अगर जमाल-ए-हक़ीक़त से रब्त मोहकम है
अगर जमाल-ए-हक़ीक़त से रब्त मोहकम है
नफ़स नफ़स में नई ज़िंदगी का 'आलम है
न कोई ख़ार न ज़ाहिद कोई जहन्नम है
ख़ुद अपनी-अपनी नज़र अपना-अपना 'आलम है
हर एक क़तरे में दरिया-ए-मा'रिफ़त है रवाँ
मगर नसीब हो क्यूँ कर प्यास ही कम है
अभी कमाल को पहुँची नहीं है फ़ितरत-ए-'इश्क़
कि आदमी को हनूज़ इंतिज़ार-ए-आदम है
जुनूँ भी साथ न दे अब तो कुछ नहीं परवा
ख़ुशा कि तेरी निगाहों से रब्त मोहकम है
जो गोश-ए-दिल-शनवा हो तो बज़्म-ए-हस्ती में
सुकूत-ए-साज़ भी इक नग़मा-ए-मुजस्सम है
ख़ुशी में भूल न जाना जिगर ये राज़-ए-हयात
कि जो ख़ुशी है यहाँ इक अमानत-ए-ग़म है
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