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कलाम
आरज़ू-ए-वस्ल-ए-जानाँ में सहर होने लगीज़िंदगी मानिंद-ए-शम्अ' मुख़्तसर होने लगी
ग़ुलाम मोईनुद्दीन गिलानी
कलाम
अपनी निगाह-ए-शौक़ को रोका करेंगे हमवो ख़ुद करें निगाह तो फिर क्या करेंगे हम
मौलाना अ’ब्दुल क़दीर हसरत
कलाम
सहर उस हुस्न के ख़ुर्शीद को जाकर जगा देखाज़ुहूर-ए-हक़ कूँ देखा ख़ूब देखा बा-ज़िया देखा
मिर्ज़ा मज़हर जान-ए-जानाँ
कलाम
लहराती है जब ज़ुल्फ़-ए-जानाँ बादल को पसीना आता हैमा'लूम ये होता है जैसे सावन का महीना आता है
नाज़ाँ शोलापुरी
कलाम
मुम्ताज़ अशरफ़ी
कलाम
बलाएँ ज़ुल्फ़-ए-जानाँ की अगर लेते तो हम लेतेबला ये कौन लेता जान पर लेते तो हम लेते
बहादुर शाह ज़फ़र
कलाम
बहर-जल्वा न रुस्वा कर मज़ाक़-ए-चश्म-ए-हैराँ कोयही बातें निगाहों से गिरा देती हैं इंसाँ को
सीमाब अकबराबादी
कलाम
छुड़ा देती है फ़िक्र-ए-ग़ैर से तासीर-ए-मय-ख़ानामिली है 'अर्श की ज़ंजीर से ज़ंजीर-ए-मय-ख़ाना