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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
पैकर-ए-ख़लक़-ओ-मोहब्बत हैं शह-ए-तेग़-ए-अ’लीसाहब-ए-किरदार-ओ-सीरत हैं शह-ए-तेग़-ए-अ’ली
ज़फ़र अंसारी ज़फ़र
ग़ज़ल
उस से वाक़िफ़ हैं सर-ए-सहन-ए-गुलिस्ताँ कितनेहम किसी गुल की तलब में हैं परेशाँ कितने
ज़फ़र अंसारी ज़फ़र
ना'त-ओ-मनक़बत
क्यूँ न हो हर-सम्त शहर ख़्वाजा-ए-अजमेर काहिन्द के दिल पर है क़ब्ज़ा ख़्वाजा-ए-अजमेर का
ज़फ़र अंसारी ज़फ़र
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ग़ज़ल
मेरी आँख बंद थी जब तलक वो नज़र में नूर-ए-जमाल थाखुली-आँख तो ना ख़बर रही कि वो ख़्वाब था कि ख़्याल था
बहादुर शाह ज़फ़र
ना'त-ओ-मनक़बत
शरीअ'त के मोबल्लिग़ मा'रिफ़त के तर्जुमाँ तुम होये हक़ है मेरे मौला वारिस-ए-शाह-ए-ज़माँ तुम हो
ज़फ़र अंसारी ज़फ़र
ना'त-ओ-मनक़बत
इतने आ'ला इतने अफ़ज़ल इतने बरतर हैं अ'लीइ'ल्म के घर हैं नबी तो इ'ल्म के दर हैं अ'ली