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फ़ारसी कलाम
ख़ुदा रा ऐ सबा ब-गुज़र ब-सू-ए-ख़ाकसार-ए-मनब-बर दर कू-ए-आँ जानान: ईं मुश्त-ए-ग़ुबार-ए-मन
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
सलाम
ये ‘ज़िया’-ए-ख़स्ता तेरी राह का मुश्त-ए-ग़ुबारये भी है तेरा करम तेरी 'इनायत को सलाम
इश्तियाक़ आलम शहबाज़ी
ग़ज़ल
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
कभी चार फूल चढ़ा दिए जो किसी ने मेरे मज़ार परतो हज़ारों चर्ख़ से बिजलियाँ गिरीं एक मुश्त-ए-ग़ुबार पर
अफ़क़र मोहानी
बैत
मुश्त-ए-ख़ाक-ए-मा सरापा फ़र्श-ए-तस्लीम अस्त व बस
मुश्त-ए-ख़ाक-ए-मा सरापा फ़र्श-ए-तस्लीम अस्त व बससज्दः-ए-मा रा जबीने-ओ-सरे दरकार नीस्त
बेदिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
एक मुश्त-ए-ख़ाक था वो भी तो मिट्टी में मिलापूछते हो क्या मिरा नाम-ओ-निशाँ कुछ भी नहीं