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कलाम
तन मैं यार दा शहर बणाया दिल विच ख़ास मोहल्ला हूआण अलिफ़ दिल वस्सों कीती होई ख़ूब तसल्ला हू
सुल्तान बाहू
कलाम
ये मकाँ से ता-सर-ए-ला-मकाँ उसी इक वजूद का ख़्वाब हैये ज़ुहूर दोनों जहान का रुख़ यार ही की नक़ाब है
ग़ौसी शाह
कलाम
शाह अकबर दानापूरी
कलाम
मेरे मह-जबीं ने ब-सद-अदा जो नक़ाब रुख़ से उठा दियाजो सुना न था कभी होश में वो तमाशा मुझ को दिखा दिया
औघट शाह वारसी
कलाम
'अजब क्या गर मुझे 'आलम ब-ईं वुस'अत भी ज़िंदाँ थामैं वहशी भी तो वो हूँ ला-मकाँ जिस का बयाबाँ था