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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
बहार-ए-बाग़-ए-जन्नत है बहार-ए-रौज़ा-ए-साबिरज्वार-ए-अ’र्श-ए-आ’ला है ज्वार-ए-रौज़ा-ए-साबिर
बेदम शाह वारसी
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कलाम
फिर बहार आई चमन में ज़ख़्म-ए-दिल आए हुएफिर मिरी दाग़-ए-जुनूँ आतिश की पर काले हुए
इमाम बख़्श नासिख़
कलाम
नुमायाँ कर दिया उस ने बहार-ए-रू-ए-ख़ंदाँ कोकि दी नग़्मे को मस्ती रंग कुछ सेहन-ए-गुलिस्ताँ को
असग़र गोंडवी
कलाम
पीर नसीरुद्दीन नसीर
ग़ज़ल
चेहरे पे कुछ मुसर्रत-ए-फ़स्ल-ए-बहार क्या हैदिल में अलम की शिद्दत-ए-फ़स्ल-ए-बहार क्या है
हसन इमाम वारसी
शे'र
बहार आई है गुलशन में वही फिर रंग-ए-महफ़िल हैकिसी जा ख़ंदा-ए-गुल है कहीं शोर-ए-अ’नादिल है
शम्स फ़िरंगी महल्ली
शे'र
बहार आई है गुलशन में वही फिर रंग-ए-महफ़िल हैकिसी जा ख़ंदा-ए-गुल है कहीं शोर-ए-अ’नादिल है
शम्स फ़िरंगी महल्ली
ग़ज़ल
बहार आई है गुलशन में वही फिर रंग-ए-महफ़िल हैकिसी जा ख़ंदा-ए-गुल है कहीं शोर-ए-’अनादिल है