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बाहर आ के भूल गये हैं घर को अपने ये कम्बख़्त
बाहर आ के भूल गये हैं घर को अपने ये कम्बख़्तकोइ पिये सरमस्त पढ़ा है कोई कहे दे भर भर तश्त
कवि दिलदार
दकनी सूफ़ी काव्य
किस्ससुल अम्बिया
बज़ाँ पादशाहान थे.............. ... .....व कम्बख़्त काफ़िर जो बेदीन थे
नूरी
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ना'त-ओ-मनक़बत
उफ़ रे मुंकिर ये बढ़ा जोश-ए-त'अस्सुब आख़िरभीड़ में हाथ से कम्बख़्त के ईमान गया