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सूफ़ी लेख
बिहार में क़व्वालों का इतिहास
क़व्वाली शब्द अरबी भाषा के शब्द ‘क़ौल’ से लिया गया है। क़ौल पढ़ने वाले व्यक्ति को
रय्यान अबुलउलाई
होरी
होरी होय रही अहमद जियो के द्वार
होरी होय रही अहमद जियो के द्वारनबी अली को रंग बनो है हसन हुसैन खिलार
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
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ना'त-ओ-मनक़बत
सदक़ा इन आ’याँ का हो छे ऐ'न ’इज़्ज़ ’इल्म-ओ-अमल’अफ़्व-ओ-’इरफ़ाँ आ'फ़ियत अहमद 'रज़ा' के वास्ते
अहमद रज़ा ख़ान
ग़ज़ल
पहना है कुछ तसर्रुफ़-ए-औहाम है कि हमचेहरा पे हक़ के पाते हैं पर्दा नक़ाब का
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
कलाम
मद्रसे में आशिक़ों के जिस की बिस्मिल्लाह होउस का पहला ही सबक़ यारो फ़ना फ़िल्लाह हो
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
फ़ारसी कलाम
अहद रा सूरत-ए-मक़सूद अहमद बूद अहमद बूदन-बूद अज़ हक़ निशाँ वर बूद अहमद बूद अहमद बूद
अज़ीज़ सफ़ीपुरी
नज़्म
निसार मैं तेरी गलियों के
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकलेनज़र चुरा के चले जिस्म ओ जाँ बचा के चले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
होरी
सुन मोरी सजनी रुत फागुन की है बहार
सुन मोरी सजनी रुत फागुन की है बहारहोरी खेले धूम मचावे नाचे दे दे तार
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
बसंत
ख़्वाजा मोइनुद्दीन के घर आज धाती है बसंतक्या बन बना और सज सजा मुजरे को आती है बसंत