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फ़ारसी सूफ़ी काव्य
बांग ज़दम नीम शबाँ कीस्त दरीं ख़ाना-ए-दिलगुफ़्त मनम कज़ रुख़-ए-मन शुद मह-ओ-ख़ुर्शीद ख़जिल
रूमी
कलाम
सलीम कौसर
शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
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मल्फ़ूज़
उसी माह और उसी सन की 27 तारीख़ को फिर सआ’दत-ए-पा-बोसी नसीब हुई।शैख़ जमालुद्दीन मुतवक्किल, शम्स
बाबा फ़रीद
ग़ज़ल
शब-ए-फ़ुर्क़त में याद उस बे-ख़बर की बार बार आईभुलाना हम ने भी चाहा मगर बे-इख़्तियार आई
हसरत मोहानी
सूफ़ी कहावत
अगर शबहा-ए-हमा शब-ए-क़द्र बूदे, शब-ए-क़द्र बे-क़द्र बूदे
अगर हर रात शब-ए-क़द्र होती, तो शब-ए-क़द्र की कोई महानता नहीं होती।
वाचिक परंपरा
ग़ज़ल
बस कि दिल सौदा-ज़दा है ऐ शब-ए-हिज्राँ मिराशम्अ'-रू कूँ बोल जा कर हालत-ए-गिर्यां मिरा
तुराब अली दकनी
ना'त-ओ-मनक़बत
ता'बीर-ए-शब-ए-ग़ैब शबिस्तान-ए-मोहम्मदवल-फ़ज्र तुलू-ए'-रुख़-ए-ताबान-ए-मोहम्मद