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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
गुल-ए-बुस्तान-ए-मा'शूक़ी मह-ए-ताबान-ए-महबूबीनिज़ामुद्दीन सुल्तान-उल-मशाइख़ जान-ए-महबूबी
हसरत अजमेरी
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बैत
अरिनी कहेंगे आप ब-शोक़-ए-तमाम वो
अरिनी कहेंगे आप ब-शोक़-ए-तमाम वोमूसा नहीं हैं हम कि सुनें लनतरानियाँ
इब्राहीम आजिज़
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
मज़रा-ए’-सब्ज़-ए-फ़लक दीदम-ओ-दास-ए-मह-ए-नौयादम अज़ किश्तः-ए-ख़्वेश आमद-ओ-हंगाम-ए-देरौ
हाफ़िज़
कलाम
ज़ुहूर-ए-नूर-ए-रहमत है तमाम अतराफ़ का'बा मेंक़लम क्या ख़ाक उठाएगा कोई औसाफ़ का'बा में
हाजी वारिस अली शाह
कलाम
उस यार ने अपनी शक्ल दिखा आख़िर को काम तमाम कियादिल मुफ़्त में मेरा छीन लिया आख़िर को काम तमाम किया
मख़्दूम ख़ादिम सफ़ी
गूजरी सूफ़ी काव्य
बन्दे हैं तेरी छब के मह से जमालवाले
बन्दे हैं तेरी छब के मह से जमालवाले,सब गुल से गालवाले, संबुल से बालवाले।