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कलाम
हक़ीक़त जल्वा-गर मुझ में है वो रम्ज़-ए-हक़ीक़त हूँमुअ'म्मा हूँ मैं इक बे-सूरती का नक़्श-ए-सूरत हूँ
ग़ौसी शाह
कलाम
दर-हक़ीक़त इंक़िलाब-ए-ज़िंदगी ए'जाज़ हैज़र्रा ज़र्रा ख़ाक-ए-हस्ती का जहान-ए-राज़ है
माहिरुल क़ादरी
कलाम
हक़ीक़त और ही कुछ है मगर हम क्या समझते हैंजो अपना हो नहीं सकता उसे अपना समझते हैं
पीर नसीरुद्दीन नसीर
कलाम
अल्लामा इक़बाल
कलाम
हक़ीक़त तो बस इतनी है हक़ीक़त ख़ुद हक़ीक़त हैतअ'ज्जुब है उसे अहल-ए-ग़रज़ क्या क्या समझते हैं
स्वामी निरमल
कलाम
हक़ीक़त में कोई वाक़िफ़ नहीं मेरी हक़ीक़त सेमुअ'म्मा हूँ किसी का राज़ हूँ या सिर्र-ए-क़ुदरत हूँ
शाह मोहसिन दानापुरी
कलाम
वही मस्जिद से उठ कर जानिब-ए-मय-ख़ाना आता हैहक़ीक़त में निगाहें देख लेती हैं हक़ीक़त को
बाक़ीर शाहजहांपुरी
कलाम
ज़बान-ए-जल्वा से है गोया जहाँ का सारा निगार-ख़ानाफ़साना-ए-ग़ैर इक हक़ीक़त हक़ीक़त-ए-ग़ैर इक फ़साना