न रोता ज़ार ज़ार इतना न करता शोर-ओ-शर इतना
न रोता ज़ार ज़ार इतना न करता शोर-ओ-शर इतना
इलाही क्या करूँ दर्द-ए-जिगर इतना जिगर इतना
हमारे वास्ते ता'ने सुना करते हो ग़ैरों के
तुम्हारा भी दिल इतना हौसला इतना जिगर इतना
तड़प जाने लगा दिल अब तो हर इक शय की ख़ूबी पर
न दे दुश्मन के दुश्मन को ख़ुदा ज़ौक़-ए-नज़र इतना
तिरे आ'शिक़ की सूरत अब तो पहचानी नहीं जाती
सताते हैं भला इस तरह ऐसा इस क़दर इतना
ख़ुदा के वास्ते इंसाफ़ कर ओ रूठने वाले
तग़ाफ़ुल शेवा-ए-मा'शूक़ है ज़ालिम मगर इतना
हमें मा'लूम है ये भी तुझे मा'लूम है सब कुछ
हमें उस की ख़बर भी है नहीं तू बे-ख़बर इतना
नहीं मिलते तो कह दो और मिलना है तो मिल जाओ
कोई कब तक फिरे कूचा ब-कूचा दर बदर इतना
'सफ़ी' क्यूँ क़द्र का तालिब हुआ है इस ज़माने में
अरे कम-बख़्त तेरे पास कब है माल-ओ-ज़र इतना
- पुस्तक : गुल्ज़ार-ए-सफ़ी (पृष्ठ 18)
- रचनाकार : सफ़ी, औरंगाबादी
- प्रकाशन : गोल्डेन प्रेस, हैदराबाद (1987)
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