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दकनी सूफ़ी काव्य
रोज़ोतुल इतहार
ये मातम की ख़िजाँ का देख शेवाउरूसे बाग़ हो गई आज बेवा
नवाज़िद अली ख़ान शैदा
ना'त-ओ-मनक़बत
अब ना होंगी दफ़न ज़ेर ख़ाक ज़िंदा बच्चीयांज़ुलम के मारे ना लेंगी कोई बेवा सिसकियां
महबूब गौहर इस्लामपुरी
व्यंग्य
मुल्ला नसरुद्दीन- पहली दास्तान
फिर उस ने बैठे हुए लोगों के चेहरे को देखा। दुख की लकीरों और झुर्रियों से
लियोनिद सोलोवयेव
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सूफ़ी कहानी
साइल का हीले से बहलोल से भेद कहवा लेना- दफ़्तर-ए-दोउम
एक शख़्स कह रहा था कि मुझे ऐसा अ’क़्लमंद चाहिए जिससे आड़े वक़्त मश्वरा लिया करूँ।