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ना'त-ओ-मनक़बत
ग़म-ए-फ़ुर्क़त से हूँ बे-ताब या महबूब-ए-सुबहानीदिखा दो रू-ए-’आलम-ताब या महबूब-ए-सुबहानी
शाह अब्दुल क़ादिर बदायूँनी
मल्फ़ूज़
उसी माह और उसी सन की 27 तारीख़ को फिर सआ’दत-ए-पा-बोसी नसीब हुई।शैख़ जमालुद्दीन मुतवक्किल, शम्स
बाबा फ़रीद
ग़ज़ल
शब-ए-फ़ुर्क़त में याद उस बे-ख़बर की बार बार आईभुलाना हम ने भी चाहा मगर बे-इख़्तियार आई