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ग़ज़ल
हिजाब-ए-ख़ास के पर्दे उठे हैं कैफ़-ओ-मस्ती मेंन जाने किस की हस्ती देखता हूँ अपनी हस्ती में
मुज़्तर ख़ैराबादी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
हिजाब-ए-चेहर:-ए-जाँ मी-शवद गु़बार-ए-तनमख़ुशा दमे कि अज़ीं चेहर: पर्द: बर-फ़िगनम
हाफ़िज़
कलाम
फ़राज़ वारसी
ग़ज़ल
वो जल्वे जो हिजाब-ए-नाज़ से महफ़िल में आते हैंमेरे दिल से निकलते हैं कि मेरे दिल में आते हैं
ज़हीन शाह ताजी
शे'र
ख़ुद तुम्हें ये चाँद-सा मुखड़ा करेगा बे-हिजाबमुँह पे जब मारोगे तुम झुरमुट कताँ हो जाएगा