बिहार में क़व्वालों का इतिहास
क़व्वाली शब्द अरबी भाषा के शब्द ‘क़ौल’ से लिया गया है। क़ौल पढ़ने वाले व्यक्ति को क़व्वाल कहा जाता है। क़ौल का आम मतलब ‘क़ौल-ए-पैग़म्बर’ (हज़रत मोहम्मद पाक का कहा हुआ कथन) है, जिसे आपने हज़रत मौला अली के बारे में कहा था। क़व्वाली की शुरुआत हज़रत अमीर ख़ुसरौ ने की थी। उनके समय से ही क़व्वाली की परंपरा चली आ रही है, जो अब तक बनी हुई है। ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया के समय में क़व्वाली को बड़ी प्रसिद्धि मिली और नई तरह की क़व्वालियों की शुरुआत हुई। लोग क़व्वाली के इतिहास व परंपरा और उस के सही-ग़लत होने की बहस में इस क़दर उलझे कि इस के गाए जाने के ख़ास तरीक़े और गायकी पे खुल कर बात ही नही हो पाई। हमारे बुज़ुर्ग पहले ही क़व्वाली पर बहुत कुछ लिख चुके हैं, लेकिन फिर भी मेरा मानना है कि क़व्वाली और इस से जुड़ी चीज़ों पर बात करना ज़रूरी है, ताकि हमारे पाठक इसे सही ढंग से समझ पाएँ।
महफ़िल-ए-समाअ (क़व्वाली) के बीच सुनाए जाने वाले शेर सुन कर मिलने वाला आनंद एक तरफ़ और क़व्वालों का साज़ छेड़ना और सुर-ताल मिलाना एक तरफ़। इन दोनों से सुनने वाले के दिल पर क्या असर पड़ता है, इसे केवल एक संगीत-रसिक ही समझ सकता है। कुछ ऐसा ही हाल बिहार के क़व्वालों की महफ़िलों का होता था, लेकिन अब तो न वो लोग रहे और न ही सुर-ताल पर दिल निकाल कर रख देने वाले रसिक श्रोता। न महफ़िलों का वो रंग बाक़ी रहा और न ही क़व्वाली पढ़ने का वो ख़ास अंदाज़, जिससे पूरी महफ़िल कैफ़-ओ-सुरूर में डूब जाती थी।
हज़रत शाह अकबर दानापूरी फ़रमाते हैं कि:
ये वही दिल है कि माशूक़ों का था मद्द-ए-नज़र था हुजूम आठ पहर
अब वही दिल है कि कोई भी ख़रीदार नहीं ऐसे बाज़ार गिरा
सूफ़ियों के किसी सिलसिले ने क़व्वाली को हराम नहीं कहा। हज़रत अमीर हसन सिजज़ी ने एक बार ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया की ख़िदमत में अर्ज़ किया कि सूफ़ियों का एक गिरोह क़व्वाली का इंकार करता है और उसे ग़लत कहता है, तो आप ने मुस्कुराते हुए फ़रमाया कि ‘‘उन में ज़ौक़ ही नहीं इसलिए वे समाअ (क़व्वाली) नहीं सुनते।’’
क़व्वाली क्या है? दिल को पिघला देने का फ़न और ख़ुदा के इश्क़ से दिलों को रौशन करने की लौ। आख़िर इसमें वह कौन सी चीज़ है, जो सुनने वाले लोगों के दिमाग़ों को जिला बख़्शती है, दिलों को मोम की तरह पिघला देती है, तबीअत को वज्द में ला देती है और ख़ून की गर्दिश को तेज़ कर देती है? वो इश्क़ है और यह उसी ज़ात-ए-अक़्दस का फ़ैज़ान है कि इंसान क़व्वाली के लम्हों में उन्हीं का हो जाता है।
ऐसी दर्जनों मिसालें बिहार में मौजूद हैं, जिन की कैफ़ियत मज्लिस-ए-समाअ से उरुज पर आ गई, कितनों को दीदार-ओ-विसाल नसीब हुआ है। बाज़ सूफ़ी तो मज्लिस का एहतिमाम एक ख़ास कमरे में करते थे, जहाँ पर केवल उन के कुछ ख़ास मुरीद मौजूद होते।”
(दिल, मलफ़ूज़ात-ए-हज़रत शाह अकबर दानापूरी)
ये एक ऐसी हालत है, जिस का इज़हार ज़बान से नहीं किया जा सकता। जिस ने मज़ा ही नहीं चखा है, वह लज़्ज़त आशना कैसे हो सकता है? सूफ़ियों से जब ऐसी हरकतें सरज़द होती हैं, वह उन की हालत की बेक़रारी है, उसे रक़्स नहीं कहा जा सकता। अगर किसी को शक-ओ-शुब्हा या एतराज़ हो सकता है, तो वो एतराज़ या शक-ओ-शुबहा रक़्स पर हो सकता है, बेक़रारी में नहीं। जैसा कि हम जानते हैं कि अशआर का सुनना और हालत का तारी होना हदीस से साबित है। उन में से एक सहीह हदीस ‘हज़रत मख़दूम-ए-जहाँ शैख़ शर्फ़ुद्दीन अहमद याह्या मनेरी’ ने मकतूबात-ए-सदी में हज़रत अनस से नक़्ल की है किः
“हम हज़रत मोहम्मद के पास थे, हज़रत जिब्रईल आए और कहा कि, या रसूलुल्लाह! आप को बशारत हो कि आप की उम्मत के दरवेश-ओ-फ़क़ीर, अमीरों के मुक़ाबले पाँच सौ साल पहले जन्नत में दाख़िल होंगे। ये खुश-ख़बरी सुन कर हुज़ूर ख़ुश हुए और फ़रमाया कि, यहाँ कोई ऐसा है, जो इस मौक़े पर शे’र सुनाए?” एक देहाती ने कहा कि,” हाँ! या रसूलुल्लाह!। आप ने फ़रमाया, आओ, आओ! उस ने शे’र पढ़े। सुन कर हुज़ूर ने तवाजुद फ़रमाया और जितने लोग वहाँ थे सब झूमने लगे, यहाँ तक कि हुज़ूर की चादर काँधे से गिर पड़ी। जब इस हाल से फ़ारिग़ हुए, तो मुआविया बिन सुफ़ियान ने कहा कि, कितनी अच्छी है, आप की ये बाज़ी या रसूलुल्लाह! आप ने फ़रमाया कि, दूर हो ऐ मुआविया! वह शख़्स करीम नहीं है, जो दोस्त का ज़िक्र सुने और झूम न उठे। फ़िर हुज़ूर की चादर के चार सौ टुकड़े कर के लोगों में बाँट दिये गये।’’
(मक्तूबात-ए-सदी, बयान-ए-क़व्वाली)
“इसी तरह तालियाँ बजाने के मुतअल्लिक़, हज़रत उत्बतुल ग़ुलाम की एक रिवायत है कि आप ने किसी से कोई शेर सुना और इतना हाथ पर हाथ मारा कि उँगलियों से ख़ून के क़तरे टपकने लगे।”
(मकतूबात-ए-सदी, बयान-ए-क़व्वाली)
ख़्वाजा अबू सईद अबुल-ख़ैर फ़रमाते हैं किः
“जब फ़क़ीर क़व्वाली में हाथ पर हाथ मारता है, तो ख़्वाहिश उस के हाथ से ख़त्म हो जाती है और जब ज़मीन पर पाँव मारता है तो पाँव की ख़्वाहिश निकल जाती है और जब आवाज़ लगाता है तो अन्दर की ख़्वाहिश बाहर निकल जाती हैं।”
(मकतूबात-ए-सदी, बयान-ए-क़व्वाली)
ख़ैर! वक़्त गुज़रने के साथ क़व्वाली के तौर-तरीक़े वह पहले वाले न रहे उस की वुजूहात मुख़्तलिफ़ हैं। टेक्नोलॉजी का उरुज, क़व्वाली की अवाम में बढ़ती हुई शोहरत, ख़ानक़ाही निज़ाम का ज़वाल और क़व्वाली में तरह-तरह के साज़ों का शामिल होना इसकी वजहें हैं। जिनसे सही-ग़लत की पाबंदियों का ख़्याल कम होता गया और देखते ही देखते ये आम लोगों की चीज़ हो गई। फ़िल्में बनने लगीं, तो बहुत से तजरिबात हुए। लोगों के ज़हन में ख़्याल आया कि क़व्वाली को भी फ़िल्म का हिस्सा बना कर देखना चाहिये। फिर एक और नया सिलसिला शुरु हो गया। इससे असल मक़सद तो कहीं खो गया, लेकिन क़व्वाली की समाज में शोहरत बढ़ती ही चली गई। अब वह शक्ल तो बाक़ी ही नहीं, जो ख़ानक़ाहों में पढ़ी जाती थी। तरह-तरह की वीडियोज़ और रिकॉर्डिंग का सिलसिला शुरू हो गया है और बनावटी तरीक़े ने क़व्वाली की उस असल शक्ल को ख़त्म कर दिया।
क़व्वाली मौसीक़ी की एक ऐसी विधा है, जिस में साज़-ओ-आहंग के साथ ख़ुदा की तारीफ़ बयान की जाती है। इन दिनों एक मर्तबा फिर क़व्वाली अपने ऊरुज पर है, क्योंकि उसे एक नए अंदाज़ में पेश किया जा रहा है, जो नई नस्ल को बहुत भाता है। अब तो शादी-ब्याह के मौक़ों पर और यूनिवर्सिटी के फ़ेस्ट में भी शाम-ए-क़व्वाली और महफ़िल-ए-क़व्वाली का आयोजन होने लगा है। इस फ़न को फिर से ज़िन्दा करने में पुराने क़व्वालों ने बड़ा किरदार अदा किया है।
बिहार ने बहुत से ऐसे क़व्वाल दिए हैं, जिन्होंने अच्छी शोहरत पाई।
लियाक़त हुसैन क़व्वाल, बिहार शरीफ़ के रहने वाले थे। वह गाते-बजाते थे और उनकी आवाज़ में कोई ख़ास बात तो न थी, लेकिन वह हारमोनियम अच्छा बजाते थे। बिहार शरीफ़ के ख़ानक़ाह मोहल्ला से क़रीब नशेमन के पास उन का ख़ानदान एक बड़े ज़माने से रहता था, बदरुल हसन एमादी लिखते हैं कि-
‘‘ये खाना तो मौलवी युसूफ़ हुसैन ऑनरेरी मजिस्ट्रेट के यहाँ खाते थे और बड़े ही वज़अ-दार आदमी थे, दुबले पतले आदमी मगर लिबास निहायत नफ़ीस…पोर-पोर में अँगूठियाँ जवाहरात की रखते थे’’
(यादगार-ए-रोज़गार, स० 710)
अस्ल में लियाक़त हुसैन की ये हस्ती न थी, मगर तवायफ़ों के यहाँ उन का रोज़ घूमना, उन लोगों के लिये अँगूठी लाना, नौजवान रईस-ज़ादों के हाथ बेचना, घुँघरु वाले बान, ख़िज़ाब लगाना और पान लगाना उन का रोज़-गार था। एक-एक डिब्बा पान उन का रईसों के यहाँ मुक़र्रर था और दस रुपया माहवार पान की क़ीमत उन को रईसों के यहाँ से मिलती थी। उस वक़्त के लोग किस तरह लोगों की परवरिश करते थे, उसका ये एक नमूना भर है। बदरुल हसन एमादी इस बारे में लिखते हैं कि-
‘‘सैंकड़ों आदमी ऐसे देखे जो ठाठ में रईसों का मुक़ाबला करते थे, लेकिन आज उनकी हस्ती कुछ नही है। कमाने वालों से ज़्यादा आफ़ियत की ज़िन्दगी निकम्मे और बे-फ़िक्रे उस वक़्त भी गुज़ारते थे और आज भी गुज़ारते हैं। दरअस्ल लोगों की उलझन की चीज़ बीवी-बच्चे हैं। उस वक़्त भी और आज भी अहल-ओ-अयाल वाले परेशान ज़िन्दगी गुज़ारते हैं, जबकि लंडोरे अकेले ज़ात तो बड़े आराम से गुज़ार लेते हैं, लेकिन उनकी उम्र का आख़िरी हिस्सा बहुत बुरा गुज़रता है। लंडोरे जब मरज़-उल-मौत या बीमारियों में मुब्तिला होते हैं, उस वक़्त ब-जुज़ ख़ुदा के उन का कोई पुरसान-ए-हाल नहीं रहता और सख़्त मुसीबत में पड़ते हैं’’
(यादगार-ए-रोज़गार, स० 710)
ये आम तौर पर देखा गया है कि क़व्वाल की जब तक आवाज़ सलामत है, उस की आव-भगत ख़ूब होती है लेकिन आवाज़ के ढ़लने के साथ ही साथ उस की शख़्सियत भी मरती जाती है। ऐसा ही कुछ लियाक़त हुसैन के साथ भी हुआ, जब मरे तो कोई पूछने वाला न था। मौलवी मोहम्मद हुसैन और मौलवी युसूफ़ हुसैन के लोगों ने, जो गोरखपुर या आज़मगढ़ के रहने वाले भले लोग थे, दफ़नाने का काम अपने ज़िम्मे लिया और लियाक़त हुसैन ज़ेर-ए-ज़मीन हुए।
लियाक़त हुसैन ने अपने ख़ानदान के दूसरे लोगों को भी इस फ़न से बाँधे रखा। वह अपना नाम तो इस फ़न में पैदा न कर सके, मगर उन्होंने अपने लोगों को पटना लाकर गणपत राव की संगत में डाल दिया। गणपत राव एक मशहूर औरत के चेले थे और हारमोनियम के उस्ताद कहे जाते थे। लियाक़त हुसैन के भांजे ग़फ़ूर जान बिन अली जान क़व्वाल भी थे, जो अच्छा गाना-बजाना जानते थे और वो राजा-रजवाड़ो से अच्छी कमाई करते थे। अली जान ख़ानक़ाह एमादिया, मंगल तालाब के सज्जादा नशीं हज़रत शाह अमीरुल हक़ एमादी से मुरीद थे। उन के दो लड़के थे ग़फ़ूर जान और नज़ीर जान, जिनमें नज़ीर गायकी भी करते थे। उन के बारे में बदरुल हसन एमादी लिखते हैं कि
‘‘ग़फ़ूर और नज़ीर. दोनों लड़के मुद्दतों मौलवी युसूफ़ हुसैन ऑनरेरी मजिस्ट्रेट के यहाँ रहते थे, ये लोग गणपत राव के पास गये और गाना बजाना सीखा,…इल्म-ओ-दानिस्त से ज़्यादा उन का ठाठ में मज़ा आता है’’
(यादगार-ए-रोज़गार, स० 710 – 866)
तबले का हुनर एक ज़माने में पटना में ख़ूब रहा। बा-ज़ाब्ता उस की मश्क़ कराई जाती थी और उस को सुनने वाले भी अच्छी ता’दाद में थे। चंद मशहूर और बा-असर लोग, जिन्होंने बिहार में इस फ़न में अपनी पहचान बनाई, उन में अली क़द्र, मियाँ नन्हे, मियाँ छोटू के नाम लिये जा सकते हैं।
अली क़द्र, पटना सिटी के शाह की इमली में रहते थे। तबले के बेहतरीन उस्ताद थे और दूर-दूर के लोग उन को तबले का उस्ताद मानते थे। उनके ख़ानदान का एक लड़का बेहतरीन शाइर भी हुआ है। यह ख़ुदा-दाद बात है कि उनके ख़ानदान का ही एक दूसरा लड़का ख़ुश-आवाज़ था, जो गाता था। उन दोनों की याद-गार अब तक मौजूद है। अली क़द्र के दोनों हाथ कलाई के पास से लोहे के मालूम होते थे। तबला बजाते वक़्त उनके जिस्म को लग़्ज़िश न होती थी, जैसे कि अक्सर तबला बजाते वक़्त तबला बजाने वाले की लर्ज़ा-नुमा कैफ़ियत दिखाई पड़ती है। उनके बाद हफ़ीज़ भी अच्छा तबला बजाते थे।
यूँ तो पटना में दर्जनों तबला बजाने वाले हुए, मगर उन में ये दोनों हमेशा चर्चा का केंद्र रहे। यह दोनों मिज़ाज के अच्छे थे और दूसरे तबला बजाने वाले लोगों की तरह मग़रूर नहीं थे। बदरुल हसन लिखते हैं किः
‘‘मौसीक़ी जानने वाले या गवय्ये, नाज़-ओ-अन्दाज़ करने वाले ज़रूर हुआ करते हैं, बल्कि कहें, तो ये लोग तो नाज़ सिखाने वाले उस्ताद होते हैं। नाज़-ओ-नख़रे करना, भाव खाना औरतों को यही लोग सिखाते हैं, तालों को यही बताते हैं, चतों में लचक तो यही पैदा कराते हैं। अब ऐसे में, इन लोगों का मिज़ाज तो यक़ीनी तौर पर चढ़ा रहना लाज़मी है। मगर इन दोनों में मग़रूरियत का माद्दा न पाया गया। जब आदमी कामिल-ए-फ़न रहता है, तो धीमे मिज़ाज का हो जाता है और बे-नियाज़ रहता है। वह समझता है कि मेरा कमाल ही ख़ुद्दारी के लिए काफ़ी है। जो जितना नाक़िसुल-कमाल रहता है, उतना ही बनता है और अपने को ऊँचा दिखाना चाहता है। जो बातें हक़ीक़तन उसमें मौजूद नहीं होतीं, उनको झूठे तेवर से दिखाने की गर्ज़ से नुमाइशी बातों को अमल में लाता है। शुरफ़ा में मुन्शी उल्फ़त राय से बेहतर तबला कोई नही बजाता। उन के बहुत सारे शागिर्द शुरफ़ा भी हैं। मड़हारियों और गवय्यों का ये दस्तूर है कि वह शरीफ़ों को शागिर्द नहीं बनाते, अगर बनाते भी हैं तो रुमूज़-ए-फ़न छुपा रखते हैं। ये जब बतायेंगे, तो छोटी क़ौमों को बतायेंगे और शुरफ़ा से फ़न छुपा कर रखेंगे। हज़ारों रुपए दीजिएगा मगर फ़न हासिल नहीं होगा। इसी वजह से मौसीक़ी अच्छे लोगों में कामयाब है, क्योंकि उस के अंदर राज़ छिपा है। शुरफ़ा माहिरीन-ए-मौसीक़ी न रहेंगे तो जाहिलाना तारीफ़ करेंगे, जिससे उन्हें पैसे हासिल होंगे’’
(यादगार-ए-रोज़गार, स० 859)
बिहार के कुछ क़व्वालों की दास्तान सुनिए और आँसूओं के चंद क़तरे भी उनकी याद में बहाइए कि कैसे कैसे साहिब-ए-फ़न, बिहार की ज़मीन पर पैदा हुए और कुछ वक़्त के बा’द ग़ुरूब-ए-आफ़ताब की तरह सिमट कर बे-नाम-ओ-निशाँ हो गए। उस वक़्त के आदाब-ओ-लिहाज़ का ये आलम था कि जो क़व्वाल, ख़ानक़ाहों की मज्लिस में शिरकत करते थे, वो दुनियावी मज्लिस में शरीक न होते। बल्कि हर महफ़िल के लिए अलग-अलग क़व्वालों की टोली होती थी। हम पहले ऐसे क़व्वालों का तज़्किरा कर रहे हैं, जिनकी शोहरत शादियों, नवाबीन-ओ-रईसान के ख़ास महफ़िल के लिए ख़ास थी।
उनमें अमेठी के सिलोन इलाक़े के रहने वाले ख़ैराती ख़ाँ क़व्वाल थे, जो सितार अच्छा बजाते थे। उनकी बिरादरी के लोग बिहार के बेतिया में रहते थे, जहाँ से उन लोगों के शादी-ब्याह होते थे। ख़ैराती की शादी भी बेतिया के बशारत ख़ाँ क़व्वाल की बहन से हुई थी मोर ख़ाँ, मु’अज़्ज़िज़ ख़ाँ और बसावन ख़ाँ क़व्वाल उनके बेटे थे। ख़ैराती ख़ाँ के ख़ानदान के सभी लोग उनके यहाँ सरोद बजाना जानते थे। सरोद मिज़राब से बजाए जाने वाली बाजे को कहते हैं। ख़ैराती ख़ाँ के ख़ानदान का एक लड़का अहमद ख़ाँ सरोद जानता था, जो उन लोगों के गुज़र जाने के बाद कभी-कभी सरोद बजाने पटना आता था।
अमीन ख़ाँ क़व्वाल ख़ुसरौपुर के रहने वाले थे और सितार बजाते थे। शादियों में जाते और नवाबों के यहाँ से परवरिश पाते थे। उनकी चौकी के ज़्यादा-तर लोगों की नवादा के ख़ुसरौपुर में रिश्तेदारी थी और ये चौकी ख़ानक़ाहों में नहीं जाती थी।
काले ख़ाँ क़व्वाल, नवादा के रहने वाले थे। उनकी चौकी का एक ज़माने में बड़ा नाम था। उस वक़्त वो लोदी कटरा में रहते थे और वह क़व्वाली से कुछ ज़्यादा न कमा पाए। बदरुल-हसन एमादी लिखते हैं कि:
“उनका लड़का माजिद जवान मर गया, ये लोग रईसों के साथ रहे और वहीं से परवरिश पाते रहे”
(यादगार-ए-रोज़गार, सफ़्हा 780)
अब कुछ बिहार की ख़ानक़ाहों की मज्लिस में शिरकत करने वाली चौकियों का तज़्किरा भी सुनिए। अब उनमें से कुछ ही चौकियाँ बाक़ी रह गई हैं। इन ख़ानक़ाही क़व्वालों की बस्ती बिहार शरीफ़ के ख़ानक़ाह मोहल्ला से क़रीब नशेमन के पास, सासाराम के अदम ख़ाँ बस्ती में थी। ख़ानक़ाही क़व्वाल अब फुलवारी शरीफ़ में रहते हैं, जिन्होंने अब तक इस फ़न की विरासत को बचाए रखा है। अब ख़ानक़ाही क़व्वालों का ये हाल हो चुका है कि ख़ानक़ाही क़व्वाल, उर्स-ओ-फ़ातिहा की मज्लिस में भी गाते हैं, शादी ब्याह के मौक़ों पर भी गाते हैं। मौजूदा दौर की मुक़ाबले वाली क़व्वाली (जिसमें औरत-ओ-मर्द के बीच मुक़ाबला होता है) उस में भी हिस्सा लेते हैं। इस की एक वजह सामने निकलकर यह भी आई है कि वक़्त के साथ-साथ उर्स-ओ-मज्लिस में कमी आ रही है। ख़ानक़ाहों में सालाना मज्लिस या दो तीन मज्लिसें ही होती हैं, जिसके चलते वे केवल ख़ानक़ाही क़व्वाली तक ही महदूद नहीं रह सकते। इस वजह से उन्हें दूसरी चीज़ें भी करनी पड़ती हैं, ताकि उनकी निजी ज़िंदगी आसानी से गुज़र सके। इसी वजह से वे अब हर तरह की मज्लिसों में शरीक होते हैं और अपना गुज़र-बसर करते हैं। ये रिवाज हिन्दुस्तान के दूसरे प्रदेशों में तो बहुत पहले से शुरू हो चुका था, मगर अब बिहार के क़व्वालों ने भी धीरे-धीरे इस ओर क़दम बढ़ाना शुरू कर दिया है। यहाँ तक कि कुछ क़व्वाल तो अपने बच्चों को रोज़गार के लिए दूसरा फ़न सिखाने पर ज़ोर दे रहे हैं। क़व्वालों का गुज़र-बसर कैसे होता था, इसे देखें, तो पता लगता है कि वे हर दौर में क़व्वाली के साथ-साथ चिट्ठी लाने-पहुँचाने, दा’वतें देने, ख़ानक़ाहों की ख़िदमत करने, अँगूठी, पान, ख़िज़ाब, और इत्र-ओ-लोबान के लेन-देन का काम करते थे। मौजूदा वक़्त में, कुछ ख़ानक़ाही क़व्वाल ऐसे भी हैं, जो गुज़र बसर के लिए बीड़ियाँ बनाते हैं। ख़ैर! हम कुछ क़व्वालों का ज़िक्र यहाँ कर रहे हैं।
एक नज़र सासाराम के ख़ानक़ाही क़व्वालों पर भी डालते हैं। कहा जाता है कि हज़रत मख़्दूम अबुल-फ़त्ह चिश्ती ने, जो हज़रत बाबा फ़रीद गंज-ए-शकर के वंश में से हैं, ने अपने बेटों को अपना ख़लीफ़ा बना कर ग़ाज़ीपुर से कई दूसरी जगहों पर रवाना किया। उनमें से एक हज़रत मख़्दूम मोहम्मद सालेह चिश्ती हैं, जिन्हें हज़रत अबुल-फ़त्ह ने ख़िर्क़ा-ओ-ख़िलाफ़त और सासाराम की विलायत दे कर सासाराम भेजा था। आप अपने मुरीदों और बच्चों के साथ वहाँ गए, जिनमें क़व्वाल, कुम्हार और चूड़ी-फ़रोश आदि भी शामिल थे। मख़्दूम मोहम्मद सालेह 900 हिज्री में सासाराम आए थे। उनके साथ आए क़व्वालों को सासाराम के मोहल्ले इमली अ’दम ख़ाँ में बसाया गया। आज ये मोहल्ला क़व्वाल टोली कहलाता है।
सासाराम के क़व्वाल बन्नू और इस्माईल आपस में सगे भाई थे। दोनों देखने में बड़े ख़ूबसूरत थे और हारमोनियम व सितार बहुत अच्छा बजाते थे। सासाराम के क़व्वालों में ये दो गवय्ये भाईयों की जोड़ी मशहूर थी। ये लोग बहुत ढंग से गाते थे औऱ उन लोगों का ज़माना गुज़र-बसर के लिहाज़ से बहुत अच्छा था। बदरुल हसन एमादी लिखते हैं कि
“ये लोग गया में तिजारत भी करते थे, दोनों भाई तिजारत करने लगे, बन्नू जवानी में मर गए, इस्माईल ज़िंदा हैं”
(यादगार-ए-रोज़गार, सफ़्हा 872)
बख़्शी क़व्वाल भी सासाराम के थे, लेकिन उनको ज़्यादा पहचान न मिली। उनके वंश के लोग अभी भी बाक़ी है।
अब्दुल्लाह और हुरमत दो भाई थे। ये दोनों सासाराम के रहने वाले थे। अब्दुल्लाह ने शर्ह-ए-वक़ाया तक पढ़ाई की हुई थी। गाने के दौरान उनसे बेहतर मख़्रज के साथ अल्फ़ाज़ कोई नहीं निकाल सकता था। वो जिस ग़ज़ल को गाते थे, उसका मतलब भी समझाते थे। हुरमत ढोलक बजाते थे और ख़ानक़ाहों में काफ़ी पसंद किए जाते थे। लेकिन जब हुरमत का नौजवान लड़का मर गया, तो उसके बाद से उनकी हालत ख़राब हो गई। जिसके बाद उनकी क़व्वाली में दोबारा फिर वो बात पैदा न हुई।
सासाराम के रहने वाले पनाह अली क़व्वाल गाने में उस्ताद कहलाते थे। पनाह अली सितार अच्छी तरह बजाते थे और सुरों में पक्का गाना भी गाते थे। साहब-ए-यादगार-ए-रोज़गार लिखते हैं कि-
“पनाह अली बूढ़े और कुबड़े थे, लेकिन क़व्वालों में उनकी इज़्ज़त अच्छी थी। उन्हें रईस और मशाइख़ीन भी पसंद करते थे। मगर उनके गाने से मज्लिस रौशन नहीं होती थी, क्योंकि पक्के गाने में कुछ तासीर नहीं होती कि मशाइख़ों को लज़्ज़त मिले। उनके लिए रवाँ गाना और चलते हुए अश’आर की ज़रूरत होती है, जिससे वो इल्म-ए-मौसीक़ी की लज़्ज़त नहीं पा पाते। इस्लाम में जिस मौसीक़ी को हराम क़रार दिया गया है, वो पक्के सुरों का गाना हो सकता है। इससे अरवाह को तड़प की लज़्ज़त नहीं मिलती। इसलिए उम्दा मज़्मून वाले गाने को फ़ुक़रा पसंद करते हैं। पक्के गाने में रूहानियत का फ़ायदा नहीं मिलता, इसलिए क़व्वालों का ख़ास फ़िरक़ा तैयार किया गया, जिन्हें ताल-ओ-सुर की ज़रूरत नहीं थी। उनका अल्फ़ाज़ को चीख़ कर बुलंद कर देना ही काफ़ी था। ज़िंदा पीर को उछालना कौन कमाल है, ये क़व्वाल सब लोगों के जज़्बात-ए-ज़ाती तक को भड़का देते हैं। इनका कमाल ये है कि ये तो मुर्दे-भूतों को शीशे में उतार लेते हैं। बैठकी का गाना तो पूरा भरतंगो (धमा-चौकड़ी) होता है। शकूर हारमोनियम वाले इसी ख़ानदान के हैं। जवानी में बहुत हसीन थे, अब तो तिजारत करते हैं।
क़व्वालों के कुछ जत्थे नवादा बिहार, फुलवारी और सासाराम में हैं, कुछ इलाहाबाद में हैं कुछ ख़ैराबाद हैं कुछ दिल्ली वाले हैं। पश्चिम की क़व्वाली और बिहार की क़व्वाली में बड़ा फ़र्क़ है। पश्चिम वाले दोहा मिला कर उर्दू की ग़ज़ल बहुत गाते हैं। अब जहालत बढ़ गई है, तो फ़ारसी ग़ायब हो गई है। क्योंकि लोगों को उर्दू पसंद है, तो इसलिए क़व्वाल भी इसी पर उतारू हो गए हैं। तवायफ़ें भी ज़्यादा-तर उर्दू में ही गाती हैं। क़व्वाली की धुन आसान होती है। बस जिस तवायफ़ को भी देखिए, क़व्वाली की धुन पर अंधा-धुंध गाए जा रही है। अब राग कहाँ, संगीत की मालूमात कहाँ? टप्पा किधर, ध्रुपद ग़ायब। जब ये चीज़ें नहीं हैं, तो गवय्ये अपना वक़्त क्यूँ बेकार करें और काहे को सीखें? किस के लिए मेहनत करें, अल-ग़र्ज़ अब मौसीक़ी भी ज़ब्ह कर देंगे। अब गाना बजाना भी ख़ुद-रवाँ है, लय किस को कहते हैं, सम कहाँ पर है, सुरूर कहाँ पर है और ताल कहाँ पर है, सुर किस जानवर का नाम है? जो गाने के शौक़ीन और धरपत-कार हैं, उनको अब गाने का लुत्फ़ नहीं मिलता। आम पसंद गाना जारी हो गया, बिहार में अभी हेपत की धुन एक ख़ास चीज़ है जो पच्छिम वाले नहीं जानते, ये ख़ास बिहार की चीज़ है, इसे औरतें आम तौर पर गाती हैं जो एक पुर-तासीर धुन है, अब किसी क़व्वाल या ताइफ़ा से राग की फ़रर्माइश की जाए, तो दो-चार ही अदा कर सकती हैं। रफ़्ता-रफ़्ता हर क़िस्म का इल्म और हुनर सब ग़ायब होता जा रहा है, किताबों में उलूम-ओ-हुनर की ख़बर रह जाएगी, चंदे बाद ज़ाहिरी वुजूद बाक़ी नहीं रहेगा’’
मदार बख़्श ख़ाँ, बिहार के एक कामयाब और लोकप्रिय क़व्वाल माने जाते थे। उनकी आवाज़ में तहज़ीब-ओ-शाइस्तगी थी। वो फ़ारसी कलाम बहुत अच्छा पढ़ते थे और उनकी ठुमरी और गीत पर मश्क़ थी। उनकी ख़ास बात ये थी कि वो मज्लिस के मुताबिक़ कलाम सुनाते थे। जिसके चलते वो सूफ़ियों के पसंदीदा क़व्वाल बन गए। ज़्यादा तर ख़ानक़ाहों में उन्हें बुलाया जाता और दूर-दूर से लोग सुनने पहुँचते। उस ज़माने में क़व्वालों को दी जाने वाली नज़्र की शक्ल थोड़ी अलग थी। अगर कोई कलाम या शे’र सूफ़ियों को पसंद आता, तो वो अपनी कोई पसंदीदा चीज़ क़व्वाल को नज़्र कर देते, जैसे-रूमाल, टोपी, पटका, चादर आदि। बहुत बार नज़्र में रूपए-पैसे भी दिए जाते थे। इस नज़्र को नवाब क़व्वाल को अच्छी क़ीमत देकर ख़रीदते भी थे।
मदार बख़्श के बाद उनके बेटे नबी बख़्श भी अच्छे क़व्वाल हुए। सही मा’नों में वो अपने पिता के उत्तराधिकारी थे। वो भी सूफ़ियों के पसंदीदा क़व्वाल हुए। हज़रत शाह अता हुसैन ‘फ़ानी’ का जब इंतिक़ाल हुआ, तो हस्ब-ए-वसीयत उनकी फ़ारसी ग़ज़ल, जिसका मतला’ यूँ है-
चूँ ज़े दाम-ए-ज़ुल्फ़-ए-ऊ ईं-दम रिहाई याफ़्तम
शुक्र लिल्लाह बाद मुद्दत जाँ-फ़िदाई याफ़्तम
ग़ुस्ल और तक्फ़ीन के बाद शाम के वक़्त नबी बख़्श ख़ाँ ने ये ग़ज़ल उन के जनाज़े पर पढ़ी।
(ज़िक्र-ए-अता, सफ़्हा 81)
नबी बख़्श ख़ाँ के बाद, उनके ख़ानदान में अब्दुल अज़ीज़ ख़ाँ, आल-ए-नबी ख़ाँ, आल-ए-बख़्श ख़ाँ और नूर नबी ख़ाँ आदि हुए। ये सब बाज़ाब्ता क़व्वाल थे, ख़ूबसूरत लोग थे और उनकी आवाज़ भी अच्छी थी। इन सब को बुज़ुर्गों के ख़ूब सारे कलाम ज़बानी याद थे। नूर नबी ख़ाँ उर्फ़ जोखू के बेटे फ़ख़्रून्नबी इस फ़न में नहीं आए। उन्होंने बनारस में कारोबार शुरू कर लिया और उसी में अपनी क़िस्मत आज़माई।
इसी बिरादरी में मोहम्मद फ़हीम रज़ा ख़ाँ क़व्वाल की चौकी बहुत प्रसिद्ध हुई। उनके पिता अमीर रज़ा बिन मोहम्मद रज़ा सभी क़व्वाल थे। सहसराम उनका पुश्तैनी घर था। फ़हीम रज़ा पाँच भाई थे। इन पाँचों के नाम लतीफ़ रज़ा, फ़हीम रज़ा, सफ़दर रज़ा, हैदर रज़ा और क़याम रज़ा थे। इन सब भाइयों की चौकी एक थी। फ़हीम की शोहरत सासाराम, गया, नवादा में ख़ूब हुई। फ़हीम ग़ुलाम नबी ख़ाँ क़व्वाल (बिहार शरीफ़) के दामाद हैं। उनकी आव-भगत बिहार शरीफ़ के इलाक़ों में ख़ूब होती थी। फ़हीम के दो बेटे हुए मुफ़ीद ख़ाँ और अनीस ख़ाँ। मुफ़ीद के बेटे वज़ीर ख़ाँ की अब अलग चौकी है और उन्हें मशरिक़ी बिहार में बहुत पसंद किया जाता है। अनीस ख़ाँ अब अपने ससुराल फुलवारी शरीफ़ में जा बसे हैं। उनकी अलग चौकी है और वो बिहार की ख़ानक़ाहों में पसंद किए जाते हैं। लेकिन अब उनमें वो बात न रही जो पहले थी। वो रिवायत-पसंद क़व्वाल हैं और उन्हें पुख़्ता कलाम याद है, जिसके ज़रिए वे दूर तक बुलाए जाते हैं। बारगाह-ए-इश्क़ के ज़रिए उनकी बांग्लादेश तक आव-भगत है।
नवादा के क़रीब मुग़लपुरा की ख़ानक़ाही क़व्वालों की बिरादरी अब तक मेरी नज़र में सब से कामयाब चौकी गुज़री है जो लगातार पाँच पुश्तों से बिहार की ख़ानक़ाहों की ज़ीनत बनी हुई है। यह ख़ानदान बख़्शी ख़ाँ क़व्वाल का है। इन लोगों की शुरुआत ख़ानक़ाह चिश्तिया से हुई थी और इन्होंने वहीं की मज्लिस से तरक़्क़ी पाई। जिसके बाद उन्हें पटना की तरफ़ बुलाया गया।
बख़्शी ख़ाँ क़व्वाल और शब्बू खाँ क़व्वाल, यह दोनों सगे भाई थे। ये लोग नवादा के मुग़लपुरा के रहने वाले थे। ये लोगों ख़ानक़ाह चिश्तिया से मुरीद थे। उनका तमाम सूफ़ियों के यहाँ आना जाना था। बख़्शी ख़ाँ के तीन बेटे थे -अब्दुल ग़नी ख़ाँ, याक़ूब ख़ाँ और अब्दुल रहीम ख़ाँ। बड़े भाई अब्दुल ग़नी बहुत जल्द इंतिक़ाल कर गए, जिसकी वजह से दोनों छोटे भाई याक़ूब ख़ाँ और अब्दुल रहीम ख़ाँ मिलकर ख़ानक़ाहों में गाते थे। याक़ूब ख़ाँ, ख़ानक़ाह चिश्तिया, (छोटा नवाबादा) (हरदासबीघा) के सज्जादा नशीं हज़रत शाह नसीरुद्दीन चिश्ती से मुरीद थे। सिद्दीक़ ख़ाँ फुलवारी शरीफ़ के कतरु खाँ के ख़ानदान में ब्याहे थे और फिर ससुराल ही में जा बसे। याक़ूब ख़ाँ क़व्वाल की जान-पहचान बहुत दूर तक थी। वो सितार ला-जवाब बजाते थे। जिन लोगों को उन की मज्लिस याद है, वह बड़े ख़ुश-नुमा अंदाज़ में उनकी तारीफ़ करते हैं। याक़ूब ख़ाँ कलाम शुरु करते थे, तो पहले सिर्फ़ सितार बजाते थे और ऐसा बोल काटते कि सितार से ख़ुद ब-ख़ुद ला-इलाहा-इल्लल्लाह की आवाज़ आती। लोग इस कैफ़ियत पर मस्त हो जाते। जिसके बाद बा-ज़ाब्ता कलाम पढ़ते। वो पहनावा बिल्कुल रईसों जैसा पहनते थे। शेरवानी, शानों पर पटका और दो पल्ले वाली टोपी उन का पसन्दीदा पहनावा था। बिहार की तक़रीबन तमाम ख़ानक़ाहों में याक़ूब ख़ाँ का चर्चा था। अपनी चौकी के सद्र आप ख़ुद थे और नाइब अब्दुल रहीम ख़ाँ थे। इस तरह उनके पास पूरी एक टीम तय्यार थी। ख़ानक़ाह सज्जादिया अबुलउलाईया, शाह टोली, दानापूर की मज्लिस मे याक़ूब ख़ाँ का सितार ला-जवाब बजता, जिस पर कैफ़ियत करते लोग नारा मारते, कुछ के बदन से ख़ून की छींट तक आ जातीं। याक़ूब ख़ाँ मामूल के मुताबिक़ पहले वुज़ू करते थे और फिर अदब से सज्जादा नशीं के सामने बैठते और नीची निगाहें किए अक़ीदतों से भरा सलाम पेश करते। उसके बाद तक़रीबन 20 मिनट सितार बजाते और उन के साथी तबला और ढ़ोलक पर अपनी मश्क़ करते रहते थे। ये मश्क़ मश्क़ नहीं होती थी, बल्कि पूरे कलाम के तरन्नुम की अक्कासी होती थी। बख़्शी ख़ाँ की तर्ज़ पर याक़ूब ख़ाँ भी मज्लिस की शुरुआत हज़रत शाह अकबर दानापूरी की मशहूर हम्द से करते। वो हम्द यूँ है-
ऐ बे-नियाज़ मालिक मालिक है नाम तेरा
मुझ को है नाज़ तुझ पर मैं हूँ ग़ुलाम तेरा
बद्रुल हसन एमादी लिखते हैं कि
‘‘इस शहर में तमाम मशाइख़ के यहाँ याक़ूब क़व्वाल वल्द बख़्शी क़व्वाल का बड़ा दौर-दौरा हुआ’’
(यादगार-ए-रोज़गार, स० 876)
याक़ूब ख़ाँ के बाद उन के बेटे युसूफ़ ख़ाँ और फिर उन के लड़के मिस्री ख़ाँ हुए। लेकिन याक़ूब के बाद अब्दुल रहीम ख़ाँ के बेटे करीम ख़ाँ क़व्वाल ही मशहूर हुए। करीम ख़ाँ, हज़रत शाह फ़रीदुल हक़ एमादी के मुरीद और फ़हीम ख़ाँ क़व्वाल (सहसराम) के दामाद थे। अब उन के लड़के परवेज़ अहमद ख़ाँ, मुमताज़ अहमद ख़ाँ, महताब अहमद ख़ाँ, मुस्तक़ीम अहमद ख़ाँ और नियाज़ अहमद ख़ाँ क़व्वाल, बिहार की ख़ानक़ाहों के बा-असर क़व्वाल हैं, मश्क़ भी करते हैं और अच्छा गाते भी हैं। अब उन्हीं की चौकी मशहूर हैं। परवेज़ अहमद ख़ाँ और महताब अहमद ख़ाँ की चौकी इस ख़ानदान की ज़ीनत है।
बिहार शरीफ़ में क़व्वालों का एक ज़ामाने तक ख़ूब उरूज रहा। तरह-तरह की क़व्वालियाँ, ठुमरियाँ राग और फ़िक़रे गाते थे। उनके पास नायाब संग्रह था। कुछ क़व्वालों के पास तो मक़ामी बोली का एक संग्रह था, जिसे फ़रमाइश पर सुना जाता था। इस संग्रह में दूसरे लोगों की ठुमरियाँ, गीत और कुछ अबयात थीं। ज़माने की गर्दिशों के साथ-साथ उसके पढ़ने वाले और उसके शौक़ीन सब ख़त्म हो गए।
मोहम्मद रज़ा क़व्वाल बिहार शरीफ़ के रहने वाले थे। वो अच्छा गाते और सितार बजाते थे। वो बारगाह-ए-इश्क़ मीतन घाट के सज्जादा नशीं ख़्वाजा अमजद हुसैन नक़्शबंदी के मुरीद थे और उन्होंने वहाँ के ज़रिए से ख़ूब नाम कमाया। वो ढाका तक क़व्वाली पढ़ने गए। ढाका के नवाब, बारगाह-ए-इश्क़ के मुरीद थे, इसलिए उनकी आव-भगत बहुत हुई।
सूबा ख़ाँ और उनकी चौकी बिहार शरीफ़ की थी। नशेमन के क़रीब, उनका मोहल्ला है जहाँ पर उनकी बिरादरी रहती है। वो ख़ानक़ाह मोअज़्ज़म, बिहार शरीफ़ के मुरीद थे। उनके नाती भी अच्छे क़व्वाल थे। हज़रत शाह हयात अहमद फ़िरदौसी के कलाम की धुन उन लोगों की ही बनाई हुई है। नौजवानी के दिनों मे सूबा ख़ाँ की ख़ानक़ाहों में बहुत आव-भगत रही।
युसूफ़ ख़ाँ क़व्वाल भी इसी बिरादरी से थे और उन की चौकी भी बहुत मशहूर थी। मशाइख़ उन्हें बहुत पसंद करते थे। यूसुफ़ ख़ाँ, ख़ानक़ाह मुजीबिया, फुलवारी शरीफ़ के मुरीद थे। बद्र-उल-हसन एमादी लिखते हैं किः
‘‘यह चौकी किसी क़व्वाल के ख़ानदान की है, कभी अपने वक़्त में मशहूर गाने वाले गुज़रे हैं’’
(यादगार-ए-रोज़गार स० 869)
ग़ुलाम नबी ख़ाँ क़व्वाल भी बड़े प्रसिद्ध क़व्वाल हुए हैं, उनकी चौकी नवादा में मशहूर रही है। वो पाँच भाई थे- ग़ुलाम नबी ख़ाँ, सलाहुद्दीन ख़ाँ, ग़ुलाम मुफ़्ती खाँ, चंदू ख़ाँ और अब्बास ख़ाँ। इसी बिरादरी के दूसरे पाँच भाई हबीब ख़ाँ उर्फ़ हब्बू ख़ाँ, हसनैन ख़ाँ, ताजुद्दीन ख़ाँ उर्फ़ चज्जू और दो लोग थे। हब्बू ख़ाँ की चौकी भी बहुत मशहूर रही। उन्होंने अपनी बिरादरी को फिर से ज़िन्दा कर दिया। क्या बूढ़ा क्या जवान, क्या मर्द क्या औरत, सब उनकी चौकी के दीवाने थे। हब्बू ख़ाँ फ़ारसी, उर्दू, हिंदवी, ठुमरी सब गाते थे। चज्जू ख़ाँ के एक बेटे मिन्हाजुद्दीन भी क़व्वाल थे, लेकिन उनकी चौकी में अब वो बात नहीं है।
इसी तरह एक चौकी ग़ुलाम ज़ाकिर ख़ाँ की थी। जो बड़े नफ़ीस और उम्दा क़िस्म का पहनावा पहनते थे। उनकी आवाज़ में एक दब-दबा था। वो भी इसी बिरादरी के थे और उनकी चौकी भी मशाइख़ में मशहूर थी। उनके बाद उनके बेटों कामिल ख़ाँ, समदानी ख़ाँ, ग़ौसी ख़ाँ, वारिस ख़ाँ मशहूर क़व्वाल हुए। तमाम ख़ानक़ाहों में इनकी आव-भगत थी। ग़ौसी ख़ाँ इनमें सबसे क़ाबिल और सुर-ओ-ताल के माहिर थे। ग़ौसी ख़ाँ आख़िर उम्र तक क़व्वाली पढ़ते रहे और हर जगह पाबंदी से शिरकत करते रहे। अब उनकी चौकी कामिल ख़ाँ के बेटे आफ़ताब आलम के सुपुर्द है। वो भी ख़ानक़ाहों में पाबंदी से पढ़ते हैं।
फुलवारी शरीफ़ में क़व्वालों का एक लंबा दौर रहा है। ग़ुलाम हुसैन क़व्वाल फुलवारी शरीफ़ के रहने वाले थे और अपने वक़्त में उनकी चौकी सब से मशहूर थी। वो मशाइख़ के पसंदीदा क़व्वाल थे। ग़ुलाम हुसैन बुज़ुर्गों के पसंदीदा कलाम ज़्यादा पढ़ते थे और आदाब-ओ-उसूल से भी वाक़िफ़ थे। बदरुल हसन एमादी लिखते हैं कि
‘‘क़व्वालों में सबसे ज़्यादा नाम-वर ये चौकी गुज़री हालाँकि गाना उम्दा न था मगर तमामी पुराने मशाइख़ीन उनके गाने पर कैफ़ियत करते और बहुत पसंद करते थे, वो बा-असर होती थी, बुज़ुर्गों के कलाम का असर था, इन लोगों के कलाम मक़ामात के होते हैं और आदाब-ए-मज्लिस नहीं जानते, रंग-ए-मज्लिस नहीं पहचानते, इसलिए लोगों को इंक़िबाज़-ओ-इंशिराह होता रहता है, पुराने क़व्वाल पुराने मशाइख़ों की आँख देखने वाले उनकी सोहबत पाने वाले लोगों की तरफ़ उनकी कैफ़ियत की तरफ़ तवेज्जाेह कर के इस रंग पर हो जाते थे, इसलिए सुनने वालों को मज़ा आता था, वो लोग पुर-तमीज़ और तजुरबा-कार थे, न वो क़व्वाल हैं न वो मज्लिस है, न वो वक़्त है, न वैसे सुनने वाले हैं, न वैसे कासिब हैं, न तालिब, अब क़व्वालों को रुपया मिलना चाहिए, एक रंग है तो एक ही रंग पर चले जा रहे हैं, वो लोग मज्लिस जमाते थे, तीन भाई तीन आवाज़ के थे, ताहम मज्लिस रौशन थी’’
(यादगार-ए-रोज़गार, स० 870)
आपके बेटों की बात करें, तो मोहम्मद कबीर और मोहम्मद क़दीर उनके बेटे थे और उनकी चौकी भी मशहूर थी। नत्थे ख़ाँ और मोहम्मद कबीर ने अच्छा-ख़ासा नाम कमाया। शुरुआती दिनों में वो मुंशी मोहम्मद अमीर के दरबार में मुद्दतों एक क़व्वाल की हैसियत से काम करते रहे। वो रात को मुराक़िब होते और इधर क़व्वाली गाते रहते थे। मुंशी साहब के मरने के बा’द तक कबीर ख़ाँ की चौकी ख़ानक़ाह में बड़ी मुमताज़ रही। ये लोग बड़े इक़बाल-मंद गुज़रे हैं, जो सितार ख़ूब बजाते थे और क़व्वाली कम करते थे। उनकी आख़िरी उम्र तकलीफ़ और तंगी में गुज़री। कबीर के लड़के का नाम मोहम्मद सग़ीर ख़ाँ है। बद्र-उल-हसन एमादी लिखते हैं किः
‘‘मोहम्मद कबीर जवान ही मर गए थे कि आख़िरी उम्र ख़राब गुज़री, उनकी औलाद थी मगर उन लोगों ने अपने वालिदैन की इमदाद अपने उरूज के वक़्त में न किया, बिजिन्सिहि उनकी औलाद ने भी उनकी ख़बर न ली, कबीर के ख़ानदान में सग़ीर वग़ैरा हैं मगर इस ख़ानदान की हालत ख़राब हो गई, हर आदमी का ख़ास-ख़ास इक़बाल होता है और उस के दम के साथ जाता है, घर में सब इक़बाल-मंद नहीं पैदा होते, कबीर का भाई क़दीर था वो तकलीफ़ की ज़िंदगी गुज़ार गए, हर शख़्स में इक़बाल-ओ-इदबार ज़रूर होता है, हर आदमी को उरूज-ओ-ज़वाल लाज़िमी है, दुनिया में किसी की एक साँ कटते नहीं देखा किसी को बचपन में किसी को जवानी में किसी को बुढ़ापे में उरूज होता है, इस तरह इस तीन ज़मानों में से किसी एक ज़माने में ज़वाल भी ज़रूर होता है, ये निज़ाम-ए-आलम है मगर इन्सान अपने वक़्त को भूल जाता है और आइन्दा वक़्त को याद नहीं करता, किसी को क्या मालूम है कल उरूज होगा या ज़वाल, मौजूदा वक़्त को मीरास जानते हैं इसी पर दाइमी भरोसा कर लेते हैं यही इन्सानी ग़लती है’’
(यादगार-ए-रोज़गार, स० 871)
कबीर ख़ाँ क़व्वाल के बाद उन के भांजे हिन्जरू ने ख़ानदान का नाम ऊँचा किया। कबीर के बाद इस लड़के ने तमाम ख़ानदान की परवरिश की और सग़ीर बिन कबीर को अपने साथ रखा।
इसी तरह नासरीगंज (औरंगाबाद) के करीम ख़ाँ, अबरार ख़ाँ और मुश्ताक़ ख़ाँ की चौकी भी मशहूर रही है। करीम ख़ाँ के बेटे ग़ुलाम जीलानी और सुन्नू भी गाते-बजाते हैं। जहानाबाद के क़रीब निज़ाम ख़ाँ, बशारत ख़ाँ और अल्फ़ू ख़ाँ भी मशहूर क़व्वाल हुए हैं। काको के क़रीब उनकी ख़ूब आव-भगत थी। उनकी चौकी नौजवानों की पसंदीदा थी, लेकिन अब वो बात नहीं है। नवादा के क़व्वाल क़ैसर वारसी भी मशहूर हैं। उनके अलावा अररिया के अबरार ख़ाँ, जो सीवान में रहते हैं और वहाँ की निजी मज्लिसों में गाते-बजाते हैं। इनके अलावा उमराव ख़ाँ नाम के एक क़व्वाल रुदौली से आए थे, जो सीवान में आ बसे। वो ख़ानक़ाह अमजदिया के मोतक़िद थे। शुरूआती दिनों में उनकी ख़ूब शोहरत थी। उन्हें पटना तक बुलाया जाता था। उनके दो बेटे ग़ुलाम जीलानी और ग़ुलाम रब्बानी भी इसी फ़न से जुड़े रहे, अब ग़ुलाम जीलानी के बेटे ग़ुलाम सुब्हानी ने इस फ़न को ज़िंदा रखा हुआ है।
अब कुछ ऐसे क़व्वालों का तज़्किरा भी सुन लीजिये, जो दूसरे प्रदेशों से आए और अपने फ़न को पेश किया।
सिद्दीक़ ख़ाँ दिल्ली घराने काे एक रुक्न थे। आपका ख़ानदान अस्ल में ग़ाज़ीपुर के क़रीब के एक गाँव डासना का रहने वाला था। वहाँ से आपके दादा दिल्ली आए और फिर ग्वालियर, आगरा, हैदराबाद में ज़िंदगी बसर की। मूसीक़ी का आग़ाज़ उनके दादा क़ादिर बख़्श ने किया था। वो अपनी मूसीक़ी को फ़रोग़ देने के लिए दिल्ली कोर्ट के ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ उर्फ़ मियाँ अचपल के शागिर्द बने और अपने बेटों को भी उनकी संगत में डाला। उनके चचा क़ुतुब बख़्श उर्फ़ तानरस ख़ाँ आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र सानी के दरबारी मूसीक़ार थे। तानरस का लक़ब उन्हें बादशाह ने दिया था। तानरस ख़ाँ कभी-कभार क़व्वालियाँ भी पढ़ते थे। हिन्दुस्तानी क्लासिकी मूसीक़ी के बहुत से ख़यालों और तरानों को तानरस ख़ाँ ने कम्पोज़ किया था। इस बात को सब जानते हैं कि पटियाला घराने के संस्थापकों में तातरस ख़ाँ से तालीम हासिल की थी। 1857 की बग़ावत के बाद वो दिल्ली छोड़कर ग्वालियर चले गए, लेकिन वहाँ जाकर उन्होंने महसूस किया कि वहाँ उनकी ज़्यादा आव-भगत नहीं की जा रही। जिसके बाद वो हैदराबाद के निज़ाम के दरबार में चले गए और वहाँ पर काम करने लगे और आख़िर-कार 1885 में हैदराबाद में ही मर गए।
सिद्दीक़ ख़ाँ सितार लाजवाब बजाते थे और बेला मिज़राब बोल में काटते थे। वो राग भी बजाते थे और अपने फ़न में बेहतरीन आदमी थे। उनका पूरा ख़ानदान कव्वालों का था। वो पहले नालंदा के इस्लामपुर में मुलाज़िम रहे, फिर ख़ानक़ाह सज्जादिया अबुल उलाईया, दानापूर के सज्जादा-नशीं हज़रत शाह अकबर दानापूरी के मुरीद हो गए और क़व्वाली भी करने लगे। उन्होंने बी छोटी ज़ोहरा की लड़की को भी गाना सिखाया। धीरे-धीरे उनकी शोहरत में इज़ाफ़ा होता गया और लोग आपकी अनोखी आवाज़-ओ-अंदाज़ की तारीफ़ करने लगे। जब उनकी शोहरत बढ़ गई, तो वो फ़क़ीरों से दूर होकर हैदराबाद के निज़ाम की जानिब माइल हुए। हैदराबाद का निज़ाम उनसे मुतअस्सिर हुआ और उन्हें अपने यहाँ रहने की दावत दी। फिर एक लम्बे वक़्त तक वो निज़ाम-ए-हैदराबाद के दरबारी गवैया बने रहे और ख़ूब माल कमाया।
बद्र-उल-हसन एमादी लिखते हैं कि-
‘‘उनके सम्मान में फ़र्क़ आ गया, बुढ़ापा बुरी बला है, आफ़ियत की ज़िंदगी गुज़ारा हुआ आदमी आमदनी कम ख़र्च ज़्यादा हो गया। बुढ़ापे में ज़रूरतें बढ़ जाती हैं, इख़राजात-ए-कसीर आराम के ग़रज़ से बढ़ जाते हैं, आराम तलबी आ जाती है, ज़ोफ़ आ जाता है, कमाने की शक्लें बंद हो जाती हैं, सेहत जवाब देती है, मेहनत हो नहीं सकती, तकलीफ़ तो लाज़िमी है, मुस्तक़िल आमदनी वाले परेशान हो जाते हैं, तवक्कुल के आमदनी वाले लोगों को कौन पूछता है, उनको शहर छोड़ना पड़ा, वतन में उनका लड़का तय्यार हो रहा है, कहीं मुलाज़िम है, रईसों के लड़के तो मेहनत से भागते हैं, हर नौजवान वालिदैन की ज़िन्दगी तक ला-परवा रहता है, ग़ुरबा के लड़के तो और भी आराम-तलब होते हैं, जब तक नौजवानों पर दुनियावी ज़रूरतों का पूरा बोझ न डालें आदमी तलाश-ए-रोज़गार में तकासुली करता है’’
(यादगार-ए-रोज़गार, स० 862)
इस दौरान वो अपने पीर-ओ-मुर्शिद से दूर हो गए। जब उनकी ज़िंदगी ढलने लगी, तो वक़्त के साथ उनकी आवाज़ भी बदल गई। जिसके बाद वो आगरा अपने पीर की बारगाह में दोबारा हाज़िर हुए। हज़रत शाह अकबर दानापूरी ने उन्हें देखते ही आगरे की नर्म ज़बान में फ़रमाया कि,” अरे मियाँ सिद्दीक़! कहाँ थे? सुनो ये ताज़ा ग़ज़ल लिखी है, ज़रा इस पर धुन तो बिठाओ।” एक लम्बे वक़्त के बाद भी उनके पीर के लहजे में ज़रा भी दबदबा नहीं था। वो अपनी धुन में हज़रत की ये ग़ज़ल पढ़ने लगे
तालिब-ए-वस्ल न हो आपको बे-दाद न कर
हौसला हद से ज़्यादा दिल-ए-नाशाद न कर
ख़ाक जल कर हो पर उफ़ ऐ दिल-ए-नाशाद न कर
दम भी घुट कर जो निकल जाये तो फ़र्याद न कर
जब सिद्दीक़ ख़ाँ क़व्वाल नीचे लिखे शेर पर पहुँचे, तो रोते हुए अपने पीर के क़दमों पर गिर पड़े-
आके तुर्बत पे मेरी ग़ैर को याद न कर
ख़ाक होने पे तू मिट्टी मेरी बर्बाद न कर
इस के बाद उन्होंने उम्र भर अपने पीर के क़दमों में ज़िंदगी गुज़ार दी। उनके पोते ज़हीर अहमद ख़ाँ बिन अज़ीज़ अहमद ख़ाँ ने ”वारसी बिरादरान’ नाम का एक ग्रुप बनाया था।
अली बख़्श क़व्वाल की चौकी में तीन आदमी शामिल थे और ये चौकी इलाहाबाद से पटना आया करती थी। इस चौकी के लोगों को हज़रत शाह नियाज़ अहमद बरेलवी की ज़्यादा-तर ग़ज़लें याद थीं और ये वही गाती थी। ये लोग फ़ारसी ग़ज़लें सलीक़े से पढ़ते और उनके पढ़ने का एक ख़ास अंदाज़ था। ये लोग हज़रत शाह मोहम्मदी नियाज़ी इलाहाबादी के मुरीद थे और रबीउल अव्वल में आया करते थे। ये लोग तरतीब से मज्लिस में गाते थे। मुग़लपुरा में हसरत अज़ीमाबादी के यहाँ पर 10 तारीख़ को मज्लिस होती थी। वहाँ पर इस चौकी की मुक़र्ररी थी, 11 तारीख़ को ख़ानक़ाह एमादिया, मंगल तालाब में मुक़र्ररी थी और 25 तारीख़ को हज़रत पीर दमड़िया सुहरावर्दी में इस चौकी की मुक़र्ररी थी। बदरुल हसन एमादी लिखते हैं किः
‘‘राक़िम के वालिद माजिद 14 रबीउल-अव्वल को मीलाद करते थे, मज्लिस-ए-क़व्वाली होती थी, तआमदारी होती थी, बाग़ के मकान में खाना खिलाया जाता था, राक़िम के लड़कों ने इस मकान को मैदान कर दिया, चूँकि राक़िम ने ज़बान नज़्रउल-हसन को दे दिया। इमारत ग़ायब है, इस गिरोह की मुक़र्ररी भी सालाना दी जाती थी।
मोहम्मद अब्बास क़व्वाल गोरखपुर से ख़लील दास के साथ पटना में आए थे और ये लोग बहुत अच्छे क़व्वाल थे। ख़ूब अच्छी क़व्वाली जानने के साथ-साथ मज्लिस का रंग ख़ूब पहचानते थे। ये अच्छे कलाम पढ़ते। उनका एक ख़ास किस्म का नाज़-ओ-अंदाज़ था”
(यादगार-ए-रोज़गार, स० 875)
सन् 1905 के आस-पास ख़ैराबाद के क़व्वाल अब्दुल वाहिद और असग़र हुसैन आते थे। उन लोगों ने यहाँ के क़व्वालों से ज़्यादा कमाया और अपना नाम पैदा कर गए। उस वक़्त क़ायम मियाँ, हज़रत शाह फ़ज़ल बनारसी से मुरीद हुए थे। शाह फ़ज़ल ने अपनी ज़िन्दगी ख़ुदा को राज़ी करके गुज़ारी। पटना में हकीम मोहम्मद हसन उनके मुरीद हुए, हकीम इस्हाक़ ने उनसे शिक्षा ली और इसके अलावा भी कुछ लोग उनके मुरीद हुए। उनके ज़माने में इन क़व्वालों को बड़ा उरूज हासिल हुआ। शाह फ़ज़ल के बाद फिर ये लोग दोबारा नहीं आए और इस चौकी की कोई हैसियत बाक़ी नहीं रही।
कुछ तवायफ़ों का मुख़्तसर हाल भी सुन लीजिए कि किस-किस तरह तवायफ़े पटना में आकर बसीं। इन तवायफ़ों के नाम की शोहरत दूर-दूर तक थी। लेकिन आज उनके नाम से भी कोई वाक़िफ़ नहीं। इन तवाय़फ़ों में ज़्यादा-तर लखनऊ की रहने वाली थीं, जैसे -बी हैदर जान, बी रम्ज़ो, बी छुट्टन, बड़ी कनीज़, बी हिना यहूदिन, अल्लाह जलाई, बी मोहम्मद बांदी, राज़िया बेगम, बी बिस्मिल्लाह, बी हुरमुज़ी, गोरखपुर की बी बस्ती और कलकत्ता की बसंतो धरी, पटना की सोबर बाई और आगरा की ज़ोहरा बाई (जो हज़रत शाह अकबर दानापूरी की मुरीदा और शागिर्दा थीं)।
सन् 1885 में आगरा की ज़ोहरा बाई अपनी माँ के साथ महाराजा दरभंगा के दरबार में पहुँची थीं। बदरुद्दीन अहमद बदर लिखते हैं किः
‘‘ये गाती तो ऐसा मालूम होता कि दर-ओ-दीवार से नग़मे फूटे पड़ते हैं, फ़ज़ा से नग़मों की बारिश हो रही है और महफ़िल में रागनी देवी अपने जाह-ओ-जलाल के साथ बिराजमान है, इस के पास दूर-दूर से गानों के माहिर और उस्ताद आते थे और कुछ न कुछ इस से फ़ैज़ हासिल करके ले ही जाते थे।’’
(हक़ीक़त भी कहानी भी, स० 1653)
ज़ोहरा बाई की मूसीक़ी को आगरा में उस्ताद फ़य्याज़ ख़ाँ और पटियाला घराने के बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ ने भी लिया है। उन्होंने बा’द में इन चीज़ों से दूरी कर ली थी। ज़ोहरा बाई को हज़रत शाह अकबर दानापूरी से बड़ी अक़ीदत थी। इन सब चीजों को छोड़ने के बाद वो उन्हीं से मुरीद भी हुई और उन्हीं से अपनी ग़ज़ल पर इस्लाह भी लेती रहीं। उन्हें शे’र कहने का अच्छा ख़ासा शौक़ था, उन्हीं में से दो-चार शे’र सुनिए और लुत्फ़ लीजिए।
पी के हम तुम जो चले झूमते मयख़ाने से
झुक के कुछ बात कही शीशे ने पैमाने से
हमने देखी हैं किसी शोख़ की मय-गूँ आँखें
मिलती जुलती हैं छलकते हुए पैमाने से
(हक़ीक़त भी कहानी भी, स० 166)
मख़्दूम बख़्श भी ज़ोहरा बाई के साथ साज़ बजाते थे। उनको राग की अच्छी पहचान थी और मूसीक़ी में उस्ताद कहे जाते थे। पटना की एक औरत के चक्कर में पड़ कर उन्होंने ख़ुद को बर्बाद कर लिया, वर्ना ज़माने में नाम पैदा करते। ये आम तौर से उस वक़्त के माहौल का असर था कि ज़्यादा-तर लोग ऐसी चीज़ों में उलझ कर ख़ुद को तबाह कर लेते थे।
हज़रत क़ासिम अबुल-उलाई ढोलकी पंजाब के रहने वाले थे, जब बंगाल का सफ़र किया तो पटना आए और हज़रत पीर मुजीबुल्लाह क़ादरी से इजाज़त ली और अपने सिलसिले की इजाज़त उन्हें दी, आप की गिनती सिलसिला-ए-अबुल-उलाईया के बड़े बुज़ुर्गों में होती है, आप क़ासिम ढोलकी के नाम से मशहूर थे क्योंकि सफ़र में भी अपने ज़ौक़-ए-समाअ’ के बिना पर क़व्वाल साथ लेकर चलते थे।
ख़ानक़ाह सज्जादिया अबुल-उलाईया, दानापूर की मज्लिस का वाक़िया है कि 19 रमज़ान को हज़रत मौला अली का फ़ातिहा होता चला आ रहा है, मख़्दूम सज्जाद पाक को इस दौरान कैफ़ियत आई और इसी कैफ़ियत के दौरान ये मिसरा ज़बान से निकला।
फ़ना-ए-ज़ात-ए-अली हूँ अजब मक़ाम में हूँ’
इस मज्लिस में पटना के अक्सर नवाब और ज़मींदार मौजूद थे, मज्लिस के बाद दूसरा मिसरा यूँ अदा किया-
मैं मुक़तदी भी हूँ मैं ही सफ़-ए-इमाम में हूँ
फ़ना-ए-ज़ात-ए-अली हूँ अजब मक़ाम में हूँ
ये वो क़िस्से हैं जो आज भी बिहार की ख़ानक़ाहों में मज्लिस-ए-समाअ’ के हवाले से बयान होते रहते हैं
बिहार के क़व्वालों की डायरी अगर देखें, तो उन में अरबी और फ़ारसी भाषा का बेहतरीन संग्रह मौजूद मिलता है। उनकी डायरियों में हज़रत उमर और हज़रत अली से लेकर प्रसिद्ध सूफ़ी-संतों के कलाम मिलते हैं। उन में अरबी की बेहतरीन नातें भी शामिल हैं और अहमद जामी, हाफ़िज़ शीराज़ी, निज़ामी गंजवी, मौलाना जलालुद्दीन रुमी, मिर्ज़ा अब्दुल क़ादिर बेदिल, शैख़ सादी, ख़्वाजा अबू सईद अबुल-ख़ैर, ख़्वाजा अत्तार, अमीर ख़ुसरौ, जान मोहम्मद क़ुदसी, शम्स मग़रिबी, उस्मान मरवंदी, अमीर हसन सिजज़ी, अहमद बल्ख़ी लंगर दरिया, शाह नियाज़ अहमद बरेलवी, शाह अबुल हसन फ़र्द फुल्वारवी के फ़ारसी क़लाम के साथ-साथ मिर्ज़ा ग़ालिब, जिगर मुरादाबादी, और अल्लामा इक़बाल के उम्दा कलाम भी शामिल हैं।
इसी तरह अगर बिहार के उर्दू शोरा की बात करें, तो उन में सब से प्रसिद्ध नाम हज़रत शाह अकबर दानापूरी का मिलता है, जिन के दर्जनों कलाम क़व्वालों द्वारा पढ़े जाते हैं। बिहार का शायद ही कोई क़व्वाल या मूसीक़ी-कार होगा, जिस ने आप के कलाम पर मश्क़ न की हो। इनके अलावा क़व्वाल बिहार के जिन उर्दू शाइरों के कलाम पढ़ते हैं, उनमे उल्लेखनीय हैं-
हज़रत शर्फ़ूद्दीन अहमद यहया मनेरी, ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़, मिर्ज़ा मोहम्मद अली फ़िदवी, शाह नूरुल हक़ तपाँ फुल्वारवी, क़ाज़ी मोहम्मद राफ़िक़, मख़्दूम सज्जाद पाक ‘साजिद’, शाह अली हबीब नस्र फुल्वारवी, ख़्वाजा क़यामुद्दीन असदक़, शाह मुब्तिला हुसैन ‘कैफ़ी’, शाह अकबर दानापूरी, शाह अमीन अहमद फ़िरदौसी, सूफ़ी मनेरी, इमदाद इमाम असर, शाह चाँद अशरफ़ी, हसन जान, तसद्दुक़ अली असद, कशिश फुल्वारवी, क़ाज़ी मज़ाहिर इमाम, ख़्वाजा हमीदुद्दीन नक़्शबन्दी, शाह हयात अहमद फ़िरदौसी, शैख़ इदरीस चिश्ती ‘सैरदा’, शाह महमूदुल हसन शहसरामी, शाह सुल्तान अहमद चिश्ती, शाह ज़फ़र सज्जाद दानापूरी, शाह अय्यूब अब्दाली नय्यर इस्लामपुरी, अफ़ज़ल हुसैन अस्दक़ी, शाह मसऊदुल हसन शहसरामी, सफ़ी-उल-आलम शहबाज़ी, शाह मुरादुल्लाह मनेरी, फ़ाएक़ शहबाज़ी, शाह फ़िदा हुसैन फ़य्याज़ी, मुईज़ बल्ख़ी, शाह क़सीमुद्दीन अहमद शर्फ़ी, इश्तियाक़ आलम शहबाज़ी, फ़रीद एमादी, शाह बुरहानुद्दीन अहमद मनेरी।
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