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फ़ारसी सूफ़ी काव्य
ऐ दस्तत अज़ निगार सफेद-ओ-स्याह-ओ-सुर्ख़वे चश्मत अज़ ख़ुमार सफ़ेद-ओ-स्याह-ओ-सुर्ख़
अमीर ख़ुसरौ
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ग़ज़ल
जल्वः-आरा कौन बे-पर्दः ये पर्दः-पोश हैज़र्रः ज़र्रः बज़्म-ए-हस्ती का जो अब मदहोश है
हैरत शाह वारसी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
तुर्क-ए-सफ़ेद-रूए- व सियह-चश्म-ओ-लालः-रंगमिस्लत नज़ाद मादर-ए-अय्याम शोख़-ओ-शंग
अमीर ख़ुसरौ
बैत
यही बेहतर है कि तू पर्दा में रू-पोश रहे
यही बेहतर है कि तू पर्दा में रू-पोश रहेबरमला मुँह को दिखा दे तो किसे होश रहे
अज्ञात
ग़ज़ल
मिरी हस्ती का जल्वों में तिरे रू-पोश हो जानायहीं तो है बस इक क़तरा का दरिया नोश हो जाना
अफ़क़र मोहानी
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
रफ़्ती अज़ पेश-ए-मन व नक़्श-ए-तू अज़ पेश न-रफ़्तकीस्त कू दीद ब-रुख़सार-ए-तू व ज़े-ख़्वेश न-रफ़्त