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शे'र
ये कह कर ख़ाना-ए-तुर्बत से हम मय-कश निकल भागेवो घर क्या ख़ाक पत्थर है जहाँ शीशे नहीं रहते
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
गुरु के पावन चरणों में तू शीष झुका दे ऐ पगलेमाया-जाल से निकलेगा तू मोक्ष उसी से पाएगा
अब्दुल हादी काविश
ग़ज़ल
ख़ुद ही मैं साक़ी था ख़ुद मय-कश था ख़ुद ही जाम थाहाय वो दिन जब मिरे जल्वे थे तेरा बाम था