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ज़िंदगी थी इक हबाब और उस को क्या समझा था मैं

बेताब कालपवी

ज़िंदगी थी इक हबाब और उस को क्या समझा था मैं

बेताब कालपवी

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    ज़िंदगी थी इक हबाब और उस को क्या समझा था मैं

    हाँ हयात-ए-जावेदानी से सिवा समझा था मैं

    कोई समझाए कि आख़िर क्या बुरा समझा था मैं

    उन की लग़्ज़िश को अगर अपनी ख़ता समझा था मैं

    सादगी कहिए उसे मेरी कि हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़

    थे वही क़ातिल जिन्हें दर्द-आश्ना समझा था मैं

    कुछ अ'जब माहौल था मेरी शब-ए-अंदोह का

    क़ुतुब की आवाज़ को तेरी सदा समझा था मैं

    दर्द-ए-दिल को मैं बुरा कहता ये मुमकिन ही था

    दर्द-ए-दिल को भी तुम्हारी ही अ'ता समझा था मैं

    ग़ौर से देखा तो पाया उस को शह-ए-रग के क़रीब

    अपनी ही कोताह-बीनी से जुदा समझा था मैं

    सज्दा-गाह-ए-क़ुदसियाँ सद सज्दा-गाह-ए-इंस-ओ-जिन

    हुस्न में जल्वा उसी का है बजा समझा था मैं

    ये ग़लत-फ़हमी थी तो और फिर क्या चीज़ थी

    इब्तिदा-ए-इ'श्क़ को भी इंतिहा समझा था मैं

    ज़िंदगी के साथ हैं बेताब सारी कुल्फ़तें

    क्या ग़लत था दर्द-ए-दिल को ला-दवा समझा था मैं

    स्रोत :
    • पुस्तक : तज़्किरा-ए-शो’रा-ए-उत्तर प्रदेश हिस्सा सोउम (पृष्ठ 82)
    • रचनाकार : इरफ़ान अ’ब्बासी
    • प्रकाशन : ` (1983)

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