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ग़ज़ल
क्यूँ न ख़ुश हूँ मौत आई मुझ को मंज़िल के क़रीबजान परवाना की निकली शम्अ'-ए-महफ़िल के क़रीब
अफ़क़र मोहानी
ना'त-ओ-मनक़बत
जब कि सुब्हानल-लज़ी की मंज़िलें होंगी क़रीबजब कि होगी माद्दी-ए-मे'राज इंसाँ को नसीब
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
वसवसे आते नहीं ये मर्द-ए-कामिल के क़रीबदूर है मंज़िल से वो या है वो मंज़िल के क़रीब
अब्दुल रब तालिब
ग़ज़ल
उस को जब ढूँढा तो वो निकला रग-ए-जाँ के क़रीबऔर ज़मीन-ओ-आसमाँ को फ़ास्ला समझा था मैं
आरिफ़ सीमाबी बानकोटी
ना'त-ओ-मनक़बत
न कहीं से दूर हैं मंज़िलें न कोई क़रीब की बात हैजिसे चाहें उस को नवाज़ दें ये दर-ए-हबीब की बात है