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ना'त-ओ-मनक़बत
अज़ल की इब्तिदा मैं हूँ अबद की इंतिहा मैं हूँन समझो ख़ाक का पतला जमाल-ए-कुब्रा मैं हूँ
अं’बर वारसी
कलाम
तिरी ज़ात की नहीं इब्तिदा तिरी हस्ती की नहीं इंतिहातिरे भेद का है यही पता तो जुदा नहीं में जुदा नहीं
ग़ौसी शाह
कलाम
इ'श्क़ की इब्तिदा भी तुम हुस्न की इंतिहा भी तुमरहने दो राज़ खुल गया बंदे भी तुम ख़ुदा भी तुम
बेदम शाह वारसी
शे'र
इ’श्क़ की इब्तिदा भी तुम हुस्न की इंतिहा भी तुमरहने दो राज़ खुल गया बंदे भी तुम ख़ुदा भी तुम
बेदम शाह वारसी
कलाम
इब्तिदा में हज़रत-ए-इंसान क्या था क्या हुआग़ौर कर ख़ुद को ज़रा पहचान क्या था क्या हुआ
अज़ीज़ुद्दीन रिज़वाँ क़ादरी
सूफ़ी लेख
फ़ारसी गिरह-बंदी की इब्तिदा, फ़ारसी का मंज़ूम कलाम
‘’अल्लाह हू" की तकरार और हज़रत ‘अली की तारीफ़ ही के दौर में क़व्वाली में फ़ारसी
अकमल हैदराबादी
सूफ़ी लेख
क़व्वाली में ख़वातीन की इब्तिदा
क़व्वाली में ख़वातीन की इब्तिदा बीसवीं सदी की छठी दहाई में हुई, जब कि 1956 में
अकमल हैदराबादी
सूफ़ी लेख
क़व्वाली में अदा-आमोज़ी की इब्तिदा
क़व्वाली में तशरीह के इज़ाफे़ के बा’द शकीला बानो ने इस फ़न को मज़ीद दिल-कश बनाने
अकमल हैदराबादी
सूफ़ी लेख
टेलीविज़न पर क़व्वाली की इब्तिदा
हिन्दोस्तान में टीवी बीसवीं सदी के छठी दहाई में आया। यहाँ सबसे पहले इसकी इब्तिदा दिल्ली
अकमल हैदराबादी
ग़ज़ल
शहीद-ए-इ’श्क़-ए-मौला-ए-क़तील-ए-हुब्ब-ए-रहमानेजनाब-ए-ख़्वाजः क़ुतुबुद्दीं इमाम-ए-दीन-ओ-ईमाने
वाहिद बख़्श स्याल
सूफ़ी कहावत
रू-ए ज़ेबा मरहम-ए-दिलहा-ए-ख़स्ता अस्त-ओ-कलीद-ए-दरहा-ए-बस्ता
एक ख़ूबसूरत चेहरा दुखी दिलों के लिए मरहम की तरह होता है, और बंद दरवाजों के लिए कुंजी
वाचिक परंपरा
ना'त-ओ-मनक़बत
गुल-ए-बुस्तान-ए-मा'शूक़ी मह-ए-ताबान-ए-महबूबीनिज़ामुद्दीन सुल्तान-उल-मशाइख़ जान-ए-महबूबी