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ना'त-ओ-मनक़बत
कौसर-ओ-तसनीम भी थे जिस के लहजा पर निसार
ये उसी दिलदादा-ए-गंग-ओ-जमन की बज़्म है
अज़ीज़ वारसी देहलवी
छप्पय
अगम तीरथ गुर गम सुगम, अगम तपस्या जिग जोग विचारौ।
संत सूरातन अगम, अगम गुर ग्यांन उरि धारौ।
गंग जमन मधि वैसि करि, अगम वस्त अंतरि लहौ।।
महाराज हरिदास
सूफ़ी लेख
चरणदासी सम्प्रदाय का अज्ञात हिन्दी साहित्य - मुनि कान्तिसागर - Ank-1, 1956
चरनदास परनाम करि तन मन धन वारन दियो।।1।।
गंग जमन कैं बीच जहाँ निज डेरा दीन्हाँ।
भारतीय साहित्य पत्रिका
ना'त-ओ-मनक़बत
ऐसा हुआ न कोई भी शाह-ए-ज़मन के बा'द
आया हो लौट कर जो ख़ुदा से मिलन के बा'द
अब्दुल ख़ालिक़ दानिश
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नज़्म
जोगी-नामः
गर करो हुक्म तो बनवा दें तुम्हारा अस्थल
शहर में बाग़ में यार लब-ए-दरिया-ए-जमन
नज़ीर अकबराबादी
काफी
मैं विच मैं ना रह गई राई
हुन असाँ वहदत विच घर पाइआ वासा हैरत दे संग आया
जीवन जमन मरन वंजाइआ आपनी सुद्ध बुद्ध रही ना काई
बुल्ले शाह
कलाम
दिखला के झलक चमका के पलक दिल-बर-ओ-ज़मन जादू नज़री
मन छीन लियो तन छीन लियो तर्के शिफ़ा की ’इश्वा-गरी