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ना'त-ओ-मनक़बत
क्यूँ न हो हर-सम्त शहर ख़्वाजा-ए-अजमेर काहिन्द के दिल पर है क़ब्ज़ा ख़्वाजा-ए-अजमेर का
ज़फ़र अंसारी ज़फ़र
शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
हयात-अफ़्ज़ा निगार-ए-शहर-ए-सरकार-ए-मदीना हैसहाब-ए-रहमत-ए-बारी यहाँ हर दम बरसता है
वासिफ़ रज़ा वासिफ़
ना'त-ओ-मनक़बत
शहर-ए-ख़्वाजा में हूँ अपना तो गुलिस्ताँ है यहीबाग़-ए-जन्नत है यही रौज़ा-ए-रिज़वाँ है यही
मोहम्मद हाशिम ख़ान
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सूफ़ी कहानी
एक शहर को आग लगनी हज़रत-ए-उ’मर के ज़माने में- दफ़्तर-ए-अव्वल
हज़रत-ए-उ’मरऊ के ज़माना-ए-ख़िलाफ़त में एक शहर को आग लगी। वो इस बला की आग थी कि
रूमी
सूफ़ी लेख
"है शहर-ए-बनारस की फ़ज़ा कितनी मुकर्रम"
तारीख़ की रौशनी में इस हक़ीक़त से कौन इंकार कर सकता है कि जिन मक़ासिद के
रय्यान अबुलउलाई
शे'र
गुज़र जा मंज़िल-ए-एहसास की हद से भी ऐ 'अफ़्क़र'कमाल-ए-बे-खु़दी है बे-नियाज़-ए-होश हो जाना
अफ़क़र मोहानी
शे'र
गुज़र जा मंज़िल-ए-एहसास की हद से भी ऐ 'अफ़्क़र'कमाल-ए-बे-खु़दी है बे-नियाज़-ए-होश हो जाना
अफ़क़र मोहानी
सूफ़ी कहानी
शाही मुनादी सुनकर दल्क़क मस्ख़रे का गांव से शहर को दौड़ना - दफ़्तर-ए-शशुम
बादशाह-ए-तिरमिज़ के पास एक मस्ख़रा दल्क़क बादशाह का बहुत चहेता था। एक-बार रुख़्सत लेकर अपने गांव
रूमी
शे'र
मिरी सम्त से उसे ऐ सबा ये पयाम-ए-आख़िर-ए-ग़म सुनाअभी देखना हो तो देख जा कि ख़िज़ाँ है अपनी बहार पर
जिगर मुरादाबादी
ना'त-ओ-मनक़बत
मरीज़-ए-दिल की शिफ़ा ला-इलाहा इल-लल्लाहहर इक मरज़ की दवा ला-इलाहा इल-लल्लाह
इम्दाद अ'ली उ'ल्वी
ना'त-ओ-मनक़बत
शनासा-ए-रुमूज़-ए-ला-मकाँ हैं औलिया-अल्लाहख़ुदा के मुस्तफ़ा के तर्जुमाँ हैं औलिया-अल्लाह
हबीबुल्लाह साग़र वारसी
ना'त-ओ-मनक़बत
मेरी सम्त मुश्किलों ने जो कभी नज़र उठाईवहीं याद-ए-फ़ख़्र-ए-रहमत मेरी रहबरी को आई
शैदा वारसी
ना'त-ओ-मनक़बत
किताब-ए-दिल पे रक़म ला-इलाहा-इल्लल्लाहपयाम-ए-शाह-ए-उमम ला-इलाहा-इल्लल्लाह