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कलाम
कभी का'बे में पाता हूँ कभी बुत-ख़ाने के अंदरलगा के तुझ से दिल फिरता हूँ मारा-मारा मैं दर-दर
फ़राज़ वारसी
कलाम
उस का ज़िक्र है जारी हर एक साँस के अंदरये मसअला अब तो पहचानूँ क्या हो जिस्म के अंदर
डा. इरशाद बल्ख़ी
कलाम
ज़ाहर वेखां जानी ताईं नाले अंदर सीने हूबिरहों मारी नित फ़िरां मैं हस्सण लोक नाबीने हू