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ग़ज़ल
अरे दिल क्या सबब नाहक़ परेशाँ इस क़दर है रेकिसी के हल्क़ा-ए-काकुल का शायद कुछ असर है रे
तुराब अली दकनी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
दाम-हा गुस्तर्द ईं ज़ुल्फ़-ए-परेशान-ए-शुमामुर्ग़-ए-दिल शुद सैद ऐ जानम ब-क़ुर्बान-ए-शुमा
शाह अकबर दानापूरी
ग़ज़ल
इलाही ख़ैर करना इ'श्क़ की मंज़िल परेशाँ हैइधर है इज़्तिराब-ए-दिल उधर क़ातिल परेशाँ है
मिरर्ज़ा फ़िदा अली शाह मनन
सूफ़ी कहावत
ता परीशान न शवद कार बासामान नरसद
जब परेशानी हद से ज़्यादा बढ़ जाती है, तब वह ठीक हो जाती है
वाचिक परंपरा
ना'त-ओ-मनक़बत
ख़याल-ए-आख़िरत से हूँ परेशाँ या रसूल-अल्लाहउठाऊँगा मैं कैसे बार-ए-’इस्याँ या रसूल-अल्लाह
अब्दुल हादी काविश
शे'र
क़फ़स में भी वही ख़्वाब-ए-परेशाँ देखता हूँ मैंकि जैसे बिजलियों की रौ फ़लक से आशियाँ तक है