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पद
देखा है रिंदों की तूने ज़ाहिद कबहू सोहबत
देखा है रिंदों की तूने ज़ाहिद कबहू सोहबतजो कुछ पावें पीवें पिलावें रखें ख़ुदा की वहदत
कवि दिलदार
फ़ारसी कलाम
ख़ुश ब-दीदम सूफि़याँ रा सोहबत-ए-ख़म्मार मस्तआ’शिक़ाँ बा-सिद्क़ माँदः वा'दः-ए-दीदार मस्त
सादी शीराज़ी
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दकनी सूफ़ी काव्य
याजदह मजालिस
अयाँ है तुकमूँ अब सोहबत की रग़बतकहा मैंने न ............ .....हूँ सोहबत
नवाये दकनी
बैत
कसे गीरद आराम-ए-दिल दर किनार
कसे गीरद आराम-ए-दिल दर किनारकि अज़ सोहबत-ए-ख़ल्क गीरद किनार
सादी शीराज़ी
ग़ज़ल
मिज़ाजें ना-मुवाफ़िक़ हों तो कब सोहबत बरार होएनहीं मिलती हमारी तब्अ' इन दुनिया के जीफ़ों सीं
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
ख़ुश हूँ मैं सोहबत-ए-मजनूँ सीं न लियो अ'क़्ल का नामआश्नाई की कहाँ बास है बेगाने में