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सूफ़ी उद्धरण
काइनात का कोई ग़म ऐसा नहीं है जो आदमी बर्दाश्त न कर सके।
काइनात का कोई ग़म ऐसा नहीं है जो आदमी बर्दाश्त न कर सके।
वासिफ़ अली वासिफ़
ग़ज़ल
जिगर मुरादाबादी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
बुलबुले बर्ग-ए-गुले-ख़ुश-रंग दर मिंक़ार दाश्तवंदर आँ-बर्ग-ओ-नवा-ख़ुश-नालः-हा-ए-ज़ार दाश्त
हाफ़िज़
फ़ारसी कलाम
शगुफ़्त ग़ुंचः-ए-दिल अज़ हवा-ए-फ़स्ल-ए-बहारनिहाल-ए-ख़ातिर-ए-यख़-बस्तः बर्ग-ओ-बार आवुर्द
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
ग़ज़ल
दो दिन के बर्ग-ओ-बार पर बुलबुल न कर ग़ुरूरआख़िर ख़िज़ाँ में होएगी जूँ चोबदार शाख़