Sufinama

जोगी-नामः

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    सफ़ः-ए-रूह पे तेरी ख़ूबी-ए-ख़त की है फबन

    है सुवैदा तिरे आशिक़ का तेरा ख़ाल-ए-ज़क़न

    रश्क-ए-गुल दस्त-ए-हिनाई कि कहे देख चमन

    हो रक़म किस क़लम-ए-शौक़ से गुंचः-ए-दहन

    इश्तियाक़े कि ब-दीदार तो दारद दिल-ए-मन

    अब जो मिल जाये कहीं वो तो ये हम उस से कहें

    कब तलक दर्द-ए-जुदाई को भला तेरे सहें

    इतना भी बस नहीं यार कि हम मर ही रहें

    दूर जिस दन से हुआ तुझ चमन-ए-हुस्न-ए-सीमीं

    मुझे बाग़ ख़ुश आता है गुलशन-ए-चमन

    बेद-ए-मजनूँ हैं कि मैं ताक परेशाँ-ख़ातिर

    या हैं ख़ाकिस्तर-ए-ख़ाशाक परेशाँ-ख़ातिर

    हम-ग़र्ज़ ऐसे हैं ग़मनाक परेशाँ-ख़ातिर

    चश्म-ए-नमनाक जिगर-चाक परेशाँ-ख़ातिर

    चाक पर चाक गरेबाँ से लगाता दामन

    जोर और ज़ुल्म से उस के कभी घबराना

    कभी शिक्वः-ए-बेदाद ज़बाँ पर लाना

    काम हरगिज़ किसी से नहीं आना-जाना

    कोई कुछ पूछे तो मुँह देख के चुप रह जाना

    तकल्लुम इशारत हिकायत सुख़न

    याद उस शोख़ की क्या क्या ही सितम लाती है

    जान बेचैनी से तन में मिरे घबराती है

    आह करता हूँ तो बिजली सी निकल आती है

    जब मैं रोता हूँ तो आँखों से बरस जाती है

    कभी सावन की झड़ी और कभी भादों की भरन

    दश्त और कोह में वहशी सा पड़ा फिरता हूँ

    बर्क़ की तर्ह से बेताब सदा फिरता हूँ

    मैं ग़रज़ तुझ से सनम जब से जुदा फिरता हूँ

    रात-दिन हिजर में जोगी सा बना फिरता हूँ

    बे-क़रारी से तिरे नाम की जपता सुमरन

    जोर और ज़ुल्म मिरे दल ने हज़ारों ही सहे

    शिक्वः-ए-जोर भला तेरा कहाँ तक करे

    अब तो ये हाल हुआ हिजर में यार मरे

    दोष पर बार-ए-अलम कानों में ग़म के मुन्दरे

    अश्कों के तार गले में पड़े सेली के नमन

    इशक में जोगी हुए जब से हमें भाई भबूत

    बैठे दर पर तेरे और गुरु है फैलाई भबूत

    देख टुक आन के किस रूप में रंग लाई भबूत

    पैरहन गेरुआ और तन के उपर छाई भबूत

    सर से ले पाऊँ तलक ख़ाक मली सौ सौ मन

    गुह दर-ए-का'बः पे पेशानी को अपनी घिसना

    गाह मस्जिद में मियाँ माँगना जा-जा के दुआ

    इंकिसारी से कभी देर में हर-दम जाना

    दम-ब-दम आह की पूँगी से बजाना ये सदा

    देखिए कौन सी दिन हर हमें देंगे दर्शन

    देखा मेरे तईं जो तन के उपर गुल खाए

    और कपड़े भी रंगे गेरुवे तन पर पाए

    देख ये हाल तअ'ज्जुब से बशर घबराए

    कोई कहता है कि जोगी-जी किधर को आए

    सच कहो कौन सी नगरी में तुम्हारा है वतन

    याद करते हो उसे नाम उसी का ले ले

    और ज़ेबा हैं बहुत आप के तन पर सीले

    वो जोगी भी बने ख़ूब हो तुम अलबेले

    कौन से पंथ में हो कौन गुरु के चेले

    कौन से रूप में हो कौन सा रखते हो बरन

    हम को जोगी-जी बता दीजिए ये हाल अपना

    तुम जो बै-रागी बने इस में नफ़ा क्या है भला

    और मुर्शिद से तुम्हारे है तुम्हें क्या पहूँचा

    नाम क्या जोग में है तुम को गुरु ने बख़्शा

    ध्यान क्या रखते हो किस ज्ञान का रखते हो चलन

    दुर्र-ए-शहवार जला कर जो बनाई है भबूत

    और क्यूँ तुम बताओ ये ख़ुश आई है भबूत

    इशक में किस के ये अब तन पे रमाई है भबूत

    किस लिए मुँह के उपर तुम ने लगाई है भबूत

    किस की उल्फ़त में ये बैराग का पहना अबरन

    किस लिए जोग लिया और रंगा कपड़ों को

    किस पे आशिक़ हो दिया रंज ये किस ने तुम को

    क्यूँ कर औक़ात बसर होती है ये हम से कहो

    क्या अलम खाते हो और किस की तलब रखते हो

    ध्वनी जल-पान भी या यूँ ही करोगे लंघन

    नाम पैग़म्बरों के कफ़नी पे लिखे सारे

    और गरेबाँ में हैं नाम ख़ुदा के लिखे

    तुम तो कामिल से नज़र आते हो अपने लेखे

    हम ने जोगी तो बहुत यूँ हैं हज़ारों देखे

    पर तुम्हारा तो ज़माने से निराला है चलन

    हम ने दुनिया में अजी सैकड़ों देखे जोगी

    देखे हर रंग के हर एक बरन के जोगी

    पर अर्ज़ तुम से नहीं देखे हैं हम ने जोगी

    तुम तो आते हो नज़र हम को नए से जोगी

    सच कहो जोग लिया तुम ने ये किस के कारन

    क्या हुआ जोगी-जी तुम को भला हम से तो कहो

    क्यूँ ख़जिल ख़्वार पड़े फिरते हो मुँह से बोलो

    किस लिए वहशी से फिरते हो बताओ हम को

    किस की है याद तुम्हें किस के लिए फिरते हो

    अब कहीं बैठोगे या यूँ ही फिरोगे बन बन

    किस लिए घर से तुम आए हो भला अपने निकल

    फिरते मानिंद-ए-सबा क्यूँ हो ब-दश्त-ओ-जंगल

    तुम से इक बात कहूँ उस पे अगर कीजे अमल

    गर करो हुक्म तो बनवा दें तुम्हारा अस्थल

    शहर में बाग़ में यार लब-ए-दरिया-ए-जमन

    या कहीं और बताओ कि जहाँ आप रहें

    या तो जंगल में अगर दिल लगे ये आप कहें

    या कि अस्थल के बना देने की तज्वीज़ करें

    या कि मथुरा जो पसंद आवे तो वाँ जागह लें

    या कदर बन में हो या मात महा बिंदराबन

    और अगर यूँ ही फिरोगे तो ये है मुश्किल सख़्त

    अस्थल इक हम जो बना दें तो ज़हे अपने बख़्त

    उस में अच्छा सा बिछा देवें तुम्हारे लिए तख़्त

    ख़ासे फूलों के लगा देवें उस अस्थल में दरख़्त

    जिस से आँखों को तरावत रहे और दिल हो मगन

    अब तो जोगी-जी कहा मान लो ये तुम मेरा

    एक जा बैठ रहो और करो हम पे दया

    मत फिरो यूँ ख़जिल-ओ-ख़्वार ब-दशत-ओ-सह्रा

    जब तो सुन सुन के ये हम ने कहा उस से बाबा

    तुझ को क्या काम फ़क़ीरों से ये करना अन-बन

    क्या गरज तुझ को जो पूछे है तू अहवाल मिरा

    जोग की पूछे तो बस इशक में ये जोग लिया

    और उस की ही जुदाई में फिरे हैं हर जा

    और वतन पूछे हमारा तो ये सुन रख बाबा

    या गली दोस्त की या यार के घर का आँगन

    मिस्ल-ए-सरसर उसी कूचे में फिरा करते हैं

    देख दरवाज़े को बस शाद हुआ करते हैं

    ख़ून-ए-दिल जा-ए-मय-ए-नाब पिया करते हैं

    इस के कूचे में सदा मस्त रहा करते हैं

    वही बस्ती वही नगरी वही जंगल वही बन

    गाते फिरते हैं सदा बीन लिए काँधे पे गीत

    जो अतीतों की है मुद्दत से वही अपनी रीत

    महव पीतम के हैं जब से कि लगी उस की पीत

    पंथ की पूछे तो जोगी जन्म के अतीत

    इशक के मेल में हम पेम का रखते हैं बरन

    मिले दिल में जो उल्फ़त के थे सो फूट गए

    जितना था माल मिरा तब उसे ले लूट गए

    अक़रबा दोस्त थे जितने वो भी छूट गए

    जब से इस शोख़ के फंदे में फँसे टूट गए

    जितने थे मज़हब-ओ-मिल्लत के जहाँ में बंधन

    इश्क़ में छोड़ के हम दुनिया-ओ-दीं बैठे हैं

    ख़ातिर-ए-आशुफ़्तः-ओ-दिल-गीर-ओ-हज़ीं बैठे हैं

    छोड़ सब ऐश जहाँ गोशः-गुज़ी बैठे हैं

    उस के हम दर पे मुँडा सर के तईं बैठे हैं

    रात-दिन पीते हैं धो धो के उसी के गुर के चरण

    ख़ंजर-ए-इश्क़ से बस अपना कलेजा है शक़

    ये तो ज़ाहिर है निशाँ मुँह का भी जो रंग है फ़क़

    ख़ूँ में आलूदः हैं ज़ख़्मी हैं कि जूँ रंग-ए-शफ़क़

    नाम को पूछे तो है नाम हमारा आशिक़

    सब से आज़ाद हुए यार का ले दामन

    हाल बेबाकी का क्या अपनी भला तुझ से कहें

    गर रहें भूके तो हरगिज़ भी कभी ग़म करें

    और खाने को मिले तो भी कुछ शाद रहें

    गर रहें जीते तो जीने की नहीं फ़िक्र हमें

    और मर जाएँ तो हरगिज़ नहीं परवा-ए-कफ़न

    देख नैरंगी ज़माने की हुए गिल-दर-गिल

    और मल तन को भबूत अपने गए ख़ाक में मिल

    कपड़े रंगने को तू आसान जान ग़ाफ़िल

    रंग वो रंगते हैं जिस रंग का रंगना मुश्किल

    रूप भरते हैं जिस रूप का भरना है कठिन

    छोड़ा जन्नत को जो आदम ने उसी की ख़ातिर

    और हर एक के की दम ने उसी की ख़ातिर

    जी में की अपने ख़ुशी ग़म ने उसी की ख़ातिर

    जोग बैराग लिया हम ने उसी की ख़ातिर

    सब के तईं छोड़ उसी की है अता की लगन

    रंगे कपड़ों से कर हम पे तू जोगी का गुमान

    हम ने क्या जाने किया किस लिए ऐसा सामान

    गर तू आक़िल है तो फिर दिल ही में अपने पहचान

    हम में और जोगी की सूरत में बड़ा फ़र्क़ है जान

    कहाँ से जोगी की अदा और कहाँ आशिक़ की फबन

    आतिश-ए-ग़म से जला जब से जलाया दिल-ओ-जान

    तब ये इक्सीर मिली हम को तू शक इस में जान

    तू तो आक़िल है बस अब अक़ल से अपनी पहचान

    ख़ाक है यार के कूचे की भबूत अब हर आन

    हम ने भी राख बनाई है जला कर तन-मन

    सुर्ख़ आँखों का जो पूछे है कि बाइ'स है कहा

    शौक़ मय का नहीं कुछ ज़ौक़ नहीं अफ़यून का

    क़दह बंग से इशक कभी हम को हुआ

    है अता के धतूरे का जो आँखों में नशा

    उस की गर्मी ही से रहते हैं सदा सुर्ख़ नैन

    कोई मोनिस है ग़म-ख़्वार है संग सात

    रहता हवन रंज में मशग़ूल सदा दिन और रात

    अब ख़ुदा जाने कि किस तर्ह कटेगी औक़ात

    और अस्थल के बनाने की कही तू ने जो बात

    ये बखेड़ा वो करे जिस के कने हो कुछ धन

    इशक जब से कि हुआ है हमें उस अचपल से

    जब से बेताब फिरा करते हैं और बेकल से

    हम से बेकल भी नहीं बैठे हैं इक जा कल से

    हम फ़क़ीरों को भला काम है क्या अस्थल से

    वही अस्थल है जहाँ मार के बैठे आसन

    ख़्वाहिश-ए-ज़र करें और किसी से माँगैं

    तख़्त और चत्र की भी कुछ नहीं पर्वा है हमें

    गोकुल और मथुरा के रहने की नहीं हिर्स करें

    जा पड़ें याद में उस शोख़ की जिस बस्ती में

    वही गूगल है हमें और वही है बिंदराबन

    जब से जोगी हुए दी उस को मता-ए-दिल-ओ-जाँ

    छोड़ बैठे भी आराम का जो था सामाँ

    हाजत-ए-तकियः है ने ख़्वाहिश-ए-बिस्तर मकाँ

    जा पड़े काक पे रख सर के तले हाथ जहाँ

    है वही फ़र्श वही तख़्त वही सिंघासन

    है ख़याल उस गुल-ए-रुख़्सार का हर शाम-ओ-पगाह

    बाग़-बाग़ीचे की हरगिज़ है नहीं हम को चाह

    चाह है चाह-ए-ज़क़न की नहीं दरकार है चाह

    फूल-फुलवारी की भी जब से नहीं कुछ परवाह

    जब से गुल खा के अता में जलाया है बदन

    रहता हूँ मुज़्तर-ओ-मग़्मूम मैं हर-दम हर-आन

    होश-ए-गुम-कर्द: फिरा करता हूँ और बे-सामान

    बाज़ ज़ुल्म से और जोर से तू हक़ को मान

    अब तो इस हाल को पहूँचा हूँ तिरे हिजर में जाँ

    गुल-बाग़-ए-वफ़ा दिल के चमन के गुलशन

    कहीं कहता है जो अहवाल मिरा कोई ज़रा

    सर को धुनता है हर एक पीर-ओ-जवाँ और लड़का

    घर में रहता हूँ तो रोता है हर-इक ख़्वेश अपना

    घर से बाहर जो निकलता हूँ तो मुँह देख मेरा

    मिरे अहवाल पे भी रोते हैं जंगल में हिरन

    ख़ातिर-आशुफ़्तः मैं फिरता हूँ हज़ीन-ओ-दिल-गीर

    इश्क़ में उस के सभी खो चुका इज़्ज़-ओ-तौक़ीर

    फिरता हूँ गलियों में दीवाना सा हर रोज़ ज़रीर

    क्या लिखूँ अब तो गुज़रती है जो कुछ मुझ पे 'नज़ीर'

    दिल-ए-मन दानद मन दानम दानद दिल-ए-मन

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुल्लियात-ए-नज़ीर अकबराबादी, संकलन: अब्दुलबारी आसी (पृष्ठ 722)
    • रचनाकार : नज़ीर अकबराबादी
    • प्रकाशन : मुंशी नवलकिशोर, लखनऊ (1951)

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