तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर
तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर
सरफ़रोशी की तमन्ना है तो सर पैदा कर
कोहकन कोह-कनी शेवा-ए-उ'श्शाक नहीं
है जो आ'शिक़ दिल-ए-मा'शूक़ में घर पैदा कर
रँग चाहे अगर उस बाग़ में आज़ादी का
निकहत-ए-गुल की तरह शौक़-ए-सफ़र पैदा कर
क़तरा-ए-अश्क बने गौहर-ए-गोश-ए-जानाँ
आबरू इतनी तो ऐ दीदा-ए-तर पैदा कर
उड़ चलेगा अभी ऐ यार ज़रा बाल तो खोल
तुझ को बनना है परी-ज़ाद तो पर पैदा कर
कौन सी जा है जहाँ जल्वा-ए-मा'शूक़ नहीं
शौक़-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर
मेरे ही दिल पे गिरे काश ये बिजली बन कर
ऐ फ़लक आह में इतना ही असर पैदा कर
आख़िरत में अ'मल नेक ही काम आएँगे
पेश है तुझ को सफ़र ज़ाद-ए-सफ़र पैदा कर
इ'श्क़-ए-हुस्न-ए-नमकीन का जो उठाना है मज़ा
पहले कुछ ज़ाइक़ा-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर पैदा कर
अपनी गर्दिश पे बहुत है तुझे ऐ चर्ख़ घमंड
जब मैं जानूँ कि शब-ए-ग़म की सहर पैदा कर
सदमे उल्फ़त के उठाने हैं इलाही मुश्किल
दिल अगर एक दिया लाख जिगर पैदा कर
इ'श्क़-बाज़ी का अगर हौसला रखता है 'अमीर'
दिल जो लोहे का तो पत्थर का जिगर पैदा कर
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