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ग़ज़ल
आ’लम-ए-मस्ती है आईना-ए-रुख़ रुख़-ए-पुर-नूर काबे-ख़ुदी में देखते हैं हम तमाशा नूर का
ख़्वाजा नासिरुद्दिन चिश्ती
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ग़ज़ल
शब-ए-असरा नक़ाब उट्ठा जो रुख़ से ना-गहाँ तेरातो ज़ाहिर हो गया 'आलम पे राज़-ए-कुन-फ़काँ तेरा
क़ातिल अजमेरी
शे'र
सदिक़ देहलवी
कलाम
अगर का'बः का रुख़ भी जानिब-ए-मय-ख़ाना हो जाएतो फिर सज्दः मिरी हर लग़्ज़िश-ए-मस्ताना हो जाए
बेदम शाह वारसी
फ़ारसी कलाम
आस्तीं बर रुख़ कशीदी हम-चु मक्कार आमदीबा-ख़ुदी ख़ुद दर तमाशा सू-ए-बाज़ार आमदी
अब्दुल क़ुद्दूस गंगोही
कलाम
अनवर मिर्ज़ापुरी
कलाम
मेरे मह-जबीं ने ब-सद-अदा जो नक़ाब रुख़ से उठा दियाजो सुना न था कभी होश में वो तमाशा मुझ को दिखा दिया
औघट शाह वारसी
ग़ज़ल
तू ने दिखला के रुख़ अपना मुझे हैरान कियादिल को उलझा के ज़ुल्फ़ों में परेशान किया