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सूफ़ी लेख
आगरा में ख़ानदान-ए-क़ादरिया के अ’ज़ीम सूफ़ी बुज़ुर्ग
वक़्त-ए-रुख़्सत ये सुख़न मुर्शिद मुझे फ़रमा गयाहर किसी को अहल-ए-आ’लम बीच है जाए-पनाह
फ़ैज़ अली शाह
ग़ज़ल
हम को ज़िंदाँ से जो वह्शत सू-ए-सहरा ले चलीवक़्त-ए-रुख़्सत मिल के हम रोए दर-ओ-दीवार से
शम्शाद लखनवी
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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
'शकील' अफ़्सोस वक़्त-ए-रुख़्सत माह-ए-सियाम आयाख़ुदा फिर लाएगा ये दिन अगर है ज़िंदगी अपनी
शकील बदायूँनी
ना'त-ओ-मनक़बत
कहा माँ ने ख़्वाजा से बर वक़्त-ए-रुख़्सतज़रा मुखड़ा अपना दिखा जाने वाले
ग़ुलाम मोईनुद्दीन काले
ग़ज़ल
शहीद-ए-इ’श्क़-ए-मौला-ए-क़तील-ए-हुब्ब-ए-रहमानेजनाब-ए-ख़्वाजः क़ुतुबुद्दीं इमाम-ए-दीन-ओ-ईमाने
वाहिद बख़्श स्याल
सूफ़ी कहावत
रू-ए ज़ेबा मरहम-ए-दिलहा-ए-ख़स्ता अस्त-ओ-कलीद-ए-दरहा-ए-बस्ता
एक ख़ूबसूरत चेहरा दुखी दिलों के लिए मरहम की तरह होता है, और बंद दरवाजों के लिए कुंजी
वाचिक परंपरा
ना'त-ओ-मनक़बत
गुल-ए-बुस्तान-ए-मा'शूक़ी मह-ए-ताबान-ए-महबूबीनिज़ामुद्दीन सुल्तान-उल-मशाइख़ जान-ए-महबूबी