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ज़ेर-ए-चर्ख़-ओ-सर ज़मीं न रहेमुझ को कहते हैं तू कहीं न रहे
जब चर्ख़ पे तारे मुझे करते हैं इशारेजाग उठते हैं ख़ाकिस्तर-ए-माज़ी में शरारे
और ऐ पीर-ए-चर्ख़ क्या कोसूँसब्र तुझ पर मिरी जवानी का
यार तेरे नब्ज़ से मिस्ल-ए-बुर्राक़चर्ख़ पर अस्प-ओ-शुत्र उड़ने लगे
जब तड़पता है दिल मैं डरता हूँचर्ख़ पर जा पड़े ज़मीं न कहीं
सब्ज़ा-ए-चर्ख़ को अँधयारी लगा कर लायाशहसवार-ए-’अरबी के लिए काला बादल
गर्दिश ने मेरी चर्ख़ का चकरा दिया दिमाग़नालों से अब ज़मीं के तबक़ थरथराएँंगे
सिखाते नाला-ए-शब-गीर को दर-अंदाज़ीग़म-ए-फ़िराक़ का उस चर्ख़ को अदू करते
समझे हैं जिस को अहल-ए-ज़मीं चर्ख़-ए-आबगूँइक शीशा है मिरे अ'रक़-ए-इंफ़िआ'ल का
उड़ा पतंग मोहब्बत का चर्ख़ से भी दूरख़िरद की दौड़ को अब छोड़ दीजिए तो सही
जो हम उजड़े हुओं पर मेहरबाँ हो चर्ख़ ऐ गुलचींबजाए बर्ग पैदा हों नशेमन शाख़-सारों में
ऐ 'दाग़' तुझ को रिज़्क़ की ख़्वाहिश है चर्ख़ सेउतना ये ग़म खिलाएगा खाया न जाएगा
अपनी गर्दिश पे बहुत है तुझे ऐ चर्ख़ घमंडजब मैं जानूँ कि शब-ए-ग़म की सहर पैदा कर
सज्दा-ए-शौक़ फ़रिश्तों ने किया था मुझ कोदेख ले चर्ख़ वही ख़ाक आग का पुतला हूँ मैं
रख न नख़वत से क़दम ग़ाफ़िल कर इतना तो ख़यालआस्या-ए-चर्ख़ ने पीसा उसे जो दाना है
रू-ब-रू-ए-दीदा-ए-’इबरत है अंजाम-ए-हबाबसर उठाने की तह-ए-चर्ख़-ए-बरीं हिम्मत नहीं
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