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साखी
बिरह का अंग - हँस हँस कंत न पाइया जिन पाया मिन रोय
हँस हँस कंत न पाइया जिन पाया तिन रोयहाँसी खेले पिय मिलैं तो कौन दुहागिनि होय
कबीर
सलोक
फ़रीदा जे मैं पुछां हंस के सो मैं पूछन रोइ
फ़रीदा जे मैं पुछां हंस के सो मैं पूछन रोइजग सभोयी ढूँढियां डुक्खाँ बाझु न कोइ
बाबा फ़रीद
ग़ज़ल
ज़िंदगी थी इक हबाब और उस को क्या समझा था मैंहाँ हयात-ए-जावेदानी से सिवा समझा था मैं
बेताब काल्प्वी
कलाम
क़मर जलालवी
अरिल्ल
संत मता है सार और सब जाल पसारा
संत मता है सार और सब जाल पसारापरम हंस जग भेष बहे सब मन की लारा