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दकनी सूफ़ी काव्य
जवाहर उल इसरारे अल्ला 1.4 है सो हो हो होय रही है
आपें बरकत होय, करे भेस मेरा लेतामुँज कूँ आके शाहअली तर्ई दिखला देता
माशूक़ अल्लाह
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ना'त-ओ-मनक़बत
बरकत-ए-ज़िक्र-ए-रसूलुल्लाह हो किस से बयाँग़म-ज़दा-ए-हर हज़ीं है बज़्म-ए-मीलादुन्नबी
शाह अब्दुल क़ादिर बदायूँनी
ना'त-ओ-मनक़बत
बा'इस-ए-बरकत बना है बहर-ए-लुत्फ़-ए-ईज़िदीअब्र-ए-रहमत गोशा-ए-दामान-ए-शैख़ुल-’आरिफ़ीं
क़ातिल अजमेरी
ना'त-ओ-मनक़बत
बरकत है ये पयाम उम्मत की सुनो तो 'तक़ी'जारी है फ़ैज़ आज भी दरिया-ए-नील का
शाह तक़िउद्दिन मनेरी
ना'त-ओ-मनक़बत
मज्लिस में उन की आकर देखो 'अजब है बरकतममलू है 'इश्क़-ए-हक़ से गुफ़्तार चिश्तियों का
अफ़ज़ल हुसैन अस्दक़ी
ना'त-ओ-मनक़बत
जो बज़्म-ए-'उर्स में हर साल होते हैं हाज़िरवो अपनी झोली में भरते हैं बरकत-ए-महबूब