जब हुई है परवरिश मेरी जिगर-दारों के बीच
जब हुई है परवरिश मेरी जिगर-दारों के बीच
डर के रह सकता हूँ कैसे मैं सितम-गारों के बीच
अहल-ए-हक़ करते नहीं परवाह कभी भी जान की
वो नमाज़ें पढ़ लिया करते हैं तलवारों के बीच
ज़िंदगी क्या क्या सितम ढाती है इक इंसान पर
बैठ कर देखो कभी हालात के मारों के बीच
क्यूँ सजाए जा रहे हैं गुल जनाज़े पर मिरे
हर क़दम गुज़री है मेरी उ'म्र जब ख़ारों के बीच
खोल दे रहमत के दरवाज़े ख़ुदा मेरे लिए
लिख दे मेरा नाम भी जन्नत के हक़-दारों के बीच
सच पे पर्दा डाल कर जो झूट को तरजीह दें
बैठने से फ़ाएदा क्या ऐसे सरदारोँ के बीच
साँप बाहर आस्तीनों के निकल आए 'फ़रोग़'
सुन के मेरे संदली अशआ'र मक्कारों के बीच
- पुस्तक : Sukhan Waraan-e-Izzat (पृष्ठ 75)
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