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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
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सूफ़ी कहानी
बादशाह का एक दरख़्त की तलाश करना कि जो उस का मेवा खाए वो ना मरे- दफ़्तर-ए-दोउम
एक अ’क़्ल-मंद ने क़िस्से के तौर पर बयान किया कि हिन्दोस्तान में एक दरख़्त है जो
रूमी
फ़ारसी कलाम
बर हाल-ए-ज़ार-ए-मा नज़रे कुन ज़-रू-ए-लुत्फ़तू बादशाह-ए-हुस्न-ओ-'ख़ुसरव' गदा-ऐ-तू
अमीर ख़ुसरौ
ग़ज़ल
चराग़-ए-मह सीं रौशन-तर है हुस्न-ए-बे-मिसाल उस काकि चौथे चर्ख़ पर ख़ुर्शीद है अक्स-ए-जमाल उस का
सिराज औरंगाबादी
फ़ारसी कलाम
दर हुस्न-ए-रुख़-ए-ख़ूबाँ पैदा हम: ऊ दीदमदर चश्म-ए-निको-रूयाँ ज़ेबा हम: ऊ दीदम
फ़ख़रुद्दीन इराक़ी
ना'त-ओ-मनक़बत
तू बादशाह-ए-हुस्न है मैं हूँ तेरा फ़क़ीरदे वस्ल की 'नियाज़ी' को ख़ैरात दो घड़ी
अ'ब्दुल सत्तार नियाज़ी
शे'र
वो बहर-ए-हुस्न शायद बाग़ में आवेगा ऐ 'एहसाँ'कि फ़व्वारा ख़ुशी से आज दो दो गज़ उछलता है
अ’ब्दुल रहमान एहसान देहलवी
ना'त-ओ-मनक़बत
है हुस्न-ए-अज़ल अहमद-ए-मुख़्तार में आयाऔर जिन्न-ओ-मलक में ही वही नूर समाया