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कलाम
तालिब ! जुहिदह न तकवा ताइत, मौज मंगा मू मस्ती।दिनी आहि उस्ताद अजल जे, हथि तलब जी तख्ती।
सचल सरमस्त
कलाम
उन्हीं से ग़म्ज़े करती है जो तुझ पर जान देते हैंअजल तुझ को भी कितना नाज़-ए-मअशूक़ाना आता है
अमीर मीनाई
कलाम
फ़स्ल-ए-गुल आई या अजल आई क्यों दर-ए-ज़िंदाँ खुलता हैया कोई वहशी और आ पहुंचा या कोई क़ैदी छूट गया
फ़ानी बदायूँनी
कलाम
अज़ल में जो सदा मैं ने सुनी थी कैफ़-ए-मस्ती मेंवही आवाज़ अब तक सुन रहा हूँ साज़-ए-हस्ती में