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कलाम
कुछ दर पे झुकाए हुए सर बैठे हैं 'साबिर'इस बज़्म से शायद कि निकलवाए हुए हैं
मिर्ज़ा क़ादिर बख़्श साबिर
कलाम
दिल चीज़ है क्या जान भी दूँ 'इश्क़ को 'साबिर'मैं नफ़्अ' समझता हूँ मुदाम ऐसे ज़रर को
मिर्ज़ा क़ादिर बख़्श साबिर
कलाम
फ़स्ल क्या फिर नहीं आने की जुनूँ की 'साबिर'आप के दिन को चले शहर में वीराने से
मिर्ज़ा क़ादिर बख़्श साबिर
कलाम
पढ़ो 'साबिर' कोई ऐसी ग़ज़ल बज़्म-ए-सुख़न-दाँ मेंकि ऐसा कोई गुलदस्ता न हो गुलज़ार-ए-रिज़वाँ में
मिर्ज़ा क़ादिर बख़्श साबिर
कलाम
‘मीरान’ शाह सर के बल तू अब चल पीरान-ए-कलियरफ़ैज़-ए-'आम गंज-ए-मख़्फ़ी साबिर लुटा रहा है
मीराँ शाह जालंधरी
कलाम
ज़ाहिर करने को तो कर भी दूँगा उस 'इरशाद' कोजो साबिर पाक की है जुस्तुजू उस साँस के अंदर