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कलाम
जंगल दे विच शेर मरेला बाज़ पवे विच घर दे हू
इश्क़ जिन्हाँ सर्राफ़ न कोई खोट न छड्डे ज़र दे हू
सुल्तान बाहू
कलाम
सहबा अकबराबादी
कलाम
पीर नसीरुद्दीन नसीर
कलाम
मय-ए-वहदत से ओ साक़ी लबालब एक साग़र दे
मैं बंदा तेरा हो जाऊँ तू मतवाला मुझे कर दे
शाह तुराब अली क़लंदर
कलाम
ये असीर-ए-रंज-ओ-राहत में असीर-ए-ज़ुल्फ़-ए-जानाना
भला क्या समझ सकेगा मुझे ना समझ ज़माना
अब्दुल हादी काविश
कलाम
फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह-ओ-दमन
मुझ को फिर नग़्मों पे उकसाने लगा मुर्ग़-ए-चमन