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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
अब जुनून-ए-'इश्क़-ए-अहमद फिर दोबारा हो गयाआज से सहरा-ए-तैबा गर हमारा हो गया
अब्दुल ग़फ़्फ़ार आरवी
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ग़ज़ल
जुनूँ को अब जुनून-ए-फ़ित्ना-सामाँ कर के छोड़ूँगाहद-ए-दामन को ता-हद्द-ए-गरेबाँ कर के छोड़ूँगा
अफ़क़र मोहानी
ना'त-ओ-मनक़बत
जब लुत्फ़-ए-बंदगी है अदा यूँ नवाज़ होख़्वाजा के दर पे भेजी जबीन-ए-नियाज़ हो
बाक़ीर शाहजहांपुरी
कलाम
जुनून-ए-आगही हूँ शोरिश-ए-हक़्क़-ए-सदाक़त हूँमैं 'इरफ़ान-ए-मोहब्बत हूँ मैं तूफ़ान-ए-मसर्रत हूँ
धर्म सरूप
ना'त-ओ-मनक़बत
जुनून-ए-इ'श्क़ का दा'वा ज़रूर करते हुएचलूँगा हश्र में फ़ख़्र-ओ-ग़ुरूर करते हुए
साक़िब ख़ैराबादी
फ़ारसी कलाम
दीवान:-ए-हुस्न-ए-वयम हाज़ा जुनून-उल-आशिक़ीनमस्त अज़ शराब-ए-हैरतम हाज़ा जुनून-उल-आशिक़ीन
औहदी
ना'त-ओ-मनक़बत
कोई सलीक़ा है आरज़ू का न बंदगी मेरी बंदगी हैये सब तुम्हारा करम है आक़ा कि बात अब तक बनी हुई है