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ग़ज़ल
हक़ीक़त में जो राज़-ए-दूरी-ए-मंज़िल समझते हैंउन्हीं को हम सुलूक-ए-इश्क़ में कामिल समझते हैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
हबाब-ए-आसा जिन्हें बहर-ए-फ़ना से पार उतरना हैभंवर को अपनी कश्ती मौज को साहिल समझते हैं
शफ़क़ एमाद्पुरी
ग़ज़ल
पस-ए-पर्दा तुझे हर बज़्म में शामिल समझते हैंकोई महफ़िल हो हम उस को तिरी महफ़िल समझते हैं
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
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कलाम
रिंद जो मुझ को समझते हैं उन्हें होश नहींमैं मय-कदा साज़ हूँ मैं मय-कदा बर्दोश नहीं
जिगर मुरादाबादी
कलाम
हक़ीक़त और ही कुछ है मगर हम क्या समझते हैंजो अपना हो नहीं सकता उसे अपना समझते हैं
पीर नसीरुद्दीन नसीर
ग़ज़ल
हम तो समझते थे कि इक दिन मेहरबाँ हो जाएँगेये ख़बर क्या थी नसीब-ए-दुश्मनाँ हो जाएँगे
मुज़्तर ख़ैराबादी
कलाम
फ़ना पर ए'तिबार-ए-ज़िंदगी मुश्किल समझता हूँवहाँ मदफ़न निकलता है जहाँ महफ़िल समझता हूँ
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
तू समझता है कोई नाला-ए-शबगीर का दर्दजिस के दिल में चुभे जाने वही उस तीर का दर्द
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
ग़ज़ल
समझता है दिल-ए-नादाँ कि मैं ने कब किया कुछ हैफ़रिश्तों ने ख़ुदा जाने कहाँ से लिख दिया कुछ है