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कलाम
बा-वज़ू हो कर पिएँ सब मय-कदे में मिल के मुलहो रहे हैं एक रिंद ’आरिफ़-ओ-’आक़िल के क़ुल
बाक़ीर शाहजहांपुरी
कलाम
न तो मय-कदे की है जुस्तुजू न तलाश-ए-बादा-ओ-जाम हैजो नफ़्स नफ़्स को पिला गई मुझे उस निगाह से काम है
इक़बाल सफ़ीपुरी
कलाम
जो ज़रा सी पी के बहक गया उसे मय-कदे से निकाल दोयहाँ कम-नज़र का गुज़र नहीं यहाँ अहल ज़र्फ़ का काम है
जिगर मुरादाबादी
कलाम
फ़ना बुलंदशहरी
कलाम
आ रही है क़ुलक़ुल-ए-मीना से हक़ हक़ की सदादूर है अब मय-कदे में बादा-ए-मंसूर का