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सूफ़ी लेख
बहादुर शाह और फूल वालों की सैर
देख लिया आपने फूल वालों की सैर का मज़ा। और अब की क्या पूछते हो। ग़द्र
मिर्ज़ा फ़रहतुल्लाह बेग
सूफ़ी लेख
हिन्दुस्तानी क़व्वाली के विभिन्न प्रकार
18. फूलगुलपोशी अर्थात फूल पेश करते समय फूल पढ़ा जाता है ।
सुमन मिश्रा
सूफ़ी लेख
कबीरपंथी और दरियापंथी साहित्य में माया की परिकल्पना - सुरेशचंद्र मिश्र
बीजक, पृ. 135 सेमर फूल जस किरुवां आवा। देखि फूल बहु हरष बढ़ावा।
हिंदुस्तानी पत्रिका
सूफ़ी लेख
संत साहित्य - श्री परशुराम चतुर्वेदी
आप फूल फल छाया।आपहि सूर किरन परकासा,
हिंदुस्तानी पत्रिका
सूफ़ी लेख
गुजरात के सूफ़ी कवियों की हिन्दी-कविता - अम्बाशंकर नागर
दोहराभौंरा लेवे फूल रस, रसिया लेबे बास।
भारतीय साहित्य पत्रिका
सूफ़ी लेख
पदमावत के कुछ विशेष स्थल- श्री वासुदेवशरण
(1) कँवल= पद्मिनी स्त्री या कमल का फूल। कुंद= खराद, एक फूल का नाम। नेवारी= बनाई
नागरी प्रचारिणी पत्रिका
सूफ़ी लेख
मीरां के जोगी या जोगिया का मर्म- शंभुसिंह मनोहर
साधेंगे जोग स्नेहगंगा के तट पै,बीनेंगे फूल भर डाली।’
नागरी प्रचारिणी पत्रिका
सूफ़ी लेख
महाराष्ट्र के चार प्रसिद्ध संत-संप्रदाय - श्रीयुत बलदेव उपाध्याय, एम. ए. साहित्याचार्य
भक्ति तें मूल ज्ञान ते फल। वैराग्य केवल तेथीं चे फूल।।
हिंदुस्तानी पत्रिका
सूफ़ी लेख
महाराष्ट्र के चार प्रसिद्ध संत-संप्रदाय- श्रीयुत बलदेव उपाध्याय, एम. ए. साहित्याचार्य
भक्ति तें मूल ज्ञान ते फल। वैराग्य केवल तेथीं चे फूल।।
हिंदुस्तानी पत्रिका
सूफ़ी लेख
बक़ा-ए-इन्सानियत में सूफ़ियों का हिस्सा (हज़रत शाह तुराब अ’ली क़लंदर काकोरवी के हवाला से) - डॉक्टर मसऊ’द अनवर अ’लवी
इस जहाँ का ऐ’ब आ’लम है॥फूल हँसता है और कली चुप है।
मुनादी
सूफ़ी लेख
महाकवि सूरदासजी- श्रीयुत पंडित रामचंद्र शुक्ल, काशी।
कहिहौंन मृदु मुरली बजावन, करन तुमसों गान।। कहिहौं न चरनन देन जावक, गुहन बेनी फूल।
नागरी प्रचारिणी पत्रिका
सूफ़ी लेख
हिन्दुस्तानी तहज़ीब की तश्कील में अमीर ख़ुसरो का हिस्सा - मुनाज़िर आ’शिक़ हरगानवी
फ़रोग़-ए-उर्दू
सूफ़ी लेख
उ’र्फ़ी हिन्दी ज़बान में - मक़्बूल हुसैन अहमदपुरी
उ’र्फ़ी धीरज राखिए जो भी नाम धराएपीत लगे जिस शूल को तुरत फूल हो जाए
ज़माना
सूफ़ी लेख
खुसरो की हिंदी कविता - बाबू ब्रजरत्नदास, काशी
(138) बाँस काटे ठायँ ठायँ नहीं को कँगुआय।कँवल का सा फूल जैसे अंगुल अंगुल जाय।।
नागरी प्रचारिणी पत्रिका
सूफ़ी लेख
खुसरो की हिंदी कविता - बाबू ब्रजरत्नदास, काशी
(138) बाँस काटे ठायँ ठायँ नहीं को कँगुआय। कँवल का सा फूल जैसे अंगुल अंगुल जाय।।