकी अक़्ल जांची। मैं ने जवाब दियाः 'ए अमीर मुअज़्ज़म! यह क़ाबिल-ए-ज़िक्र गधा उतना ही ज़हीन है जितने कि आपके कोई वज़ीर या ख़ुद आप। मैं इसे दीनियात सिखाने की ज़िम्मेदारी लेता हूं। यह उतना ही सीख़ जायगा जितना कि आप जानते हैं या शायद ज़्यादा भी। लेकिन इस काम में बीस साल लगेंगे। अमीर ने खज़ाने से सोने के पांच हज़ार तंके मुझे दिलवाये और कहाः 'गधे को ले जाओ और पढ़ाओ। लेकिन मैं अल्लाह की क़सम खाता हूं कि अगर बीस साल के बाद यह दीनियात न सीख़ पाया और इसे क़ुरआन हिफ़्ज़ न हुई तो मैं तुम्हारा सिर क़लम करवा दूंगा।
चायख़ाने के मालिक ने कहाः तो तुम अपने सिर से अलविदा’अ कह लो। गधे को दीनियात पढ़ते-सीख़ते और क़ुरआन सुनाते किसने देखा-सुना है?
ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब दियाः बुख़ारा में ऐसे बहुत से गधे हैं। मुझे सोने की पांच हज़ार तंके चाहिए और ऐसे अच्छे गधे रोज़-रोज़ तो मिलते नहीं। मेरे सिर के क़लम होने की फ़िक्र न करो दोस्त, क्योंकि बीस साल में हम में से एक न एक ज़रुर मर जायगा- या तो मैं, या अमीर या यह गधा। और तब यह पता लगाने में बहुत देर हो चुकेगी कि दीनियात का सबसे बड़ा आलिम कौन है।
चायख़ाना ज़ोर के क़हक़हों से गूंज उठा। मालिक नमदे पर गिर पड़ा, हंसते-हंसते उसके पेट में बल पड़ गये और उसका चेहरा आंसुओं से भींग गया। चायख़ाने का मालिक बहुत ख़ुशमिजाज़ और हंसोड़ था।
हंसी से घुटी और घरघरायी आवाज़ में वह बोलाः सुना तुम ने? हा-हा-हा-हा... 'तब तक यह जानने के लिए बहुत देर हो चुकेगी कि सबसे बड़ा आलिम कौन है!' हा-हा-हा-हा...। वह हंसी से सचमुच ही फट गया होता अगर यकायक उसे कोई ख़याल न आ गया होता।
हाथ हिला-हिलाकर सब को मुख़ातिब करते हुए वह चिल्लायाः ठहरो! ठहरो! तुम हो कौन? तुम आये कहां से? ऐ दीनियात पढाने वाले! कहीं तुम ख़ुद ख़ोजा नसरुद्दीन तो नहीं हो?
यह क्या कोई ज़िक्र के क़ाबिल बात है? तुम ने ठीक ही अन्दाज़ लगाया है। मैं ख़ोजा नसरुद्दीन ही हूं। बुख़ारा शरीफ़ के शहरियो! आप लोगों को सलाम!
काफ़ी देर तक सब लोग ख़ामोश रहे, मानो उन पर जादू कर दिया गया हो। एकाएक किसी ने ख़ुशी की आवाज़ में कहाः ख़ोजा नसरुद्दीन!
एक-एक कर के दूसरों ने भी चिल्लाना शुरु कर दिया- ख़ोजा नसरुद्दीन! ख़ोजा नसरुद्दीन! यह आवाज़ दूसरे चायख़ानों तक पहुंची और वहां से सारे बाज़ार में फैल गयी। हर जगह आवाज़ गूंजने लगी और शोर मच गयाः ख़ोजा नसरुद्दीन! ख़ोजा नसरुद्दीन!
हर तरफ़ से लोग दौड़-दौड़कर आने लगे- उज़बेक, ताजिक, ईरानी, तुर्कमानी, तुर्क, आर्मीनियाई, तातार, जार्जियाई। यहां आ-आकर वे ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर अपने प्यारे ख़ोजा नसरुद्दीन, ख़ुशमिजाज़, हंसोड और होशियार ख़ोजा नसरुद्दीन का ख़ैर-मक़्दम करने लगे। भीड़ बढ़ती गयी। कहीं से एक बोरा जई, एक गट्ठर तिपतिया घास और एक बालटी साफ़ पानी आया और गधे के सामने रख दिया गया।
भीड़ में से आवाज़ें आने लगीः ख़ोजा नसरुद्दीन! ख़ूब आये! तुम अब तक भटक कहां रहे थे? आओ, ख़ोजा नसरुद्दीन हमें बताओ।
वह बरसाती के किनारे तक बढ़ गया और ख़ूब झुक कर भीड़ को सलाम किया।
बुख़ारा के बाशिन्दों! मैं आप का ख़ैर-मक़्दम करता हूं! दस साल तक मैं आप से दूर रहा और अब फिर आपसे मिल कर मेरा दिल ख़ुशी से नाच रहा है। आपने मुझ से कुछ पूछा है। मैं चाहता हूं कि यह दास्तान मैं गाकर सुनाऊं।
मिट्टी का एक बड़ा बर्तन उस ने उठा लिया और उस में भरा पानी फेंक दिया। हाथ से उसे बजाते हुए उसने ज़ोर से गाना शुरु कियाः
बज-बज रे माटी के बर्तन, गा-गा रे माटी के बर्तन,
गुन गा अमीर के, बजा क़सीदा-गोई कर
ज़ाहिर कर दुनिया के क़रीब, हम रईयत कैसी ख़ुशनसीब
ऐसा दरियादिल सखी अमीर बशर पाकर!
गुन-गुन करता ख़ाकी बर्तन, टन-टन बजता ख़ाकी बर्तन,
ग़ुस्से से कंपती आवाज़ोँ में गाता है,
आवाज़ लगाता है करख़्त, रंजीदा, ग़ुस्सा-भरा, सख़्त,
हर तरफ़ हर किसी को अहवाल सुनाता है!
सुनते भी तो जाओ भैया, कहना है उस को क्या किस्साः
बूढ़ा नियाज़ कुम्हार यहीं पर रहता है,
मिट्टी गूंधा करता है वह, ढेरों बर्तन गढ़ता है वह,
फिर भी न मजूरी से दिन कभी निबहता है!
पाता जो उन्हें बेच करके, उससे चुक्कड़ भी भर न सके,
जैसे-तैसे ग़ुर्बत की मारें सहता है!
लेकिन कूबड़वाला जाफ़र, सो भी न कभी पाता जी भर
जाता है सोने से लबरेज़ ख़ज़ानों पर
सोना अमीर के भी घर है, लबरेज़ ख़ज़ाने छलक रहे,
कितना सोना है वहां, कहेगा कौन मगर?
दर्बान महल के बेचारे, कब सो पाते डर के मारे?
उन छलक रहे मटकों से जीना है दूभर!
बूढ़े नियाज़ पर, हा क़िस्मत, चोरी-चुपके आयी आफ़त,
प्यादे अदालती उस के घर आ धमके!
कर के बूढ़े को गिरफ़्तार ले गये कचहरी मार-मार,
सुनवाने को फ़ैसले अमीर-ए-आज़म के!
पीछे-पीछे आया जाफ़र, कूबड़ घसीटता सड़कों पर
सूरत-शोहरत जिसकी, अज़ाब हैं आ’लम के!
कह-कह रे माटी के बर्तन, हर गोशदार से कह फ़ौरन,
हम कब तक सहते जायें बेइन्साफ़ी यह?
मिट्टी की है तेरी ज़बान, सच कहने की है इसे बान,
बूढ़े कुलाल का क्या क़ुसूर है, यह तो कह?
माटी का बर्तन बजता है, बजता है नहीं, गरजता है,
देता है सोलह-आने सच-ही-सच जवाबः
बूड़े कुलाल का क्या क़ुसूर? - इतना भी उसे न था शऊर,
मकड़ी के जाले से बचकर रहता जनाब?
अब तो मकड़ी के जाले ने फांसा है उसे, छुड़ा लेने
की राह न कोई, सहे ग़ुलामी का अ’ज़ाब!
हाज़िर हुज़ूर में है नियाज़, बूढ़ा कुलाल बंदानवाज़,
आंखों में आंसू, पैरों लिपटा हाकिम के
कहता हैः यह जग ज़ाहिर है, हाकिम रहमत में नादिर है,
दिलख़्वाह अमीर-ए-आज़म हैं इस ख़ादिम के,
हो कर ग़रीब पर करम-सार, दिल को ज़रुर देंगे क़रार।
बोला अमीरः रो मत ग़रीब, ले करम किया,
ले पूरे घंटे की मुहलत! नेकी करना मेरी ख़सलत,
जानता जमाना है, दिल है कैसा दरिया!
कह-कह रे माटी के बर्तन, हर गोशदार से कह फ़ौरन,
कब तक हम सहते जायें बेइन्साफ़ी यह?
माटी का बर्तन बजता है, बजता है नहीं, गरजताता है,
देता है सोलह-आने सच-ही-सच जवाब!
जो इस अमीर से अदल-ओ-मेहर की करता है उमीद बशर
वह तो सचमुच पागल है, पागल है, जनाब!
यह तो न किसी से छिपी बात, कमज़र्फ़, कमीना, कमबिसात
है यह अमीर, दो-दो कौड़ी इसकी क़ीमत!
कूड़े की ढेरी है अमीर, सड़ियल-सी है उसकी ज़मीर,
सिर के बदले कंधों पर हंड़िया है साकित!
कह-कह रे माटी के बर्तन, कब तक सहना हम को जबरन
इस बद अमीर की बदतरीन सल्तनत बता?
हे ऊब चुके सारे अ’वाम, कब उन्हें मिलेगा इंतिक़ाम,
सुख के दिन कब लौटेंगे, है कुछ अता-पता?
गुन-गुन करता ख़ाकी बर्तन, टन-टन बजता ख़ाकी बर्तन,
सच-सच जवाब देता है चिल्ला-चिल्ला करः
माना, अमीर है ताक़तवर, क़ायम है अभी निहंग-सिपर,
लेकिन ढह जायेगा वह, ज्यों महबस-ए-ताश,
कट जायेगा यह दौर-ए-सितम, आता है वह दिन जब ज़ालिम
मिट्टी के इस बर्तन सा होगा पाश-पाश!
बर्तन को अपने सिर से ऊंचा उठा कर ख़ोजा नसरुद्दीन ने उसे ज़मीन पर पटक दिया जहां वह सैकड़ों टुकड़ों में बिखर गया। भीड़ की आवाज़ को अपनी आवाज़ में डुबाने की कोशिश करता हुआ ख़ोजा नसरुद्दीन चिल्लायाः
नियाज़ कुम्हार को सूदख़ोर और अमीर की रहमदिली से बाचने के लिए हम सब मदद करें! आप ख़ोजा नसरुद्दीन से वाक़िफ़ हैं! क़र्ज़ लेकर वह हमेशा चुकाता रहा है। कुछ वक़्त के ले मुझे चार सौ तंके कौन देगा?
एक भिश्ती नंगे पैर आगे बढ़ा।
ख़ोजा नसरुद्दीन! हमारे पास रुपया कहां से आया? हमें भारी टैक्स अदा करने पड़ते हैं। लेकिन मेरा यह पटका है। यह क़रीब-क़रीब नया ही है। इस से शायद तुम्हें कुछ मिल जाय।
और उसने वह पटका ख़ोजा नसरुद्दीन के क़दमों पर डाल दिया। भीड़ में कानाफूसी होने लगी। खलबलाहट मच गयी। कुलाह, जूतियां, पटके, रूमाल और ख़िल’अतें तक उड़-उड़कर उसके क़दमों के पास आने लगीं। हरेक शख़्स ख़ोजा नसरुद्दीन की मदद करने में फ़ख्र समझने लगा। चायख़ाने का मोटा मालिक अपनी दो सबसे बढ़िया चायदानियां और तांबे की कश्तियां ले आया और अकड़ कर दूसरों को देखने लगा क्योंकि वह दिल खोलकर दे रहा था। भेंट में दी गयी चीज़ों का ढेर बढ़ रहा था। ख़ोजा नसरुद्दीन चीख़कर बोलाः
बस! बहुत काफ़ी है, बुख़ारा के फ़य्याज़ शहरियों! बहुत काफ़ी हो गया! आप मुझे सुन रहे हैं न? ज़ीनसाज़ तुम अपनी ज़ीन उठा लो- काफ़ी हो गया, मैं कह जो रहा हूं। क्या? अरे क्या आप अपने ख़ोजा नसरुद्दीन को गूदड़ बेचनेवाला बनाना चाहते है? अब मैं नीलाम शुरु करता हूं। यह रहा भिश्ती का पटका। जो इसे ख़रीदेगा उसे कभी प्यास नहीं सतायेगी। चलो, मैं इसे सस्ते ही बेच रहा हूं। ये रहे कुछ मरम्मत किये हुए पुराने जूते। ये जूते ज़रुर दो दफ़ा मक्का हो आये हैं। जो इन्हें पहनेगा उसे लगेगा कि वह ज़ियारत कर रहा है! ये हैं चाकू, जूते, ख़िलअ’तें! आओ, बोलो! मैं इन्हें बिना मोलभाव किये, सस्ते में ही बेचे रहा हूं। वक़्त बहुत क़ीमती है! जल्दी करो।
लेकिन वज़ीर बख़्तियार ने वफ़ादार रेआ’या की फ़िक्र में बड़ी मेहनत से बुख़ारा में ऐसा इंतिज़ाम किया था कि तांबे का एक फूटा सिक्का भी बाशिंदों की जेब में न टिकता था और फ़ौरन अमीर के खज़ाने में जा पहुंचता था। अपने सामान की ख़ोजा नसरुद्दीन फ़ुज़ूल ही ज़ोर-ज़ोर से ता’रीफ़ कर रहा था- वहां कोई ख़रीदार नहीं था।
।। 14 ।।
तभी उधर से सूदख़ोर जाफ़र गुज़रा। उसका थैला सोने-चांदी के छोटे-मोटे ज़ेवरों से फूल रहा था। ये ज़ेवर उसने सर्राफ़ टोले से गुलजान के लिए ख़रीदे थे।
हालांकि एक घंटे का दिया हुआ वक़्त ख़त्म हो रहा था और सूदख़ोर हवस की बेताबी में जल्दी-जल्दी चल रहा था, तो भी रास्ते में ख़ोजा नसरुद्दीन की नीलाम की आवाज़ सुनते ही लालच ने उसे धर दबाया। सूदख़ोर को देखते ही भीड़ जल्दी से हट गयी क्योंकि हर तीसरा आदमी उसका क़र्ज़दार था।
जाफ़र ने ख़ोजा नसरुद्दीन को पहचान लिया। तो तुम्हीं हो, जिसने कल मुझे पानी से निकाला था ? तुम यहां तिजारत कर रहे हो? यह इतना माल तुम्हें कहां से मिल गया?
ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब दिया।
हज़रत जाफ़र! क्या आप को याद नहीं कि कल आपने मुझे आधा तंका दिया था। उसी से मैं ने तिजारत की और तक़दीर ने मेरा साथ दिया।
सूदख़ोर बोलाः और तुम ने सवेरे ही सवेरे इतना माल इकट्ठा कर लिया? मेरे सिक्के से सचमुच बहुत फ़ायदा हुआ। इस ढेर का क्या लोगे?
छः सौ तंके।
पागल हो गये हो क्या? जिस ने तुम्हारा भला किया उस से इतनी रक़म मांगने में तुम्हें शर्म आनी चाहिए। क्या तुम्हारी यह दौलतमन्दी मेरी ही वजह से नहीं है ? दो सौ तंके--- मैं तो यही दाम लगा सकता हूं।
पांच सौ तंके! ख़ोजा नसरुदद्दीन ने जवाब दिया! मैं आपकी इज़्ज़त करता हूं, जाफ़र साहब। आप पांच सौ तंके ही दे दें।
अरे नाशुक्रे! एहसान फरामोश! मैं एक बार फिर कहात हूं, क्या तेरी दौलतमन्दी मेरी वजह से ही नहीं है?
ख़ोजा नसरुद्दीन अब सब्र न कर सका। बोलाः अबे सूदख़ोर! क्या तू मेरी ही वजह से ज़िंदा नहीं है ? यह सच है कि तेरी जान बचाने के लिए बदले तूने मुझे आधा तंका दिया था, पर चूंकि तेरी ज़िन्दगी की क़ीमत भी इससे ज़्यादा नहीं है, इसलिए मैं ने बुरा नही माना। अगर तुझे यह माल ख़रीदना है तो ठीक से दाम लगा।
तीन सौ!
ख़ोजा नसरुद्दीन चुप रहा।
सूदख़ोर तजरबेकार आंखों से माल की क़ीमत जांचने लगा। और, जब उसे तसल्ली हो गयी कि ये सब कुलाह, जूते ख़िलअ’तें कम से कम सात सौ तंकों में बिक जायेगी, तभी उसने दाम बढ़ाना तय किया।
साढ़े तीन सौ।
चार सौ।
पौने चार सौ।
चार सौ।
ख़ोजा नसरुद्दीन अड़ा रहा। कई बार सूदख़ोर ऐसे आगे बढ़ लिया मानो अब वह आगे दाम न बढ़ायेगा। फिर लौट-लौट कर एक-एक तंका करके उसने दाम बढ़ाये और आख़िर वह राज़ी हो गया। सौदा पट गया। कांखते-कूंखते और शिकायत करते हुए उसने चार सौ तंके गिने। अल्लाह की क़सम! इस माल की दुगनी क़ीमत दे रहा हूं! पर मेरी ख़सलत ही यह है कि रहमदिली की वजह से मैं भारी नुक़सान उठाता हूं।
एक सिक्का लौटाते हुए ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहाः यह सिक्का खोटा है और ये पूरे चार सौ तंके नहीं हैं। ये तो कुल तीन सौ अस्सी है। तुम्हारी नज़र कमज़ोर होती जा रही है, जाफ़र साहब!
सूदख़ोर खोटा सिक्का बदलने और बीस तंके और देने को मजबूर हो गया। यह हो चुका तो उसने चौथाई तंके पर एक मजदूर लिया और माल उस पर लादकर अपने पीछे-पीछे आने को कहा। बेचारा मजदूर माल के बोझ से क़रीब-क़रीब दब-सा गया।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहाः हम-आप एक ही तरफ़ तो जा रहे हैं।
वह गुलजान को देखने के लिए बेताब हो रहा था और जल्दी-जल्दी आगे बढ़ रहा था। अपने लंगड़ेपन से मजबूर सूदख़ोर पीछे-पीछे चल रहा था।
तुम इतनी जल्दी में कहा जा रहे हो? आस्तीन से पसीना पोंछते हुए सूदख़ोर ने पूछा।
अपनी काली आंखों में शरारत-भरी-चमक लाकर ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः उसी जगह, जहां आप जा रहे हैं। हम और आप, जाफ़र साहब, एक ही जगह और एक ही काम से जा रहे हैं।
सूदख़ोर ने कहाः पर तुम्हें मेरे काम की क्या ख़बर? अगर तुम सझम पाते तो तुम्हें रश्क होने लगता।
इस बात के मा’नी ख़ोजा नसरुद्दीन से छिपे नहीं रहे और ख़ुशी से हंसता हुआ वहा बोलाः ए सूदख़ोर! अगर तुम्हें मेरे काम की ख़बर होती तो तुम मुझ से दस गुना ज़्यादा रश्क करने लगते।
जवाब की गुस्ताख़ी समझकर जाफ़र ने नाराज़ी से भवें तानीः तू बहुत ज़बान चलाता है। तेरे जैसों को तो मेरे जैसों से बात करते वक़्त डर से काँपना चाहिए। बुख़ारा में ऐसे कुछ ही लोग है जो मुझ से बड़े हैं और जिन से मैं हसद करता हूँ। मै रईस हूं और मेरी मनचाही बात होने में कोई रुकावट नहीं पड़ती। मैं ने बुख़ारा की सबसे हसीन लड़की चाही थी और आज वह मेरी हो जाएगी।
उसी वक़्त एक डलिया में चेरी के फल बेंचता हुआ एक शख़्स उधर से गुज़रा। ख़ोजा नसरुद्दीन ने उस की डलिया में से लम्बे डंठलवाली एक चेरी निकाल ली और सूदख़ोर को दिखाता हुआ बोलाः
जाफ़र साहब! मेरी बात पूरी सुन लीजिए। लोग कहते हैं कि एक दिन एक सियार ने दरख़्त में बहुत ऊंचे एक चेरी देखी। उस ने अपने मन में सोचाः 'मैं तब तक चैन न लूंगा जब तक वह चेरी मुझे न मिल जाय।' और वह पेड़ पर चढ़ने लगा। टहनियों से बुरी तरह छिलता हुआ वह दो घंटे तक चढ़ता रहा। जब वह चेरी के पास पहुंचा और अपना मुंह फाड़कर उसे खाने की तैयारी कर रहा था तभी यकायक एक बाज़ झपटा और चेरी लेकर उड़ गया।
इसके बाद सियार फिर दो घंटे तक पेड़ से उतरता रहा और उतरने में और भी ज़्यादा छिल गया। वह बुरी तरह रो-रोकर कहता रहाः 'मैं वह चेरी लेने के लिए दरख़्त पर चढ़ा ही क्यों! यह तो सभी जानते हैं कि दरख़्तों पर चेरी सियारों के लिए नहीं उगा करतीं।'
सूदख़ोर ने नफ़रत से कहाः तू बेवक़ूफ़ है। इस क़िस्से में मुझे तो कोई मतलब की बात दिखायी नहीं देती।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने जवाब दियाः गहरे मतलब फ़ौरन नहीं दिखायी देते।
चेरी का डंठल उसके कुलाह में दबा था और चेरी उस के कान के पीछे लटक रही थी। सड़क मुड़ी। मोड़ के सामने कुम्हार अपनी बेटी के साथ एक पत्थर पर बैठा था। कुम्हार उठ खड़ा हुआ। उस की आंखें, जिन में उमीद की कुछ चमक अब तक बाक़ी थी, बुझ सी गयीं, क्योंकि उसे लगा कि अजनबी रुपया इकट्ठा करने में नाकामयाब रहा है। गुलजान ने एक आह भरी और अपना मुंह फेर लिया।
वह ऐसी दर्द-भऱी आवाज़ में बोली कि उसे सुन कर पत्थर के भी आंसू आ जातेः अब्बा! हम बर्बाद हो गये। लेकिन सूदख़ोर का दिल पत्थर से भी सख़्त था। उसके चेहरे पर बेरहम जीत और हवस दिखायी दे रही थी। वह बोलाः
कुम्हार! मियाद ख़त्म हुई। अब तुम मेरे ग़ुलाम हो और तुम्हारी बेटी मेरी ग़ुलाम और रखैल है।
ख़ोजा नसरुद्दीन को चोट पहुंचाने और ज़लील करने के लिए उसने मालिकाना ढंग से गुलजान का चेहरा बेनक़ाब कर दिया। देखो, यह हसीन है न? आज मैं इस के साथ सोऊंगा। अब मुझे बताओ कि किसे किस से हसद करनी चाहिए?
ख़ोजा नसरुद्दीन बोलाः वाक़ई यह लड़की ख़ूबसूरत है। लेकिन क्या तुम्हारे पास कुम्हार की रसीद है?
बेशक! रसीद के बिना कोई शख़्स काम कर ही कैसे सकता है? सभी लोग तो चोर और धोखेबाज़ है। यह रही रसीद, जिस पर क़र्ज़ की रक़म और उसे अदा करने की तारीख़ दर्ज है। कुम्हार ने नीचे अंगूठे का निशान लगा दिया है।
उसने रसीद ख़ोजा नसरुद्दीन को दिखायी। ख़ोजा नसरुद्दीन ने कहाः हां, रसीद तो ठीक है। अब रसीद के मुताबिक़ अपनी रक़म लो। उधर से गुज़रनेवाले कुछ लोगों को बुलाकर उस ने कहा, ज़रा ठहरिए भलेमानस, इस आदयगी के गवाह बनिये।
रसीद फाड़कर ख़ोजा नसरुद्दीन ने उस के दो टुकड़े कर डाले, फिर उन्हें मोड़ कर चार टुकड़े कर डाले और हवा में उड़ा दिया। तब उसने अपना पटका खोलकर सूदख़ोर को वह सब रक़म गिन दी जो उसने कुछ ही देर पहले हथियायी थी।
कुम्हार और उस की बेटी ख़ुशी और अचम्भे से और सूदख़ोर ग़ुस्से से पत्थर की मूरत बन गये थे। गवाहों ने एक-दूसरे को आंख मारी और बदनाम सूदख़ोर की हार पर हंसने और ख़ुश होने लगे।
ख़ोजा नसरुद्दीन ने कान के पीछे से चेरी निकाली और सूदख़ोर को आंख मार कर उसे मुंह में रख लिया और होंठ चटख़ारने लगा। सूदख़ोर का बदनुमा बदन धीरे-धीरे कांपने लगा। उस के हाथ हवा पकड़ने लगे। उस की अच्छी वाली आंख ग़ुस्से से बाहर को उभर आयी। उसका कूबड़ कांपने लगा।
कुम्हार और गुलजान ने प्यार-भरी आवाज़ में कहाः अजनबी! हमें अपना नाम बता दो ताकि हमें मा’लूम हो जाय कि हम किस के लिए दुआ करें।
सूदख़ोर तुतलायाः हां, मुझे अपना नाम बता दे, ता कि मुझे मा’लूम हो जाय कि किस के लिए बददुआ करूं।
ख़ोजा नसरुद्दीन का चेहरा चमक रहा था। उसने साफ़ और ऊंची आवाज़ में कहाः बग़दाद और तेहरान में, इस्ताम्बूल और बुख़ारा में, हर जगह मैं एक ही नाम से जाना जाता हूं और वह नाम है- ख़ोजा नसरुद्दीन।
सूदख़ोर डर के मारे सफ़ेद पड़ गया और पीछे को हटता हुआ बोलाः ख़ोजा नसरुद्दीन? और अपने क़ुली को आगे खदेड़ता हुआ वह डर के मारे भागने लगा।
जहां तक और लोगों का तअ'ल्लुक़ था, वे उसका इस्तिक़बाल करते हुए चिल्लाये- ख़ोजा नसरुद्दीन! ख़ोजा नसरुद्दीन!
नक़ाब के नीचे गुलजान की आंखे चमक उठीं। बूढ़ा कुम्हार अभी तक अपने होश दुरुस्त नहीं कर पाया था। वह हवा में हाथ हिलाता रहा और भिनभिनाता रहा।
।। 15 ।।
अमीर के इंसाफ़ के लिए लगी अदालत अब भी जारी थी। जल्लाद कई बार बदले जा चुके थे। बेत खाने के इंतिज़ार में खड़े लोगों की ता'दाद बढ़ती जा रही थी।
दो शख़्स सूली पर लटक रहे थे। तीसरे का सिर धड़ से जुदा पड़ा था और ख़ून से ज़मीन तर थी। लेकिन कराह और चीखें नींद में भरे अमीर के कानों तक नहीं पहुंच रही थीं क्योंकि दरबारी चापलूस अमीर के कानों पर क़सीदों की बौछार कर रहे थे और अपनि इस कोशिश में उनके गले पड़ गये थे। ता’रीफ़ोँ में वे वज़ीर-ए-आज़म, दूसरे वज़ीरों और अर्सलां बेग को शामिल करना न भूलते थे। वे इन ता’रीफों में चंवर डूलानेवाले और हुक़्क़ेले को भी शामिल कर रहे थे, क्योंकि उनका यह ख़याल ठीक ही था कि हर एक को ख़ुश करने की कोशिश करनी चाहिए- कुछ की इसलिए कि वे फ़ायदेमन्द साबित हो, कुछ इसलिए कि वे ख़तरनाक न साबित हों।
कुछ देर से अर्सलां बेग दूर से आवाज़ोँ के एक अ’जीब शोर को बेचैनी से सुना रहा था। उसने अपने दो सबसे क़ाबिल और तजरबेकार जासूसों को बुलायाः जाओ और पता लगाकर आओ कि लोग इस क़दर तैश में क्यों हैं? जाओ और फ़ौरन लौटकर मुझे बताओ।
दोनों जासूस रवाना हुए, एक फ़क़ीर के भेस में, दूसरा दरवेश बनकर। पर, इस के पहले कि वे लौट पायें, सूदख़ोर भागता हुआ वहां आया। वह पीला पड़ रहा था और उस के पैर लड़खड़ा रहे थे। अपनी ख़िलअ’त के दामन में उस के पैर बार-बार उलझ रहे थे।
अर्सलां बेग ने उतावली से पूछाः क्या हुआ, क्या हुआ जाफ़र साहब?
कांपते होठों से कराहता हुआ सूदख़ोर चिल्लायाः मुसीबत! मुसीबत! ऐ अर्सलां बेग साहब! हम पर बड़ी भारी मुसीबत आ पड़ी है। ख़ोजा नसरुद्दीन हमारे ही शहर में मौजूद है। मैं ने अभी उसे देखा है और उस से बात की है।
अर्सलां बेग की आंखें बाहर निकल पड़ी और वह टकटकी लगाये देखता रह गया। तख़्त की सीढ़ियां उस के बोझ से दबने लगीं। दौड़ कर वह नींद में ग़ाफिल अपने मालिक के पास पहुंचा और उनके कान के झुक गया। अमीर चौंक कर तख़्त पर सीधे बैठ गये, मानो किसी ने उन के कांटा चुभा दिया हो। वह चिल्लायेःतू झूठ बोलता है! ग़ुस्से और डर के मारे उन का चेहरा बदनुमा हो गया, यह सच नहीं है! कुछ ही दिन पहले बग़दाद के ख़लीफ़ा ने मुझे लिखा था कि उन्हों ने उसका सिर क़लम कर दिया है! तुर्की के सुलतान ने लिखा था कि उन्होंने उसे सूली पर लटकवा दिया है! ईरान के शाह ने ख़ुद अपने हाथ से मुझे लिखा था कि उन्हों ने उसे फांसी दे दी है! ख़ीवा के ख़ान ने पिछले साल आ’म ऐ’लान किया था कि उन्होंने उस की ज़िंदा खाल खिंचवा ली है! यह ख़ोजा नसरुद्दीन उस पर ला’नत बरसे- चार बादशाहों के हाथों से कैसे बेदाग़ बच कर निकल सकता है?
वज़ीर और रईस व अफ़सर ख़ोजा नसरुद्दीन का नाम सुन कर पीले पड़ गये। चंवर डुलानेवाला चौंका और चंवर उसके हाथ से गिर पड़ा, हुक़्क़े वाले के गले में धुआँ फंस गया और वह ज़ोर ज़ोर से खांसने लगा। चापलूसों की ज़बानें डर के मारे सूख कर तालू से चिपक गयी।
अर्सलां बेग ने दोहरायाः वह यहीं है।
अमीर चिल्लायेः तू झूठ बोलता है!
और शाही हाथ ने उस के गालों पर ज़ोर से तमांचा जड़ दियाः तू झूठा है! अगर वह वाक़ई यहां है, तो बुख़ारा में वह घुस ही कैसे पाया? पहरेदारों और तेरे रहने से फ़ायदा ही क्या? कल रात बाज़ार में जो हुल्लड़ हुआ, यह उसी की शरारत थी? जब तू सो रहा था, उसने रेआ’या को मेरे ख़िलाफ़ उभारने की कोशिश की और तू ने कुछ नहीं सुना?
और अमीर ने फिर अर्सलां बेग को मारा। वह झुक गया और अमीर का हाथ जैसे ही नीचे गिरा उसे चूम लिया।
अरे मालिक! वह यहीं है, बुख़ारा में ही! क्या आप सुन नहीं रहे?
दूर पर जो शोर हो रहा था वह ज़लज़ले की तरह फैलने लगा। जो भीड़ अ’दालत में खड़ी थी, वह भी जोश में आ गयीं। भनभनाहट होने लगी। पहले यह भनभनाहट धीमी थी और साफ़ सुनायी नहीं पड़ती थी। फिर वह ऊंची और बुलन्द होने लगी, यहां तक कि अमीर को अपना तख़्त और सिंहासन अपने नीचे हिलता लगा। यकायक इस भनभनाहट और आवाज़ोँ के शोर-ग़ुल में एक नाम उठा और एक सिरे से दूसरे सिरे तक कई बार दोहराया गयाः
ख़ोजा नसरुद्दीन!! ख़ोजा नसरुद्दीन!!
इस नाम से अ’दालत गूंज उठी।
जलती हुई मशअ’लें लेकर पहरेदार तोपों की तरफ़ दौड़ पड़े। अमीर का चेहरा घबराहट से बिगड़ रहा था। वह चिल्लायेः ख़त्म करो इजलास! वापस चलो महल को!
और ज़रबफ़्त की अपनी ख़िलअ’त का दामन बटोरते हुए वह महल को वापस भाग लिये। उनके पीछे नौकर-चाकर गिरते-पड़ते दौड़े और उनकी सवारी ख़ाली ही महल को वापस खींच भेजी गयी। डर से कांपते हुए, सबसे जल्द महल पुहंच जाने की हड़बड़ी में एक-दूसरे को धक्का देते हुए वज़ीर, सिपाही, मीरासी, जल्लाद, हुक़्क़े वाला, चंवर डुलानेवाला अपनी जान लेकर भागे। जल्दी में उनके जूते पीछे छूट गये और उन्हें उठाने की भी फ़िक्र उन्हें न रही। सिर्फ़ हाथी ही अपनी पुरानी शानशौकत से वापल लौटे, क्योंकि अमीर के जुलूस का हिस्सा होते हुए भी उन्हें रिआ’या से डरने की कोई ज़रुरत नहीं थी।
महल के पीतल जड़े फाटक अमीर व उनके दरबार के भीतर पहुंचते ही भारी खड़खड़ाहट के साथ बन्द हो गये। इस बीच बाज़ार खचाखच भर चुका था और वहां ख़ोजा नसरुद्दीन का नाम बार-बार गूंज रहा था। भीड़ बाज़ार में उबल रही थी और शोर-ग़ुल व आवाज़ें बढ़ रही थीं।
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