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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
रूमी
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ग़ज़ल
चराग़-ए-मह सीं रौशन-तर है हुस्न-ए-बे-मिसाल उस काकि चौथे चर्ख़ पर ख़ुर्शीद है अक्स-ए-जमाल उस का
सिराज औरंगाबादी
फ़ारसी कलाम
दर हुस्न-ए-रुख़-ए-ख़ूबाँ पैदा हम: ऊ दीदमदर चश्म-ए-निको-रूयाँ ज़ेबा हम: ऊ दीदम
फ़ख़रुद्दीन इराक़ी
ग़ज़ल
ख़ार-ए-हसरत दिल में लेकर उट्ठे बज़्म-ए-यार सेये वो कांटे हैं जिन्हें लाए हैं हम गुलज़ार से
शम्शाद लखनवी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
अज़ किनार-ए-ख़्वेश याबम हर दमी मन बू-ए-यारचूँ न-गीरम ख़्वेश्तन रा हर शबी अंदर किनार
रूमी
ना'त-ओ-मनक़बत
है हुस्न-ए-अज़ल अहमद-ए-मुख़्तार में आयाऔर जिन्न-ओ-मलक में ही वही नूर समाया
मख़्दूम ख़ादिम सफ़ी
ग़ज़ल
अज़ीज़ वारसी देहलवी
ना'त-ओ-मनक़बत
हरीम-ए-हुस्न-ए-हक़ दरबार-ए-महबूब-ए-इलाही हैकि दीदार-ए-ख़ुदा दीदार-ए-महबूब-ए-इलाही है