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कलाम
क़ुल-हुवल्लाह ऐ सनम पढ़ना हमारी क़ब्र परतुर्बत-ए-मुख़्लिस पे ऐसे क़ुल का होना चाहिए
ख़्वाजा नासिरुद्दिन चिश्ती
कलाम
कुश्ता-ए-नाज़ की तुर्बत ये तिरे पर्दा-नशींएक हल्की सी मोहब्बत की रिदा होती है
शाह मोहसिन दानापुरी
कलाम
बे-कसी तुर्बत-ए-‘मुज़्तर’ पे ये चिल्लाती हैतेरे सदक़े गए क्यूँ तू ने बुलाया मुझ को
मुज़्तर ख़ैराबादी
कलाम
झुकते तुर्बत पे नहीं झुकते किसी और से हैंमा-सिवा उस का कहाँ राज़ है पिन्हाँ अपना
तसद्दुक़ अ’ली असद
कलाम
क़द्र-दाँ 'मुसहफ़ी'-ओ-हज़रत-ए-'सौदा' थे 'अमीर'ले के तुर्बत पे उन्हीं की ये ग़ज़ल जाऊँगा
अमीर मीनाई
कलाम
तुर्बत-ए-क़ैस से आती है ये आवाज़ हुनूज़मेरे पहलू में जो ख़ाली है ये जा किस की है
मिर्ज़ा अश्क लखनवी
कलाम
भड़क ऐ शम'-ए-कुश्ता और निगाह-ए-जुस्तुजू बन जामिरी तुर्बत किसी को बे-निशाँ मा'लूम होती है
माहिरुल क़ादरी
कलाम
मेरी तुर्बत पे आ कर ख़ुद ये ज़ाहिद ने दु'आ माँगीख़ुदा बख़्शे बहुत अच्छी गुज़ारी बुत-परस्ती में
बाक़ीर शाहजहांपुरी
कलाम
वो तुर्बत-ए-आ’शिक़ पर मुँह ढाँप कर आए हैंअल्लाह रे शर्म उन की अल्लाह रे रू-पोशी