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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
दकनी सूफ़ी काव्य
ख़जान ए इबादत
फ़स्ल भई कहूँ दरमियाने क़बरदफ़न क्यों जो करना सो ओ बेखबर
शाह मुहम्मद हैदराबादी
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ना'त-ओ-मनक़बत
’इबादत रब की कर बंदे रियाज़त रब की कर बंदेहमेशा ख़ौफ़ खा उस का हमेशा उस से डर बंदे
रमज़ान हैदर फ़िरदौसी
ग़ज़ल
रिंदों के लिए मय-ख़ाने की हर रस्म 'इबादत होती हैदिलबर को बिठा कर पेश-ए-नज़र चेहरे की तिलावत होती है
फ़क़ीर क़ादरी
ना'त-ओ-मनक़बत
अज्ञात
ग़ज़ल
शहीद-ए-इ’श्क़-ए-मौला-ए-क़तील-ए-हुब्ब-ए-रहमानेजनाब-ए-ख़्वाजः क़ुतुबुद्दीं इमाम-ए-दीन-ओ-ईमाने
वाहिद बख़्श स्याल
सूफ़ी कहावत
रू-ए ज़ेबा मरहम-ए-दिलहा-ए-ख़स्ता अस्त-ओ-कलीद-ए-दरहा-ए-बस्ता
एक ख़ूबसूरत चेहरा दुखी दिलों के लिए मरहम की तरह होता है, और बंद दरवाजों के लिए कुंजी
वाचिक परंपरा
ना'त-ओ-मनक़बत
गुल-ए-बुस्तान-ए-मा'शूक़ी मह-ए-ताबान-ए-महबूबीनिज़ामुद्दीन सुल्तान-उल-मशाइख़ जान-ए-महबूबी