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फ़ारसी सूफ़ी काव्य
सहर चू बुलबुल-ए-बे-दिल दमे शुदम दर बाग़कि ता चू बुलबुल-ए-बे-दिल कुनम ई'लाज-ए-दिमाग़
हाफ़िज़
कलाम
आरज़ू-ए-वस्ल-ए-जानाँ में सहर होने लगीज़िंदगी मानिंद-ए-शम्अ' मुख़्तसर होने लगी
ग़ुलाम मोईनुद्दीन गिलानी
ग़ज़ल
सहर होते ही उठ कर वो जो घर से बाहर आ-निकलाउधर ही इत्तिफ़ाक़न फिरते-फिरते मैं भी जा निकला