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ग़ज़ल
न रोता ज़ार ज़ार इतना न करता शोर-ओ-शर इतनाइलाही क्या करूँ दर्द-ए-जिगर इतना जिगर इतना
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
रो रो के ज़ार-ज़ार ये कहता है जान-ए-अब्रहो चश्म-ए-अश्क-बार पे ये साएबान-ए-अब्र
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
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दोहा
देख मैं अपने हाल को रोऊँ ज़ार-ओ-ज़ार
देख मैं अपने हाल को रोऊँ ज़ार-ओ-ज़ारवै गुनवंता बहुत हैं हम हैं अवगुण-हार
अमीर ख़ुसरौ
ग़ज़ल
ज़ोर दिखलाता है क्या-क्या ज़ो'फ़ जिस्म-ए-ज़ार कारंग उड़ने को तरसता है मिरी रुख़्सार का
मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम
सूफ़ी कहावत
अफ़्व कर्दन (बर)ज़ालिमां जौर अस्त बर मज़लूमां
अत्याचारियों के प्रति कृपा दुर्बलों के प्रति क्रूरता है।
वाचिक परंपरा
शे'र
जफ़ा-ओ-जौर के सदक़े तसद्दुक़-बर-ज़बानी परसुनाते हैं वो लाखों बे-नुक़त इस बे-दहानी पर
कौसर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
जफ़ा-ओ-जौर के सदक़े तसद्दुक़-बर-ज़बानी परसुनाते हैं वो लाखों बे-नुक़त इस बे-दहानी पर